माओवादी की माँ

[दैनिक जागरण में अपने पाक्षिक कॉलम 'परदेस से' में 9 अगस्त 2014 को प्रकाशित]

लड़ी सुनार की आँखें पनिया आयीं थीं. और फिर अचानक उनके सब्र का बाँध टूट गया था और वे फफक के रो पड़ी थीं. मैं स्तब्ध खड़ा था, चुपचाप. कहाँ समझ आया कभी कि ऐसे हालात में क्या करना चाहिए. दुनिया की किसी भाषा में वे शब्द हैं ही कहाँ जो अपनी मार दी गयी बेटी के लिए बिलखती माँ को सांत्वना दे सकें. हेरोल्ड पिंटर को याद करें तो सच में भाषा की संरचना सत्य की संरचना से बहुत दूर चली गयी है. इतनी दूर कि अब सभ्य हो गयी भाषा के पास दुनिया के मजलूमों के ऊपर रोज ढाये जा रहे वहशियाना अत्याचारों को ठीक ठीक बयान करने वाले शब्द ही नहीं बचे हैं. मुझे यहाँ नेपाल से हजारों मील दूर बैठे अपने पूर्व निर्देशक बासिल फर्नान्डो याद आ गए थे. अत्याचार बर्बर हो गए हैं, भाषा को भी बर्बर होना पड़ेगा कहते हुए बासिल. मैंने फफकती लड़ी सुनार को धीरे से गले लगा के उन्हें रोने दिया था.

हम दूमा माने जिला मुख्यालय गमगढ़ी से दो घंटे की चढ़ाई (हकीकत में उतरने) पर बसी एक दलित बस्ती में थे. और ठीक हिंदुस्तान की तरह जातिगत भेदभाव और उत्पीड़न के आधार वाले यहाँ के मनुवादी समाज में इस बस्ती के दलित होने के अर्थ इसके घरों से लेकर बाशिंदों के शरीरों तक पर लिखे हुए थे. बगल की क्षेत्री (राजपूत) बसावट कार्कीबारा के मजबूत मकानों में तुलनात्मक रूप से अच्छे कपड़ों में घूम रहे बच्चों के बरक्स इस गाँव की गरीबी समझने के लिए किसी आर्थिक सर्वेक्षण की जरूरत नहीं थी.

नेपाली फौजियों ने मेरी बेटी को माओवादी घोषित करके मार डाला. यहीं मेरे ही घर में, लड़ी सुनार ने हमारे बीच पसर गयी उदास सी खामोशी को तोड़ते हुए बोला था. सच कहूँ तो मुझे ही नहीं, किसी को भी उनके रो पड़ने की उम्मीद नहीं थी. इस गाँव की सादा सी लड़ाइयों से शुरू हुआ उनका सफ़र नेपाल के सबसे बड़े दलित-नारीवादी समूह फेमिनिस्ट दलित आर्गेनाईजेशन (फेडो) की जिला संयोजक बनने तक आखिर ऐसे ही नहीं पंहुचा था. वह अपने ही नहीं, इस पूरे इलाके की दलित और महिला आबादी की आवाज हैं. मैं भी उन तक उनकी धारा यानी गाँव तक पानी की पाइपलाइन डालने के संघर्ष के सिलसिले में पंहुचा था. मूल, यानी नेपाली में पानी के पहाड़ी स्रोत, से उनके गाँव तक कोई धारा नहीं आती. दूमा के लोगों को पानी के लिए घंटे भर चल कार्कीबारा जाना पड़ता है और फिर वहाँ वे भेदभाव झेलने को अभिशप्त हैं ही. इसके ठीक पहले ही उन्होंने नेपाल फ़ूड कारपोरेशन द्वारा ग्रामीणों के लिए आने वाले राशन की कालाबाजारी के खिलाफ सफल लड़ाई का नेतृत्व किया था.

‘यहाँ की गरीबी से बचने का बस एक रास्ता है, भाग जाना और वह भी इतना आसान नहीं है’. इस बार भी खामोशी उन्होंने ही तोड़ी थी. ‘हर साल पलायन के चलते गाँव खाली हो जाता है और हमारे बच्चे इंडिया के पहाड़ी राज्यों में कुली और ऐसे ही और काम करने चले जाते हैं.’ मेरे पूछने के पहले ही सवाल समझ के उन्होंने अगला जवाब भी दे दिया था. ‘यहाँ कौन सा काम? या गमगढ़ी में घर बनाओ या बाहुन (ब्राह्मण) और क्षेत्री लोगों के खेत में काम करो. वहाँ भी मर्दों को 300 रूपये दिहाड़ी मिलती है और औरतों को बस 200. बाकी कभी कभी हम लोग ताल्चा एअरपोर्ट से सामान ढोने का काम भी करते हैं पर उसमे बहुत खतरा है. कितनी बार तो औरतों के गर्भाशय फट गए हैं.’ एक बार फिर से माहौल बोझिल हो चला था. हर इलाके की एक ही कहानी है. वही उत्पीड़न शक्ल बदल के हर जगह मिलता है.

आप लोग दिन भर करते क्या हैं, मैंने फिर से पूछा था. ‘पहाड़ों में फुर्सत नहीं होती’, इस बार जवाब किसी और से आया था. ‘अगस्त सितम्बर बारिश की वजह से काम बंद, दिसम्बर जनवरी बर्फ़बारी से. जो बचा उसमे हाँफते हुए काम करना पड़ता है. बरबाद हो गए महीनों की कसर पूरी करनी पड़ती है.’ मेरे सरकारी कर्मचारियों के आने के बारे में सवाल का जवाब समवेत ठहाके से आया था. ‘आते थे, फ़ौज वाले. लड़ी की बेटी को मार गए न, और कोई नहीं आता.


मैंने नजर चुरा के फिर से लड़ी को देखा था. इस बार उन आँखों में आंसू नहीं एक धधकता हुआ निश्चय था. ‘मैं अपनी बेटी को न्याय दिलाउंगी’, पर यह उन्होंने मुझसे ज्यादा खुद से कहा था. इस विश्वास के बने रहने की जरूरत उन्हें खुद के लिए थी. आखिर पुलिस से लेकर नेपाली मानवाधिकार आयोग तक शिकायतें दर्ज करने और तमाम बार काठमांडू जाने के बावजूद अब तक उन्हें कहाँ न्याय मिला है. उन्हें पता भी है कि नेपाल के बदल गए राजनैतिक माहौल में उनके पास उम्मीद की ज्यादा वजहें नहीं हैं. आखिर माओवादियों के सरकार में आ जाने के बावजूद उन्होंने कुछ भी तो नहीं किया. आप जिस सेना में अपने हथियारबंद लड़ाकों के एकीकरण की कोशिश कर रहे हों उसी सेना से लड़ी की बेटी धनदेवी सुनार की फर्जी मुठभेड़ में हत्या के बारे में असहज करने वाले सवाल नहीं पूछ सकते हैं न.

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