[साप्ताहिक एलएन स्टार में 02-05-2014 को प्रकाशित]
हवाओं में खबर गर्म है कि अच्छे दिन आने वाले हैं. अदानियों और अम्बानियों के तो खैर हमेशा ही अच्छे दिन होते हैं पर आम आदमी के लिए अच्छे दिनों का क्या मतलब होगा? पुराने मुहावरे उठा के कहें तो क्या रोटी, कपड़ा और मकान जैसी बुनियादी जरुरत भर पूरा होना ही अच्छे दिन ले आएगा? या फिर इनमें विकसित देशों की तरह चौबीस घंटे बिजली, गैस, बढ़िया सड़कों, सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था जैसी कुछ और सुविधाएँ भी शामिल होंगी?
पर ठहरिये, घर को सजाने का तसव्वुर तो घर को बचाने के बाद का ही मामला ठहरा न? सो क्या अच्छे दिनों में बलात्कार और अन्य तमाम प्रकार की यौन हिंसा रुक जाएगी? अच्छे दिनों में दलितों को हरियाणा के मिर्चपुर से लेकर गुजरात के मोडासा तक में दलित स्त्री पुरुषों को जिन्दा जलाने की वारदातें बंद हो जायेंगी? क्या अल्पसंख्यक अच्छे दिनों में सुख चैन से रहने की उम्मीद कर पाएंगे? किसी बम धमाके के बाद बेगुनाह होने के बावजूद पुलिस द्वारा गिरफ्तार हो सालों जेल में सड़ के बाइज्जत बरी होने का इन्तेजार करने का अभिशाप खत्म हो जाएगा? अच्छे दिनों में मुजफ्फरनगर दोहराया तो नहीं जाएगा न? अच्छे दिनों में बतौर नागरिक कहीं भी संपत्ति खरीद पायेंगे वे? कोई तोगड़िया टीवी चैनलों के कैमरों के सामने उन्हें धमकी तो नहीं देगा न?
और कैसे होंगे आम आदमी के अच्छे दिन? प्रतिभाशाली मगर गरीब छात्र छात्राओं को पढ़ने के लिए सुविधाएं हासिल होनी ही चाहिये. गुजरात में तो दशकों से आये हुए अच्छे दिनों में नहीं पंहुचे तो बाकी देश के 42 प्रतिशत से ज्यादा कुपोषित बच्चे स्कूल तक पंहुचेंगे कैसे? अच्छे दिनों में कुपोषित माओं का प्रसव के दौरान मरना बंद होना चाहिए. सो क्या अच्छे दिनों में बांग्लादेश से भी गयी गुजरी अपने देश की हालत सुधर जायेगी? पर कैसे? उस देश में जहाँ उत्तर प्रदेश में हर साल हजारों बच्चे जापानी बुखार यर्फ इन्सेफेलाइटिस नाम की उस बीमारी से मर जाते हैं जिसका टीका तक मौजूद है? अच्छे दिनों में उम्मीद करें कि सरकारी अस्पताल ढंग से काम करना शुरू कर देंगे, मरीजों को दवाएं मिलेंगी? अच्छे दिनों में हर प्रदेश में एम्स जैसा एक सुपरस्पेशलिटी अस्पताल होगा ताकि जिन्दगी चलाने भर को पैसे न होने वाले गरीबों को अपने मरीज के साथ दिल्ली आकर फुटपाथ या सबवे में न सोना पड़े?
पर ठहरिये, घर को सजाने का तसव्वुर तो घर को बचाने के बाद का ही मामला ठहरा न? सो क्या अच्छे दिनों में बलात्कार और अन्य तमाम प्रकार की यौन हिंसा रुक जाएगी? अच्छे दिनों में दलितों को हरियाणा के मिर्चपुर से लेकर गुजरात के मोडासा तक में दलित स्त्री पुरुषों को जिन्दा जलाने की वारदातें बंद हो जायेंगी? क्या अल्पसंख्यक अच्छे दिनों में सुख चैन से रहने की उम्मीद कर पाएंगे? किसी बम धमाके के बाद बेगुनाह होने के बावजूद पुलिस द्वारा गिरफ्तार हो सालों जेल में सड़ के बाइज्जत बरी होने का इन्तेजार करने का अभिशाप खत्म हो जाएगा? अच्छे दिनों में मुजफ्फरनगर दोहराया तो नहीं जाएगा न? अच्छे दिनों में बतौर नागरिक कहीं भी संपत्ति खरीद पायेंगे वे? कोई तोगड़िया टीवी चैनलों के कैमरों के सामने उन्हें धमकी तो नहीं देगा न?
और कैसे होंगे आम आदमी के अच्छे दिन? प्रतिभाशाली मगर गरीब छात्र छात्राओं को पढ़ने के लिए सुविधाएं हासिल होनी ही चाहिये. गुजरात में तो दशकों से आये हुए अच्छे दिनों में नहीं पंहुचे तो बाकी देश के 42 प्रतिशत से ज्यादा कुपोषित बच्चे स्कूल तक पंहुचेंगे कैसे? अच्छे दिनों में कुपोषित माओं का प्रसव के दौरान मरना बंद होना चाहिए. सो क्या अच्छे दिनों में बांग्लादेश से भी गयी गुजरी अपने देश की हालत सुधर जायेगी? पर कैसे? उस देश में जहाँ उत्तर प्रदेश में हर साल हजारों बच्चे जापानी बुखार यर्फ इन्सेफेलाइटिस नाम की उस बीमारी से मर जाते हैं जिसका टीका तक मौजूद है? अच्छे दिनों में उम्मीद करें कि सरकारी अस्पताल ढंग से काम करना शुरू कर देंगे, मरीजों को दवाएं मिलेंगी? अच्छे दिनों में हर प्रदेश में एम्स जैसा एक सुपरस्पेशलिटी अस्पताल होगा ताकि जिन्दगी चलाने भर को पैसे न होने वाले गरीबों को अपने मरीज के साथ दिल्ली आकर फुटपाथ या सबवे में न सोना पड़े?
पर आयेंगे कैसे ये अच्छे दिन? सरकार अर्थव्यवस्था में भ्रष्टाचार पर रोक लगा लेगी? सरकारी जमीनें कौड़ियों के मोल उद्योगपतियों को नहीं बेची जायेंगी? मनरेगा के नाम पर आर्थिक कमी का रोना रोते अधिकारी अरबपतियों को दिए गए हजारों करोड़ के कर्जे ‘बुरा ऋण’ से लेकर ‘आर्थिक प्रगति के लिए प्रोत्साहन’ बता कर माफ़ करना बंद कर देंगे?
तो साहिबान, कोई अच्छे दिन नहीं आ रहे. ये अच्छे दिनों का जो तथाकथित गुजरात मॉडल है वह गुजरात में अच्छे दिन नहीं ला पाया तो देश भर में क्या लायेगा. और है क्या यह मॉडल? सब कुछ बाजार के हवाले कर देने वाला वही नवउदारवादी मॉडल जो कांग्रेस 1991 में इस देश में ले के आई थी. याद करिए कि फायदे वाली सरकारी कंपनियों को बेचने का विरोध करने वाली भाजपा ने 1996 में सत्ता में आकर ‘विनिवेश’ मंत्रालय ही बना दिया था. बालको, नाल्को, जुहू सेंटॉर- किसने बेचे थे सब? और इधर ए राजा और कलमाड़ी हैं तो उधर येदुरप्पाओं और गडकरियों की कौन सी कमी है?
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