बोयें फसल, काटें मौत.

[प्रभात खबर में 04-03-2014 को प्रकाशित.] 

विदर्भ, बुंदेलखंड, आदिलपुर, गुजरात. बरास्ते क्षेत्र जिलों से लेकर राज्य तक के अलहदा से इन नामों में साझा बस इस बात का है कि ये सबके सब बीते डेढ़ दशक में आत्महत्या कर चुके २ लाख से ज्यादा हिन्दुस्तानी किसानों का पता हैं. बेशक आत्महत्याओं में समस्यायों का हल ढूँढने की यह रवायत तेलंगाना में पॉवरलूम्स के आने के बाद बेरोजगार हो गए हैण्डलूम बुनकरों ने शुरू की थी पर फिर किसानों के मजबूर होकर इस हालत में पंहुच जाने के बाद ये सिलसिला कभी थमा ही नहीं.

बुंदेलखंड में बीते दशक में 2945, पूरे देश में सिर्फ 2012 में 13754, अपनी सारी भयावहता के बावजूद आंकड़ों में इन इलाकों का पूरा सच नहीं दिखता. वह सच जो खेती के मुश्किल होते जाने के दौर में कर्जों की शक्ल में आता है और फिर सूखे की चपेट में आई फसलों के साथ जान लेकर चला जाता है. इनमे से गुजरात और महाराष्ट्र के किसानों को तो बीटी कॉटन उगाकर रातों रात अमीर बन जाने के सपने दिखा कर सरकार ने ही मौत की तरफ धकेला था और बाद में जिम्मेदारी लेने तक से मुकर गयी. झूठ और गलतबयानी की हद यह है कि अपने खुद के आंकड़ों में संख्या के 135 होने के बावजूद गुजरात सरकार ने बीते दशक में सिर्फ एक किसान के आत्महत्या करने की बात मानी. वहीँ नेशनल क्राइम रिकार्ड्स ब्यूरो के आंकड़ों में 2003 से 2013 तक की कुल संख्या 489 ठहरती है. उदाहरण भले ही गुजरात का हो, सारे प्रदेशों में हालात ऐसे ही हैं. केंद्र सरकार से विशेष पैकेज मांगने वाले वक़्त को छोड़ कर प्रभावित परिवारों की मदद करना तो दूर, सभी सरकारें इन आत्महत्याओं को स्वीकार करने तक से परहेज करती हैं.

सवाल बनता है कि दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र होने का दावा करने वाले देश की कल्याणकारी योजनायें इन किसानों को मौत के मुंह में जाने से बचा क्यों नहीं पातीं? यह भी कि बुंदेलखंड जैसे इलाकों में दिया गया 7000 करोड़ रूपये की मदद किनकी जेबों में चली जाती है? बाकी क्षेत्रों से उल्टा बुंदेलखंड की त्रासदी तो अचानक भी नहीं आई थी. 8 बरस लम्बे सूखे से बरबाद होती फसलें ऐसी ही किसी स्थिति के उपजने की तरफ इशारा कर रही थीं. या फिर विदर्भ और गुजरात में फसलों के लिए साहूकारों की मनमानी दरों पर कर्ज लेने को मजबूर किसानों की मदद के लिए सहकारी बैंक सामने क्यों नहीं आये? तमाम मामलों में सरकारी बैंकों ने कर्ज लिए किसानों की मदद करना छोड़ कर्ज वापसी के लिए गुंडे भिजवा के उन्हें अपमानित क्यों किया? साफ़ है कि यह त्रासदी न केवल सरकारी तंत्र की असफलता से जन्मी है बल्कि जमीन से सरकार के गायब होने का प्रमाण भी है. इसीलिए बुंदेलखंड हो या आदिलाबाद, जमीन पर काम करने वाला प्रभावी तंत्र खड़ा किये बिना इन आत्महत्याओं को रोकना असंभव है.


इस तंत्र को खड़ा करने के लिए भूमि सुधार, मानसून असफल होने की दशा में सिंचाई सुनिश्चित करने वाली व्यवस्था, सस्ते दामों पर बीज और उर्वरक उपलब्ध कराने वाले सहकारी संगठन, कृषि के लिए जरुरी तकनीक और ट्रैक्टर जैसी मशीनें उपलब्ध करवाना अनिवार्य है.  साथ ही जरुरी है साहूकारों के कब्जे से छोटे और सीमान्त किसानों को मुक्त करते हुए उनकी जरूरतों को पूरी करने वाली बैंकिंग सुविधा उन तक पंहुचाना. इनकी अनुपस्थिति में आत्महत्याएं नहीं रुकेंगी, हाँ आत्महत्यायों के नाम पर आने वाले पैकेज भ्रष्ट नौकरशाही और राजनीति के गठजोड़ को और अमीर जरुर बनाते रहेंगे. 

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