माओवादी पहाड़ों में

[दैनिक जागरण में अपने पाक्षिक कॉलम 'परदेस से' में 12-07-14 को प्रकाशित]

ताल्चा एअरपोर्ट से सीधे उठते रास्ते को देख नजरें एक बार फिर थर्राई थीं. ट्रेकिंग और हाइकिंग दोनों बहुत की पर यह तो सचमुच का पर्वतारोहण ठहरा, अबकी बार अशोक भाई और युवराज कोइराला, दोनों स्थानीय साथियों ने पीठ थपथपा दी थी. रारा के रास्ते का पहला घंटा तो बस यूं ही निकल गया, यह सोचते हुए कि इन पहाड़ों और मुझमे ज्यादा स्तब्ध कौन है. थोड़ा और आगे बढ़ने के बाद दूर तक पसरा घास का मैदान दिखा. और उसमे दिखे बकरियां चरा रहे दो बच्चे, यह इतनी देर में पहली मानवीय उपस्थिति से मुठभेड़ थी. उनमें बड़ी बिंदु से पूछा गाँव कहाँ है क्योंकि यहाँ तो कुछ नजर नहीं आ रहा. उसकी उँगलियों के इशारों तक जा रही निगाहें फिर थर्राई थीं, इतनी दूर से आते हो? हाँ. क्यों? क्योंकि घास यहीं है. रोज आते हो? हाँ. पढ़ते हो? नहीं? क्यों? क्योंकि स्कूल नहीं है. इसके बाद तो फिर कहता ही क्या.

खैर, रास्ता लम्बा था और अनुभव कम तो फिर आगे बढ़ चले. दूर तक कहीं न जा रहे रास्ते पर तीन लोग, कुछ हो जाय तो मदद भी न मिले का खयाल बड़ी मुश्किल से झटका था. पर ये अचानक से एक घुड़सवार बगल से कहाँ से निकल गया था? चौंकी आँखों ने पीछा किया तो दिखा कि घुड़सवार ही नहीं बल्कि उस कहीं नहीं सी जगह में एक पूरी आबादी ही उग आयी थी. यह नेपाल सेना का एक कैम्प था. ताल्चा एअरपोर्ट को माओवादियों की जद स दूर रखने के लिए बनाया गया वह कैम्प जिसने गृहयुद्ध के समय कई हमले झेले थे. खैर, अभी तो गृहयुद्ध ख़त्म हुए अरसा हुआ तो अपनी तरफ सिपाहियों की चौकन्नी नज़रों के सिवा कोई सवाल तक न उछला था. हाँ, अपने मन में जरुर आया था कि इस अनजान सी जगह से लेकर सियाचिन जैसी दुरूह जगहों पर जहाँ और कुछ नहीं उगता ये फौजी कैम्प कैसे उग आते हैं? उन जगहों पर जहाँ सांस लेना मुहाल हो वहाँ जाने को ये सिपाही क्यों तैयार हो जाते हैं? किससे लड़ते हैं ये? क्यों और किसके लिए लड़ते हैं? और इनके हथियारों के बावजूद जो इनसे लड़ते हैं उन्हें अपनी जान का डर क्यों नहीं सताता? खैर, हर सवाल को जवाब की दुआ नहीं मिलती सो ये सवाल भी दिमाग से वक्ती तौर पर झटक दिए थे.

नीरवता को तोड़ते भयानक शोर ने चौंकाया तो दिखा अब दूर दिख रही ताल्चा हवाई पट्टी से जहाज वापसी की उड़ान भर रहा था. एक बार फिर वही दहशत, लगा कि सामने वाले पहाड़ से टकराने ही वाला है कि 90 डिग्री पे मुड़ हवाओं में गायब हो गया. खैर, अगला साक्षात्कार बर्फ से होने वाला था. चमकते दिन में जमीन पर बिछी बर्फ से. युवराज भाई ने बताया था कि करीब 3500 मीटर की उंचाई पर इन गर्मियों में भी यहाँ बर्फ नहीं गलती. थोड़ी दूर पर ही कुछ औरतें पौधों में कुछ खोजती सी दिखीं. दोनों दोस्तों के सहारे बात की तो पता चला कि कुछ औषधियां मिलती हैं यहाँ जिनको दिन भर ढूँढने पर लोगों को 100 नेपाली रुपये मिलते हैं, बाजार में उन्हीं की कीमत हजारों में हो जाती है.

बाजार भी अजब चीज है न, जहाँ नहीं पंहुच पाता वहां अपने गुमाश्ते भेज देता है. बड़ी देर तक बात हुई उनसे, सहज, निश्छल, सादा सी हंसी वाली उन औरतों की आँखों की चमक में कुछ तो था जो कहीं नहीं मिलता. शायद वंचित होने का अहसास ही न होना, वंचना की समझ भी वंचना बढ़ा देती है. पर फिर वहां से आगे निकलने के बाद मिली जानकारी ने चौंकाया था. उनमें से एक जो सबसे चुप थीं वो नेपाली नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी- प्रचंड) की सक्रिय सदस्य थीं. वह मजदूरी बढाने के लिए लगातार संघर्ष कर रही थीं और पुरानी 50 रुपये की मजदूरी को दुगना करवाने के लिए जिम्मेदार थीं.

सेना के कैम्प के इतने पास उन्हें डर नहीं लगता? नहीं, अभी तो पूरी शान्ति है, माओवादी लड़ाकों में से ज्यादातर को सेना में एकीकृत कर लिया गया है. बस किरण वैद्य के नेतृत्व वाला माओवादी एकीकृत समूह ही थोड़ा उग्र है पर झडपें तो उनसे भी नहीं होतीं. पाँव जवाब दे रहे थे और सफ़र था कि ख़त्म ही नहीं हो रहा था. अगले मोड़ पर दूसरे किसी ट्रेक से आ रहा खच्चरों का एक पूरा काफिला मिल गया. पता चला कि वर्ल्ड फ़ूड प्रोजेक्ट का चावल ढो रहे ये खच्चर ही इस इलाके की जीवनरेखा हैं, इनकी पीठ पर लदे हुए बोरे ही यहाँ की जितनी भी मिटे भूख मिटाते हैं.

अगला मोड़ जिसका हमें था इन्तेजार जैसा था. एक गाँव, जहाँ रेस्टोरेंट कह सकें ऐसा कुछ था और आधे दिन की कमर तोड़ चढ़ाई के बाद कुछ खाना मिलना था. 

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