फकीराना यायावरी उर्फ़ बैकपैकिंग@ बीजिंग

[दैनिक जागरण में अपने पाक्षिक कॉलम 'परदेस से' में 29-03-2014 को प्रकाशित] 

पीठ पर टंगे एक, या कभी कभी दो झोलों में गृहस्थी भरके दुनिया भटकने निकल जाना, बैकपैकिंग इसी फक्कड़ अंदाज का नाम है. घूमने तो यों भी पर्यटक निकलते हैं, सैलानी निकलते हैं, बैकपैकर्स सूफियों के, संतों के या फिर एकदम सच कहें तो औघड़ों के सिलसिले से आते हैं, फर्क यह कि उनके भटकने में ईश्वर नहीं बल्कि खुद को खोजने की चाह ज्यादा होती है. सूफियों की तरह वह भी अपने जैसे औरों से मिलते हैं, दोस्त बनते हैं पर फिर वह खानकाहें बना कर उनमें बस नहीं. वे छूटते शहरों के साथ दोस्त छोड़ दोस्ती साथ रखकर आगे बढ़ जाते हैं.

सो सागा यूथ हॉस्टल पर उतर आयी उस शाम में भी लॉबी की तरफ बढ़ते हुए मेरे दिल में नए दोस्तों से मिलने की यही ललक थी. यूँ भी शाम होते ही बियर उठा लॉबी में इकठ्ठा हो जाना बैकपैकिंग के लिए वैसा ही है जैसा धर्मों के लिए उनकी परम्परायें. छूट जाय तो छूट गयी इबादत सा अहसाह होता है. इस इकठ्ठा होने में बातें बहुत होती हैं. शहर के सबसे शानदार मगर सस्ते पब से लेकर श्री लंका के युद्ध अपराधों तक जाने वाली बातें. स्थानीय लोगों से बातचीत और स्ट्रीट फ़ूड के अड्डों से लेकर नए दोस्तों की जिंदगी में झाँकने वाली बातें. यूं भी ऐसे लोग रोज कहाँ मिलते हैं जो आप की बातें सुन नैतिकता-अनैतिकता के फैसले नहीं सुनायेंगे, या सुनाएँ भी तो आपको वे फिर कहाँ मिलने वाले हैं.

भरी हुयी लॉबी में निक, सेबास्तियन और यास्मीन की ब्रिटिश तिकड़ी थी तो अकेले दुनिया घूम रही फ्रांसीसी लेना भी. वहां चीन में अंग्रेजी पढ़ाने आया अमेरिकी साइमन था तो डेनिश केट और ओल्गा भी. इनके अलावा बस वह मंगोलियन बरयामा याद है जो एम्स्टर्डम विश्वविद्यालय में दाखिले के बाद वीजा के इन्तेजार में दो हफ्ते से इसी यूथ हॉस्टल में अटकी हुयी थी और चीन में रहकर अंग्रेजी पढ़ाने वाला ब्रिटिश पीटर याद, जिसके माँ पिता उससे मिलने आये थे.

मैंने कभी हिन्दुस्तानी बैकपैकर नहीं देखा, लेना ने उस महफ़िल में मेरा स्वागत इसी टिप्पणी से किया था. फिर इन शामों का दूसरा स्थायी सवाल ‘आप करते क्या हैं’ लॉबी में बिखर गया था. चीन में भटकते हुए मानवाधिकार कार्यकर्ता और शोधार्थी दोनों बताना खतरनाक है सो थोड़ी हिचक के साथ मैंने बोला था कि लिखता हूँ. ओह आप लेखक हैं के साथ एक साझा वाऊ उछला था. एक दूसरे का नाम पूछने की रस्म के बीच लेना फिर उछल पड़ी थी... आप ले मांद ( दुनिया भर में मशहूर फ्रांस का सबसे प्रतिष्ठित अखबार) में छपते हैं.. यकीन नहीं होता.

स्तब्ध होने की बारी अब मेरी थी. भारतीय अखबारों में छपता हूँ, दक्षिण एशिया के कुछ और देशों में भी, पर ले मांद? फिर अचानक याद आया कि जैसे हिंदी अखबारों ने अपने रीडर्स ब्लॉग शुरू किये हैं मेरी सहकर्मी जूलियट ने ले मांद के वैसे ही एक ब्लॉग में  मेरे काश्मीर पर लिखे कुछ लेखों का अनुवाद लगाया था. आपके सम्मान में एक बियर खरीद सकती हूँ, सच बताने या न बताने का फैसला कर पाने के पहले ही यास्मीन ने पूछ लिया था. यहाँ लोगों को ठीक ठाक लिख के सम्मान नहीं मिलता और हम छुटभैये बैठेबिठाए हीरो बन गए थे. कभी कभी, लेना को यह कहते हुए मुझे जवाब मिल गया था, वह जवाब जो बीजिंग में बितायी सारी शामों को बदस्तूर मिलते रहने वाला था.

फिर तो बस बातों के सिलसिले ही चल निकले थे. वैसी बातों के नहीं जो एक आम हिन्दुस्तानी मर्द पूछेगा- जैसे हमेशा साथ होने वाली निक-सेब-यास्मीन की तिकड़ी में असली जोड़ा कौन है. यहाँ सवालों का दायरा बड़ा था. चीन में प्रतिबंधित फेसबुक को किस प्रॉक्सी से खोल सकते हैं से शुरू होकर बाहर से थोड़ा यकसां दिखने वाले दक्षिण पूर्व एशिया के देशों की संस्कृति से लेकर राजनीति तक जाने वाले सवाल.

बहुत रात तक खिंच गयी शाम में भूख लग आयी थी और फिर एक समवेत झटका, आप शाकाहारी है, उफ़. और अबकी साइमन ने मदद की थी. यहाँ लगभग हर जगह मिलने वाली टमाटर की इकलौती शाकाहारी सब्जी बीजिंग में खायी हर थाली का हिस्सा होने वाली थी. खैर उस दिन तय किया गया कि वहां की मशहूर नाइट मार्किट दोंगहुमेन जाकर स्ट्रीट फ़ूड का मजा लिया जाय और कुछ घंटों पहले तक अपरिचित रहे इन नए दोस्तों के साथ अपना काफिला वांगफुइंग मेट्रो के लिए निकल पड़ा था. सांप, बिच्छू से लेकर काक्रोच तक के व्यंजनों के लिए मशहूर इस मार्केट की तरफ जाते हुए सिहरन तो हुयी थी पर फिर यही सिहरन तो बैकपैकिंग की रूह है.

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