तियेनएनमेन की फाँस

[दैनिक जागरण में अपने पाक्षिक कॉलम 'परदेस से' में 07-12-2013 को प्रकाशित] 

तियेनएनमेन चौक. माने प्रतिबंधित शहर(फोर्बिडन सिटी) का मुख्य दरवाजा. वह जगह जहाँ से आम जन की आँखें ऊँची दीवारों के पार रहने वाले आभिजात्य वर्ग के जीवन में झाँकने की कोशिश भर कर पाती थीं. वह दीवाल जिसको सामन्ती समाजों में तोड़ पाना असंभव था. और फिर शब्दशः अर्थ में स्वर्ग का दरवाजा. टैक्सी के भीतर बैठे बैठे ही कितना कुछ तो गुजर गया था मन में. हाँ, यह उन तमाम प्रतिरोधी प्रदर्शनकारियों के लिए स्वर्ग, यानी मृत्यु का दरवाजा ही था जिनपर चीनी हुक्मरानों ने 1989 में टैंक चढ़वा दिए थे. और फिर स्मृति उस एक चेहरे पर ठहर गयी थी जो कभी भूला ही नहीं. बाद में टैंक मैन नाम से जाना गया वह अनाम चेहरा जो मौत के उस तांडव के बीच बढ़ते हुए टैंकों के एक कॉलम के आगे शांत और निडर खड़ा हो गया था और सत्ता के मद में भरे टैंक कुछ क्षण के लिए ही सही ठहर गए थे. अफ़सोस कि 20वीं सदी में प्रतिरोध का हस्ताक्षर बन गए इस चेहरे को मानवमुक्ति के आदर्श पर खड़ी विचारधारा के विचलन का गवाह बनना था.

उसी विचारधारा के साथ अब भी खड़े हुए मुझको असहज बना रहा तियेनएनमेन चौक अब भी ख़त्म नहीं हुआ था. 40 हेक्टेयर यानी कि 90 फुटबाल मैदानों के बराबर बड़ा यह सार्वजनिक चौक सिर्फ अपने भौगोलिक क्षेत्रफल ही नहीं बल्कि ऐतिहासिकता में भी दुनिया का सबसे बड़ा चौक ख़त्म होता भी कैसे? बाद में पता चलना था था कि 1989 की उस एक घटना के लिए बदनाम इस चौक ने हकीकत में किंग और मिंग वंश होते हुए बरास्ते लोक गणराज्य बाजारी समाजवाद तक छह शताब्दियों लम्बा सफ़र देखा है. 1415 में बनवाये जाने के बाद माओ द्वारा १९४९ में चीन को लोक गणराज्य बनाये जाने की घोषणा शायद उनमे सबसे महत्वपूर्ण थी. माओ का संरक्षित शरीर अब अभी इस पार्क के एक छोर पर बनाई गयी उनकी समाधि में रखा है, और अब भी उसे देखने को हर रोज मीलों लम्बी लाइन लगती है. वह लाइन जिसमें ‘इंदु’ यानी कि हिन्दुस्तानी होने की वजह से मुझे लोगों ने आगे कर दिया था. माओ के शरीर के सामने खड़े होकर, उन्हें देखकर उत्साह उन्माद और दुःख के बीच के किसी भाव के साथ रीढ़ की हड्डी में गुजर जाने वाली सिहरन तियेनएनमेन की मेरी यादों का स्थाई हिस्सा है. उस लाल झंडे के साथ जिसे देखकर लगा था कि इसमें रंग के सिवा लाल कहाँ बचा है?

खैर, तियेनएनमेन चौक ख़त्म हो आया था और टैक्सी अब भी उसी गति से बेहद चौड़ी सड़कों पर भाग रही थी. मेरी नजर अब रेलगाड़ियों के दो कोचों की तरह बीच से जुड़ी और मुड़ती बसों पर टिक गयी थी. हाँ, हांगकांग की डबल-डेकर बसों की जगह यहाँ इन ख़त्म न होती हुई सी लम्बाई वाली बसों का राज था. और फिर अचानक वह चीज समझ आई थी जिससे चीन में गुजरने वाले अगले दो हफ़्तों में रोज जूझना था. भारत और दुनिया के अन्य तमाम देशों के उलट चीन में ट्रैफिक उलट चीन में बाएं नहीं दायें हाथ चलता है. सुनने में बात बहुत सादा सी लग रही होगी पर इस छोटी सी बात से सड़क पार करने जैसा आसान काम पहाड़ तोड़ने में कैसे बदल जाता है यह इस दर्द को जीने वाले ही समझ सकते हैं.

टैक्सी अचानक एक गली सी में मुड़ गयी थी यह और बात कि यह गली भी दिल्ली की सड़कें छोड़ दें तो तमाम शहरों की सड़कों से चौड़ी थी. और फिर अचानक से सारा वास्तुशिल्प बदल गया था. अब तक दिखे चीन के चौड़े बुलवार्ड, चूना लगे फुटपाथों के पीछे आसमान चूमती चमचमाती ग्लास वाली इमारतें यहाँ आकर सटे आंगनों वाली एकमंजिला इमारतों में बदल गए थे और फिर अचानक दिमाग में कौंधा था, हाँ यही तो हुटाँग हैं. मतलब यह अब बम्बई के सपनों में शंघाई सा आने वाला चीन नहीं, 50 के दशक में हमारे साथ ही आजादी के सफ़र पर चला चीन, वह चीन जिसे नेहरू के सपनों में हमारा दोस्त चीन होना था. पर फिर इतिहास की अपनी गति होती है.

खैर, हुटाँग देख के अपने गांवों से गायब हो रहे खपरैल के घर बेसाख्ता याद आये थे. वैसे ही खुले खुले, आँगन वाले घर, और फिर ब्रेक की हलकी चीख के साथ टैक्सी रुक गयी थी. सागा यूथ हॉस्टल, माने अगले कुछ दिनों का अपना घर सामने था. हाँ, हिन्दुस्तानी बैकपैकर को देख कर आँखों में उभर आने वाल आश्चर्य हमें पहले रिसेप्शनिस्ट और फिर डॉर्मिटोरी में एक जापानी लड़के, और चार लड़कियों, एक मंगोलियन और तीन डैनिश, की आँखों मैं देखना था. 27 घंटे की रेल यात्रा से थका बदन सोया कब, पता ही नहीं चला. उठा तो शाम गहरा आई थी और यूथ हॉस्टलों की रवायत के बतौर ज्यादातर लोग लॉबी में जमा थे, अपनी अपनी बियर और बातों के साथ. अपनी जगह ढूंढते कदम भी उधर ही बढ़ चले थे.

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  1. "हाँ, यह उन तमाम प्रतिरोधी प्रदर्शनकारियों के लिए स्वर्ग, यानी मृत्यु का दरवाजा ही था जिनपर चीनी हुक्मरानों ने 1989 में टैंक चढ़वा दिए थे. और फिर स्मृति उस एक चेहरे पर ठहर गयी थी जो कभी भूला ही नहीं. बाद में टैंक मैन नाम से जाना गया वह अनाम चेहरा जो मौत के उस तांडव के बीच बढ़ते हुए टैंकों के एक कॉलम के आगे शांत और निडर खड़ा हो गया था और सत्ता के मद में भरे टैंक कुछ क्षण के लिए ही सही ठहर गए थे. अफ़सोस कि 20वीं सदी में प्रतिरोध का हस्ताक्षर बन गए इस चेहरे को मानवमुक्ति के आदर्श पर खड़ी विचारधारा के विचलन का गवाह बनना था."

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