[दैनिक जागरण में अपने पाक्षिक कॉलम 'परदेस से' में 26-04-2014 को प्रकाशित]
अक्सर सोचता हूँ कि राकेश
शर्मा को अंतरिक्ष से क्या भारत सच में दिखा होगा? और दिखा भी हो तो सारे जहाँ से
अच्छा लगा होगा? फर्क कैसे किया होगा उन्होंने कि ये भारत है, ये नेपाल और ये
पाकिस्तान? इस सवाल का जवाब फिर अपनी जलावतनी के बाद ही मिल पाया था. यादे वतन कमाल
चीज है. बस दो समन्दर पार बैठे हम जैसों को सपनों में वतन दिखता है तो फिर वहाँ
उतने ऊपर से तो सिर्फ और सिर्फ हिन्दुस्तान ही दिखा होगा.
यह बात बहुत दिन बाद याद आई
थी, तब जब अपना कारवाँ चीन की दीवाल के रास्ते में था. उस दीवाल के जिसने अपने
इर्द गिर्द चाँद से दिखने वाली इंसानी हाथों से बनाई इकलौती चीज होने का मिथक खड़ा
कर दिया. हाँ, आपके यकीन को ठेस पंहुचाने के लिए माफीनामे के साथ, यह दीवाल चाँद
से नहीं दिखती. बखैर, हमारा कारवाँ, बोले तो साझे की कार में मैं, पीटर, उसके माँ
पिता और कुछ और लोग थे. पीटर बरसों से चीन में था, यहाँ अंग्रेजी पढ़ाते हुए. बीते
दशक में पूरे दक्षिण पूर्व एशिया में अंग्रेजी पढ़ाना उल्टे आप्रवासन को जन्म देने
वाला वाला एक बड़ा रोजगार बन गया है. ब्रिटेन और अमेरिका से नौजवान लड़के लड़कियों की
कतारों की कतारें चीन के जिनजियांग से लेकर जापान के ओसाका तक में फ़ैल गयी हैं.
मेरी गर्लफ्रेंड चीनी है, हम दिसंबर में शादी कर रहे हैं. माँ पापा उससे मिलने ही
आये हैं, पीटर ने जरा सा शर्माते हुए जोड़ दिया था.
दिमाग फिर ठिठका था.
हांगकांग से लेकर बीजिंग तक मैं कितने तो ऐसे जोड़ों से मिला हूँ. कितना सहज होता
है उनके लिए प्यार करना और फिर शादी कर लेना. न उन्हें किसी की इजाजत चाहिए होती
है न किसी के नाराज होने की परवाह में ही दिमाग खपाना पड़ता है. अपनी जिंदगी है, आप
खुदमुख्तार हैं. अपना मुल्क फिर याद आया था जहाँ एक तरफ चन्द्रयान की तैयारी है तो
दूसरी तरफ ऐसे फैसलों पर आप की (अ)सम्मान हत्या हो सकती है. वह भी कहीं बहुत दूर
नहीं, दिल्ली से सटे हुए हरियाणा और उत्तर प्रदेश में भी.
खिड़की से बाहर के दृश्य पर
नजर पड़ते ही विचारों की रेल ठहर गयी थी. बीजिंग के काफी पीछे छूट गए होने के
बावजूद बहुत कुछ नहीं बदला था. इमारतें छोटी हो गयी थीं, सड़कें थोड़ी कम चौड़ी पर
उतनी ही सुगम, उतने ही रखरखाव के साथ. मतलब साफ़ था कि विकास बीजिंग में पैराशूट
लेकर नहीं कूदा था, इन्हीं रास्तों से चल कर आया था. और फिर अचानक अगले मोड़ पर आँखें चिपक कर रह गयी
थीं. दूर पहाड़ों पर आँखों की सीमा के अनंत तक जाती दीवाल हमारे सामने थी. या यूं
कहें कि दीवाल नहीं बल्कि दीवाल का बीजिंग से 70 किलोमीटर दूर हुईराओ काउंटी
में पड़ने वाला मोटिनयू हिस्सा जो अब अपनी ऐतिहासिकता से ज्यादा तत्कालीन अमेरिकी
राष्ट्रपति बिल क्लिंटन की आमद के लिए मशहूर है.
दीवाल पर चढ़ना शुरू करने के
साथ कितने तो भ्रम टूटे थे. जैसे यह एक नहीं, सैकड़ों दीवालों का समुच्चय है. यह भी
कि बाहरी हमले रोकने की चीनी हुक्मरानों की सनक में बनवाई गयी इन दीवालों का
इतिहास 7वीं सदी ईसापूर्व से लेकर 15वीं सदी में मिंग वंश तक जाता है. फिर तेज ढलानों से लेकर
सीधी चढ़ाई वाले पहाड़ों यह दीवाल बनाना आसान तो नहीं ही रहा होगा. हम जहाँ खड़े थे
वहीँ वाली ढाल सैकड़ों मीटर गहरी रही होगी. पर कमाल यह कि इन दीवालों ने कभी कोई
हमला रोकने में सफलता नहीं पायी. बाहरी आक्रमणकारियों ने जब चाहा इन दीवालों को
लाँघ चीन पर हमला बोला और अकसर सफल हुए. फिर इस कवायद का मतलब क्या ठहरा? शायद
हुक्मरानों की सनक, आखिर यही सनक है जो दुनिया भर में कैद नागरिकों की मेहनत के दम
पर शासकों के कुछ भी तामीर करवाने का सबब बनती है.
आपको पता है कि च्यांग काई
शेक ने 1938 में जापानियों को झेंगझाऊ पर कब्जे से रोकने के लिए पीली
नदी के बाँध तुड़वा दिए थे, पीटर ने अचानक पूछा था. हाँ, और यह भी कि उससे पैदा हुई
आकस्मिक बाढ़ की वजह से कम से कम 9 लाख लोग मारे और सवा करोड़ बेघर हो गए थे. चीन
में ज्यादातर लोग उस घटना को राष्ट्रीय गौरव के बतौर याद करते हैं कहते हुए पीटर
की आँखें दीवाल के एक पहरा बुर्ज पर टिक गयी थीं. दर्ज करने वालों की कलम के
मुताबिक एक पूरे समाज को झूठ की पट्टी पढ़ा सकने में सक्षम इतिहास के पाठ अकसर ऐसे
ही अजीब होते हैं.
हम दो तीन किलोमीटर चढ़ आये
थे और अब आगे जाने का दिल बिलकुल नहीं था. १९३८ की वह बाढ़ हमारी आँखों में उमड़ आई
थी. मेरे हाथ दीवाल के एक थोड़े उखड़े हुए पत्थर से खेल रहे थे और लीजिये, पत्थर
पूरा उखड़ कर मेरे हाथ में आ गया था. काश यह पत्थर मैं हुक्मरानों के सर पर मार
सकता.
Nice information....
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