सत्यापन: विलाप से प्रतिरोध की तरफ बढ़ती कहानियाँ

[दैनिक जागरण में  "विलाप से प्रतिरोध की ओर" शीर्षक से 16-03-2014 को प्रकाशित] 
अस्मितावाद का सबसे बड़ा संकट उसके भीतर से आता है, उसी पहचान को स्थाई बना देने का संकट जिसे ध्वस्त किये बिना मुक्ति संभव नहीं है. दुनिया के तमाम अस्मितावादी संघर्ष और विमर्श इस संकट में फँस कई बार उस पहचान को और गहरा कर खुद के खिलाफ़ खड़ा कर देते पाए गए हैं. राजनैतिक संघर्षों के स्तर पर दलित समाज के भीतर उभरती महा-दलित पहचान और साहित्य में दलित चेतना का प्रतिशोध खोजती पीड़ा का दस्तावेज बन रह जाना इसी संकट की निशानी है. 
कैलाश वानखेड़े की कहानियाँ इस ठहराव को बड़ी चुनौती पेश करती हैं. सत्यापन संग्रह की कुल 9 कहानियों में पीड़ा है, अमानवीयता से भरे समाज का सच है पर रूदन नहीं, अस्मिता को ध्वस्त करने का मुक्तिगान है. सत्यापन शीर्षक पहली कहानी में ही अस्पताल में डिलीवरी कराने पर मिलने वाले पैसे लेने के लिए भटक रहे भाऊ साहब इंगले की असली परेशानी पैसे नहीं हैं. वह कहता भी है कि ““पैसों की बात नीं है, नीं मिलें तो नीं मिलें’. असली बात है वह ब्राह्मणवादी दम्भ जो उसके गाँव के बौद्धवाड़ा के अस्वीकार में महारवाड़ा से बौद्धवाड़ा तक की प्रतिरोध और विजय यात्रा को खारिज करता है. इस गुस्से में ऐतिहासिकता का नकार नहीं, सच की पहचान है. वह जानता है कि “महारवाड़ा नीं है हमारे गाँव में. पेले था अब नीं है.अब तो बौद्धवाड़ा ही है.”. 
नहीं के लिए नीं और पहले के लिए पेले जैसे शब्दों का सहजता से चले आना इस संग्रह की दूसरी सबसे बड़ी बात है. यह शब्द आपको ठिठकाते नहीं बल्कि उस इलाके में लेकर चले जाते हैं जहाँ यह कहानियाँ लिखी नहीं, जी जाती हैं. यह अनायास आंचलिकता नहीं बल्कि हिंदी के मानकीकरण की ब्राह्मणवादी कोशिशों का सायास नकार है, विश्वविद्यालयों वाली हिंदी के खिलाफ असली हिंदी का प्रतिरोध है. अपनी भाषा खोजने के ऐसे सफ़र ही अपने पाठक गढ़ने तक पंहुचते हैं. इन कहानियों के पात्र किसी मत या पात्र को स्थापित करने के लिए इस्तेमाल किये गए साहित्यिक युक्तियाँ (लिटरेरी डिवाइस) नहीं बल्कि अपनी कमियों और ताकतों के साथ खड़े सी दुनिया के असली लोग हैं.  
शायद इसीलिए बेहद खुरदुरी सी लगती इन कहानियों नें हिंदी के सौंदर्यशास्त्र के बरक्स एक अलग ही सौन्दर्यशास्त्र गढ़ लिया है. वह सौंदर्य जिसमे ‘तुम लोग’ में चूल्हे की आग रत्नप्रभा के चेहरे पर चमक का बायस बनती है. वह जिसमें समझ नहीं आता कि आग जलने पर ‘रत्नप्रभा जलती है या जगमगाती है”. जिसमें इन्द्रधनुष देखते हुए नायक के दिमाग में चूल्हा सुलग रहा होता है. फिर से यह अनायास नहीं है बल्कि यथार्थ है.  कैलाश के पात्र भी चाहते हैं कि बारिश के साथ भीगती हुई नायिका की अल्हड़ता, कामुकता, नशा रोमांस जैसे बिम्ब उभरें पर उन्हें पता है कि बारिश आएगी तो उनकी झोपड़ियों में तबाही के सिवा कुछ नहीं लाएगी.  
पर यह कहानियाँ तबाही नहीं बल्कि तबाही से लड़ने की जिद की कहानियाँ हैं. उत्पीड़न के दुष्चक्र से निकल जिंदगी के अर्थ ढूंढ उसमे रंग भरने की कहानियाँ हैं. इन कहानियों के पात्र असफल भगोड़े नहीं जिद्दी योद्धा हैं. वे ‘मिर्ची लगाते’ हैं, बच्चों को पढ़ाने के लिए जिंदगी भर अपमान सहने के बाद उनके अपमान पर साहबों के गाल पर अनवरत ‘चाटों के सुर’ छेड़ सकते हैं. ये झूठे सपनों के सब्जबाग सी उम्मीदों की नहीं बल्कि ‘अंतर्देशीय पत्र’ की ‘गीली सब्जी’ सी उम्मीद सी, तरी  वाली सब्जी की उम्मीद सी कहानियाँ हैं. कैलाश के ऐसे मुहावरे चकित करते हैं, झिंझोड़ते हैं और अपना सौंदर्यशास्त्र ढूँढने की उनकी जिद आश्वस्त भी. 
एक भावभूमि पर लिखी गयी होने की वजह से सरसरी नजर में यकसां दिखती इन कहानियाँ का विस्तार उससे भी ज्यादा चमत्कृत करता है. ये कहानियाँ 1 रुपये का घासलेट खरीदते लोगों से लेकर ‘महू’ कॉलेज में बहुत सारे ‘शुडू’ लोगों के आ जाने से दुखी ‘उच्च’ जातीय रागिनी तक जाती हैं. संग्रह की शायद सबसे सशक्त यह कहानी उस आत्मसंघर्ष की कहानी है जिससे दलित समाज से सपने देखने वाले हर शख्स को गुजरना ही होता है. यह वह कहानी भी जिसमें लेखक की सधी और बहुत ठंडी नजर वंचित समाज से न आने वाले शायद हर पाठक की रीढ़ की हड्डी में एक सिहरन उतार देती है. 
‘प्यार’ से शुडू बोलती रागिनी और इसे उसका प्यार और मासूमियत समझती प्रज्ञा सिर्फ स्तब्ध नहीं करती बल्कि गैरदलित समाज से आने वाले हर ‘सफल’ व्यक्ति को अपराधी न सही अभियोगी तो बनाती ही है. कैसा अमानवीय समाज है जिसमे एक तरफ सब कुछ सहज हासिल है और दूसरी तरफ वह संघर्ष जिसमें लड़ नहीं पाकर मारे जाने को आत्महत्या कहा जाता है, जिसमे हत्यारे हत्यारे नहीं प्रोफ़ेसर कहलाते हैं. पर फिर वही, शुडू शब्द पर प्रज्ञा की तरह ही इन कहानियों में न गुस्सा है न उदासी, बस सब कुछ बदल डालने की ठंडी जिद है. खुद को बनाने के लिए जिंदगी लगा देने वाले माँ बाप को, बाबासाहेब को याद करती जिद- हम कहेंगे हम है कोटे वाले’ कहकर फ्रैंज फैनन की तरह उत्पीड़न और प्रतिरोध का व्याकरण बदल देने वाली जिद. 
इन कहानियों में बाबासाहेब और जोतिबा बार बार आते हैं. और उनके साथ आती है एक पैनी राजनैतिक समझ. हमारे यहाँ तहरीर चौक नहीं है कहती प्रज्ञा को मिले जवाब ‘हमारे यहाँ महू है’ के निहितार्थ बहुत गहरे हैं. यह कि तहरीर चौक में गुस्से से अचानक जमा हो गयी भीड़ से न दुनिया बदलती है न जिंदगी. उसके लिए बहुत मेहनत और समझ से लम्बी लड़ाई लड़नी होती है, वह लड़ाई जो शिक्षा से संगठन तक जाती है. वह भी जिसमे आस्था नहीं समझ जरुरी होती है. शायद इसीलिए इन कहानियों में स्कूल स्थाई बिम्ब सा बार बार आता है और स्कूल जाने से रोकने को आतुर यथास्थितिवादियों के हमले भी. क्या था गुनाह प्रियंका का- बदन, दिमाग हिम्मत, बराबरी का इरादा, आर्मी में जाने का सपना पूछती ‘कितने बुश कितने मनु’ का सवाल खैरलांजी का नहीं बल्कि इस समाज की अमानवीयता का सवाल है. 

कुल मिला कर यह संग्रह सिर्फ दलित विमर्श नहीं बल्कि पूरे हिंदी साहित्य में लम्बे ठहराव को तोड़ते हुए एक नयी उम्मीद सा आया है. मैं नहीं मरने वाला इस तरह’ कहते हुए दुःख और पीड़ा को दर्ज करने से प्रतिरोध की तरफ बढ़ता ऐसा संग्रह जिसे पढ़ना अनिवार्य है. ‘ 

Comments

  1. "नहीं के लिए नीं और पहले के लिए पेले जैसे शब्दों का सहजता से चले आना इस संग्रह की दूसरी सबसे बड़ी बात है. यह शब्द आपको ठिठकाते नहीं बल्कि उस इलाके में लेकर चले जाते हैं जहाँ यह कहानियाँ लिखी नहीं, जी जाती हैं. यह अनायास आंचलिकता नहीं बल्कि हिंदी के मानकीकरण की ब्राह्मणवादी कोशिशों का सायास नकार है, विश्वविद्यालयों वाली हिंदी के खिलाफ असली हिंदी का प्रतिरोध है. "

    समीक्षक ने रचना की अंतर्वस्तु ही नहीं संरचना से भी विरोध के समाजशास्त्र को ढूंढ लिया है। बहुत बढ़िया समीक्षा एक बहुत ज़रूरी रचना की।

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  2. विश्वविद्यालयों वाली हिंदी के खिलाफ असली हिंदी का प्रतिरोध है........just like the English of Black people

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  3. bhai pahle ki liye pele aur nahi ke liye ni me koi pratirodh ni hai.ye bhopal aur us elaake ki saamanya bhasha hai jahan kailash vaankhede hain.kbi bhopal sahar me aa k dekh jao raha k liya riya nhi k liye ni pahle ke liye pele jaise sabd hi chalte hain.iske pryog ka brahaman vadi kosiso se koi lena dena nhi hai.waise bi marathi hindi ka uchharan bi waise hota hai

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  4. "अस्मितावाद का सबसे बड़ा संकट उसके भीतर से आता है, उसी पहचान को स्थाई बना देने का संकट जिसे ध्वस्त किये बिना मुक्ति संभव नहीं है. दुनिया के तमाम अस्मितावादी संघर्ष और विमर्श इस संकट में फँस कई बार उस पहचान को और गहरा कर खुद के खिलाफ़ खड़ा कर देते पाए गए हैं."

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