उड़ने वाले ट्रक में

[दैनिक जागरण में अपने कॉलम 'परदेस से' में 'वाया गमगढ़ी' शीर्षक से 21 जून 2014 को प्रकाशित] 

हर तरफ बस पहाड़ और तेजी से ऊंचाई खो रहा हवाई जहाज, मेरे दिल की धड़कनें थम सी गयी थीं. एक बार फिर बाहर झाँक के देखा और अब भी किसी हवाई पट्टी का नामो निशान तक नहीं. माथे पर उतर आई पसीने की बूँदें महसूस होना शुरू हो गयी थीं, यह भी कि ऐसे हालात में आस्तिक तो कोई दुआ पढ़ लें, किये न किये पापों की माफ़ी मांग लें पर हम नास्तिक? और फिर अचानक महसूस हुआ था कि ठीक आगे की सीट पर बैठे दोनों पायलट्स बिलकुल सामान्य थे. चौंक के पीछे देखा तो इस सफर पर मेरे स्थानीय साथी अशोक भी मजे में थे, बिलकुल निश्चिन्त.

और अचानक एक तेज कटाव लेकर जहाज ठीक उलटी दिशा में मुड़ गया था, और हवाई पट्टी सामने थी. हवाई पट्टी, बशर्ते आप गेंद बराबर पत्थरों से भरे एक समतल से मैदान को हवाई पट्टी कह सकें. एक तेज आवाज के साथ हम रनवे पर और अब जाकर मेरी साँसें लौटी थीं. पर बस पल भर के लिए ही और फिर रनवे पर करीने से समेट कर रखे गए तीन विमानों का मलबा दिख गया था. मेरी चौंकी निगाहों का पीछा करती हुई अशोक भाई की भी नजर उनपर पड़ी और ठहाके के साथ बयान आया- अरे घबराइए नहीं समर भाई, उस वाले में कोई नहीं मरा था! बाकी दोनों के बारे में मैंने पूछा नहीं, उन्होंने बताया नहीं.

पायलट्स अब टायर जांच रहे थे और मैं स्तब्ध खड़ा इस सफ़र के बारे में सोच रहा था. दुनिया के सबसे खतरनाक हवाईअड्डों में से एक काठमांडू पर उतरना क्या कम था जो उसके बाद नेपालगंज और फिर इस ताल्चा पर उतरना बाकी था. वह भी उस सेसना कारवां 10 सीटर से जिसे स्थानीय लोग उड़ने वाला ट्रक कहते हैं. उसमे जिसमे हमारी 10 सीटों के ठीक पीछे उतनी ही बकरियां बंधी हुई थीं. उसमे जिसमे पायलट्स ने आते ही जीपीएस ऑन किया था क्योंकि यहाँ कोई राडार, कोई एयरट्रैफिक कंट्रोलर काम नहीं करता.

हम नेपाल के सबसे गरीब हिस्सों में से एक कर्णाली अंचल के मुगू जिले में जा रहे थे. मध्यपश्चिमी हिमालयन नेपाल में 35000 वर्गकिलोमीटर से भी ज्यादा क्षेत्रफल वाले उस जिले में जिसमे पंहुचने के दो ही रास्ते हैं. या फिर जुमला से चार दिन लम्बा वह ट्रेक करिए जो 2500 मीटर से लेकर 4500 मीटर तक की उंचाई तक पंहुचता है और जिसमे अप्रैल के महीने में भी तमाम जगह खड़ी बर्फीली चट्टानों से पार पाना पड़ता है. और हाँ, यह 4 दिन भी उन स्थानीय लोगों के मुताबिक़ लगने थे जो इन रास्तों के अभ्यस्त हैं, मुझ गरीब को कितने लगते कौन जाने. दूसरा रास्ता वह जो हमने चुना था, मार्च अप्रैल से सितम्बर तक अगर मौसम ठीक रहा और आपका दिल मजबूत तो ताल्चा हवाईअड्डे पर उतरिये, फिर डेढ़ दिन लम्बा ट्रेक कर मुगू जिला मुख्यालय गमगढ़ी पंहुचिये. गमगढ़ी, जहाँ पंहुचना इतना मुश्किल हो वैसे जगह का इससे बेहतर नाम हो भी क्या सकता था. मुस्कराहट ने अपने चेहरे का पता वापस ढूंढ ही लिया था आखिर.

उस मुस्कराहट ने जो नेपालगंज से एक घंटे की जीवन की सबसे खतरनाक मगर सबसे खूबसूरत उड़ान में हिमालय देखते हुए चेहरे पर आती जाती रही थी. कितनी बार तो चोटियाँ की ऊंचाई हमारे जहाज की ऊंचाई से ज्यादा थी. दो चोटियों के बीच की बहुत संकरी जगहों से निकलते हुए जहाज में कितनी बार तो दिल धक से होकर रहा गया था. और नीचे बहती कर्णाली नदी? दूधिया बर्फ वाले पहाड़ों के नीचे खूब हरे भरे जंगल और उन्हें सफ़ेद लकीर सी काटती कर्णाली.

वह कर्णाली जिसके बारे में बाद में पता चला कि वह अपने घर आकर घाघरा हो जाती है. देखिये न, मुस्कराहट ही नहीं, घर भी आपको ढूंढ ही लेता है फिर चाहे आप जमीन के 8000 मीटर ऊपर ही क्यों न हों. जहाँ तक नजर जा रही थी वहां तक जा रही कर्णाली के बारे में दावे से कह सकता हूँ कि जीवन में इससे सुन्दर दृश्य नहीं देखा था. पर फिर, कहाँ पता था कि बस एक दिन बाद इससे भी सुन्दर दृश्य देखना होगा, तब जब नेपाल की सबसे बड़ी और दुनिया कि दूसरी सबसे ऊँची झील रारा तालाब के बगल सुबह होगी. उस झील के जिसे देखने लोग हजारों डॉलर खर्च कर के आते हैं. 2990 मीटर की उंचाई पर 10 वर्ग किलोमीटर में बिखरी उस झील को जिसके बगल गुजरने वाली उस रात तापमान शून्य से बहुत नीचे था. पर यह सब अगले दिन की बातें थीं. उस वक़्त दिमाग में बस यह चल रहा था कि वहां पंहुचेंगे कैसे. सवाल 8 घंटे लम्बे ट्रेक का नहीं, उसमें आने वाले एक किलोमीटर से ज्यादा उतार चढ़ाव का था. फिर अभी अभी एक भाई बता गया था कि रास्ते में एक जगह पहाड़ धसक गया है. अशोक भाई ने अपना रकसैक टांग लिया था. ऐसे जैसे उस टूटे पहाड़ को धमका रहे हों. हम आ रहे हैं रारा.

Comments

  1. उड़ने वाला जहाज ! अच्छा है।

    ReplyDelete
    Replies
    1. शुक्रिया अनूप भैया।

      Delete
  2. बेहतरीन यात्रा वृतांत। देर ही सही लगता है सही जगह पहुंचा हूं ट्रैवलॉग पढ़ने के लोभ में

    ReplyDelete

Post a Comment