पराजय का सम्मोहन

[जनसत्ता के दुनिया मेरे आगे स्तम्भ में 15-07-2014 को प्रकशित.]


मैदान में लगभग उन्मादमय उल्लास में डूबे जर्मन खिलाड़ियों को छोड़ मेरी आँखें मेसी पर टिकी हुई थीं. उस मेसी पर जो अपन देशवासियों ही नहीं बल्कि दुनिया भर के करोड़ों लोगों की अपेक्षाओं का भार अकेले अपने कंधे पर लिए अर्जेंटीना की टीम को फीफा विश्वकप फाइनल तक खींच लाया था. यूं भी सेमीफाइनल में इसी जर्मनी से ब्राजील के मैच की स्मृतियाँ जेहन में अभी ताजा थीं. वह स्मृतियाँ जिनमें स्तब्ध दर्शक हैं, बरसती आँखें हैं, मिनटों में हो गए चार गोलों के बाद स्टेडियम भर में पसर गया सन्नाटा है. उन स्मृतियों में जिनमे हार के बाद तीन फफकते ब्राजीली खिलाड़ी हैं और उनको सांत्वना देता हुआ एक जर्मन हाथ है.

उन स्मृतियों में जिनमे हजारों भीगी आँखें ने फिर बताया कि देश की जर्सी अब भी आम लोगों के लिए कितनी बड़ी होती है. यह भी कि सिर्फ चार शताब्दी पहले तक गैरमौजूद यह राष्ट्रराज्य भले ही सच में सिर्फ कल्पित समुदाय हों, भले ही मजदूरों का कोई स्वदेश न होना तल्ख़ सच हो, फिलहाल दिल और दिमाग दोनों पर उन्हीं का कब्ज़ा है. पर बात उस दिन की थी जिसमे उस जर्मन की आँखें दुनिया की सबसे ईमानदार आँखें सी लगीं थी. ऐसे जैसे उस एक क्षण में उसे अपने जीत जाने का अफ़सोस हुआ हो, जैसे उसे सच में लगा हो कि काश यही लोग जीत जाते.

पर वह एक जीते हुए खिलाड़ी का औदात्य था और मुझे पराजय हमेशा से ही जीत से ज्यादा चमत्कृत करती रही है. सिर्फ इसलिए नहीं कि जीत का हासिल समारोही रातें होतीं हैं और हार की उदास सुबहें. इसलिए भी नहीं की हार व्यक्ति, टीम या देश को और प्रतिबद्ध बना सकती है, और ताकत से जीत हासिल करने की कोशिशों में मुब्तिला कर सकती है. हार का सम्मोहन बस उसके होने के क्षण में होता है. शायद इसलिए कि हार का क्षण शायद जीवन का सबसे ईमानदार क्षण होता है. वह क्षण जब व्यक्ति अपनी सारी ताकत गंवा बिलकुल अकेला, कमजोर और सुभेद्य होता है. बाहर वाला कोई नहीं जान सकता कि पराजित योद्धा के मन में ठीक उस वक़्त क्या चल रहा होगा. 

पर आत्मसाक्षात्कार का वही पल महानता और सामान्यता का फर्क भी साफ़ कर देता है. मैं मेसी की आँखों में तिरते भाव पढ़ने की कोशिश कर रहा था और दिमाग में कुछ और हारें चल रही थीं. कामरेड चेगुआरा की हार याद आई थी जब दो देशों में असफल और एक में सफल क्रांति का नेतृत्व करने के बाद चौथे बोलीविया में उन्हें सीआईए के साथ स्थानीय फ़ौज ने घेर लिया था. क्या होता अगर चे ने ‘गोली दागो कायर, तुम सिर्फ एक व्यक्ति को मार सकते हो’ कहने की जगह समर्पण या समझौते की बात की होती? फिर चे दुनिया भर में प्रतिरोध का प्रतीक ही नहीं, मिथक भी बन पाते?

हार से मुझे 1993 में वेनेजुएला में अपनी पहली क्रांति की कोशिश के असफल हो तख्तापलट में बदल जाने के बाद के ह्यूगो चावेज याद आते है. वह चावेज जिन्होंने अपने साथियों की जान बचाने के लिए उन्हें हथियार रखने का सन्देश देने के पहले अपनी वर्दी पहनी थी. वह जिन्होंने तब भी अपने मोर्चों पर लड़ रहे बहादुर बोलिवारियन सैनिकों को कहा था कि ‘कामरेड्स: दुर्भाग्य से हमअभी के लिएअपने उद्धेश्यों को पूरा कर पाने में असफल रहे हैं... दुश्मनों की कैद में उस सुबह चावेज़ के पास कुल 72 सेकण्ड थे. और उन बहत्तर सेकण्ड में उन्होंने हार की पूरी जिम्मेदारी लेते हुए भी साफ़ कर दिया था कि क्रांति रुक नहीं रही, सिर्फ स्थगित की जा रही है, वह भी बस ‘अभी के लिए’. चेगुआरा वाला सवाल दोहराने की शायद जरुरत भी नहीं है.

इसके ठीक उलट सद्दाम हुसैन और मुअम्मर गद्दाफी की हार के क्षण याद करिए. जीवन भर विरोधियों का निरंकुश दमन करने के बाद एक ने शांति से समर्पण कर दिया था जबकि दूसरे ने तो अपनी जान की भीख भी मांगी थी. कहने की जरूरत नहीं कि राजनैतिक विचार के परे सिर्फ उस क्षण के आधार पर हम उन्हें कैसे याद करते हैं. इसका मतलब यह बिलकुल नहीं है कि हार अंतिम होती है. समर्पण करने वाले सद्दाम से फांसी के वक़्त वाला खुद को निडरता से ईराक़ का राष्ट्रपति बताने वाला सद्दाम हुसैन बेशक बिलकुल अलग नजर आये पर फिर इस विमोचन तक आने का रास्ता पहले कभी झुक गए होने की ही तरफ इशारा करता है.

मेसी पे लौटें तो, भले ही देश की जर्सी और देश की वर्दी एक ही जैसा उन्माद खड़ा करते हों, मैं फुटबाल को युद्धों के बरक्स नहीं खड़ा कर रहा. बस यह कह रहा हूँ कि हारे हुए मेसी की आँखों में तिरते भाव पढ़ने की मेरी असफल कोशिश में ही मेसी की जीत है. और सिर्फ एक बार बाल संवारने की मुद्रा में उठे हाथों के अलावा दुखी पर धैर्यवान खड़े रहने में यह की जीतना अच्छा है पर गरिमामयी हार में भी अपनी एक अमरता है. आखिर ऊँचे खड़े खंडहर किसी दौर के गौरव की कथा कहते ही हैं. हम याद रखेंगे मेसी को, यही इस हार की जीत है. 

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