मानसून सिर्फ शब्द नहीं वरन भारत की अर्थव्यवस्था
का निर्धारण करने वाले तत्व हैं. इस कदर कि 1925 में ही रॉयल कमीशन ओन एग्रीकल्चर ने
भारतीय अर्थव्यवस्था को मानसून के जुए पर टिकी अर्थव्यवस्था कहा था. उसके कुछ तीन दशक
बाद द इकोनोमिक वीकली ने यही बात दुहराई थी, यह कहते हुए कि भारत जैसे देश में मौसम
विभाग के पास मानसून के समुचित प्रेक्षण के औजारों का न होना स्तब्धकारी है. अगर मानसून
पर ऐसी निर्भरता किसी यूरोपियन अर्थव्यवस्था की होती तो ऐसे औजारों को कबका इजाद कर
लिया गया होता। पर फिर भारत में आज भी मानसून अपनी मर्जी का मालिक है और भारत की
58 प्रतिशत असिंचित भूमि पर खेती करने वालों के भाग्य का निर्धारक भी है.
जी हाँ, आजादी के इतने साल बाद भी भारत की लगभग 58 प्रतिशत
खेतिहर भूमि किसी भी किस्म के सिंचाई के माध्यम की पंहुच के बाहर है. हजारों बड़े
और छोटे बांधों, नहरों, ट्यूबवेल्स सबकी जद के बाहर। इन जमीनों पर खेती करने वालों
के पास मानसून के सिवा कोई सहारा नहीं होता। इंडियन स्पेस रिसर्च आर्गेनाईजेशन के मुताबिक़
भारत की कुल जमीन का 68 प्रतिशत हिस्सा सूखे की मार में आ सकता है और इसका एक तिहाई
स्थाई रूप से सूखाग्रस्त रहता है. ऐसे सूखे जो फसलें तबाह करते हैं, खेती को नुकसान
पंहुचाते हैं और किसानों को कर्ज के दुष्चक्र में फंसा देते हैं.
और यह सब तब जब सरकारी आंकड़ों के मुताबिक़ भारतीय सकल घरेलू उत्पाद
में कृषि का हिस्सा 1990 के दशक के 30 पप्रतिशत से सिकुड़ कर 2008 में ही 17.5 प्रतिशत
पर आ पंहुचा था. पर फिर आंकड़ों के बाहर की हकीकत यह है कि भारत की 70 प्रतिशत आबादी
मानसून के अच्छे होने या न होने पर टिकी होती है. इन सबके बीच हतप्रभ करने वाला
तथ्य यह कि चंद्रयान भेज चुके और मंगल ग्रह पर यान भेजने की तैयारी कर रहे भारत में
मानसून के प्रेक्षण की ठीकठाक व्यवस्था तक नहीं है. मौसम विभाग के पास न तो पर्याप्त
प्रेक्षालय हैं, न ही पर्याप्त जहाज, गुब्बारे उपग्रह वगैरह। हद यह कि मौसम विभाग के
पास पर्याप्त वैज्ञानिक तक नहीं है.
गोकि मानसून को मापना इन सबकी उपलब्धता में भी बहुत मुश्किल
है. इसलिए क्योंकि सहज वैज्ञानिक बोध यह कहेगा कि गर्म होते देश में में बढ़ती आर्द्रता
के कारण नमी ज्यादा होगी और इसीलिए बारिश की संभावना भी. पर हकीकत इसके उल्टा घटित
हो रहे होने के बारे में इशारा करती है, पिछले दशक में 4 सालों के लगभग सूखे
की स्तिथि में पंहुच जाने की तरफ. वैज्ञानिक प्रेक्षण भी इसी तरफ इशारा करते हैं. इंडियन
इंस्टिट्यूट ऑफ़ ट्रॉपिकल मेटरोलॉजी के शीर्ष मौसम वैज्ञानिक आर कृष्णन का
अध्ययन न केवल पश्चिमी घाट में लगातार कम हो रही बारिश के बारे में बताता है बल्कि
यह भी कहता है कि यह कमी आगे आने वाले वर्षों में तेजी से बढ़ भी सकती है. उनका अध्ययन
बताता है कि किस तरह बंगाल की खाड़ी में वर्षा लाने वाले निचले दबाव का बनना कम हुआ
है और इस वजह से मानसून के प्रति चिंतित होना लाजमी है. मानसून के कमजोर होने के पीछे
के कारण बहुत तो नहीं पर थोड़ा स्पष्ट हैं. इनमे प्रमुख है कोयले के धुंए से लाकर अन्य
तमाम कणों का वातावरण में मौजूद होना जो वर्षा कम करते हैं. प्रसिद्ध मौसम वैज्ञानिक टिमोथी
लेंटन ऐसे प्रदूषण को मानसून को अस्थिर करने वाला बड़ा करक मानते हैं.
परन्तु फिर भी, असली मसला मानसून से होने वाली बारिश में कमी
का है ही नहीं। मसला है इस कमी से आने वाली दूसरी दिक्कतों का जिनसे आसानी से निपटा
जा सकता है बशर्ते सरकार और समाज के पास जरुरी राजनैतिक इच्छाशक्ति हो. मानसून
पहले भी अस्थिर होता रहा था और बुंदेलखंड या विदर्भ जैसे इलाके सूखे की जद में आते
रहते थे. पर तब सामाजिकता के संस्कारों की वजह से दिक्कत इतनी बड़ी नहीं होती थी
जितनी अब है. याद करिए कि मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ किस तरह से तालाबों का प्रदेश ही
माने जाते थे. तब का समाज तालाबों से लेकर जल संग्रह के अन्य उपायों पर मजबूती से काम
करता था जबकि अब का समाज उन्ही तालाबों पर कब्ज़ा कर उन्हें पाट देने के लिए जाना जाता
है.
जरुरत है कि ऐसे तमाम कब्जों को ख़त्म कर फिर से जल संग्रह
पर बल दिया जाय, अब तक असिंचित 58 प्रतिशत से ज्यादा भूमि को सिंचाई के दायरे में लाया
जाय. यह सुनने में जितना भी मुश्किल लग रहा हो हकीकत में है नहीं। दिक्कत बस यह है
कि नवउदारवादी विकास के मॉडल में यह करना मुश्किल होगा क्योंकि वह जंगलों को काटने
से लेकर हर उस कार्य में लगा हुआ है जिससे मानसून को और भी दिक्कत होती है. विकास के
ऐसे अंधे प्रतिदर्श को ठीक करना, जल केन्द्रित और नगदी फसलों से सूखा प्रतिरोधी फसलों
की खेती की तरफ बढ़ना, जितने जंगल बचे हुए हैं उन्हें बचाना, पुराने तालाबों को कब्जा
मुक्त करना और नए तालाब बनाना, मानसून की अस्थिरता से निपटने के यही रास्ते हैं.
खेती भारतीय समाज में सबसे ज्यादा उपेक्षित व्यवसाय है.
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