ख़राब सरकार, अच्छे लोग.

[दैनिक जागरण में अपने कॉलम 'परदेस से' बदलाव का यकीन शीर्षक से 23-08-2014 को प्रकाशित]


जहाँ तक नजर जाय वहाँ तक घोड़े और खच्चर, मैंने जिंदगी में ऐसा दृश्य कभी नहीं देखा था. सबसे कमाल यह कि उनमें से तमाम हेलीपैड ‘चर’ रहे थे. सवाल पूछूं इसके पहले ही नए बन गए दोस्त और फारेस्ट रेंजर जीवन क्षेत्री ने बताया था कि पूरे जिला मुख्यालय में यही एक समतल जगह है. सो आसपास के सारे लोग अपने अपने जानवर यहीं ले आते हैं. ‘और ये हेलीपैड’? मैंने पूछा था? ‘गृहयुद्ध के दिनों में घायल सैनिकों को ले जाने के लिए बना था, अभी सड़क का उद्घाटन करने जो आएगा उसके काम आएगा’ जवाब आया था.

जीवन से मुलाक़ात भी अजीब इत्तेफाक से हुई थी. किसी से हमारी कार्यशाला के बारे में सुनके वे हमसे मिलने चले आये थे. मिलते ही कही गयी उनकी पहली बात बहुत दिलचस्प थी. ऐसी दूरदराज जगहों में तैनात हो गए शहरी/मध्यवर्गीय युवाओं की साझा त्रासदी वाली बात. “यहाँ बात करने को लोग ही नहीं मिलते सो सोचा कुछ शामें कटने का जुगाड़ हो गया.” ‘लोग तो बहुत हैं, मैं सुबह ही लड़ी सुनार से मिल के आया हूँ’ मैं कहते कहते रुक गया था.

खैर, उनके वरिष्ठ जिला वन अधिकारी, एक और सहयोगी रेंजर, अनुचर और हम तीनों की वह शाम बहुत खूबसूरत कटी भी थी. उस शाम में कस्तूरी हिरणों की कहानियाँ थीं, कम ही सही पर कस्बे में पंहुच जाने वाले चीते थे, और उत्तराखंड से इतनी दूर तक शिकार करने पंहुच जाने वाले वन तस्कर थे. और उनकी वजह से सभी भारतीयों के लिए पैदा हो आई खामोश मगर साफ़ नफरत थी. वही नफरत जो अगले तीन दिन तक वर्कशॉप में लगातार दिखनी थी.

“यहाँ हर आदमी किसी न किसी पार्टी का सदस्य है’, कार्यशाला के युवा साथी मुस्कान ने कहा था. मेरे ‘आप भी’ पूछने पर जवाब फिर से एक ‘समवेत ठहाके’ में आया था. “लोगों की छोड़िये, यहाँ तो सारे एनजीओ भी किसी न किसी पार्टी से जुड़े हुए हैं, उधर देखिये, झंडे देख रहे हैं?’ एक और प्रतिभागी ने पूछा था. नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी (एकीकृत माले), नेपाली कांग्रेस, नेपाली माओवादी पार्टी, नेपाली माओवादी पार्टी (एकीकृत-किरण वैद्य) के झंडे तो साफ नजर में आ गए थे. दिल को कहीं सुकून भी हुआ था कि यहाँ राजशाही समर्थक इकलौते दल राष्ट्रीय प्रजातंत्र पार्टी का कोई झन्डा नहीं दिखा था. और फिर अचानक चेहरे पर लम्बी से मुस्कुराहट फ़ैल गयी थी. इन तमाम झंडों के बीच आल नेपाल फेडरेशन ऑफ़ एनजीओज भी जलवाअफरोज था.

“सारे झंडे गिन के मानेंगे क्या” कहती हुई एक महिला प्रतिभागी खिलखिला के हंस पड़ी थी. ‘नहीं नहीं, आप किस पार्टी की हैं वैसे’, मैंने पूछा था. माओवादी, बैद्य, बिना हिचक जवाब आया था. क्यों? “क्योंकि उसके पहले कोई भी हम दलितों को इंसान नहीं समझता था. इंसान क्या, वे हमारे साथ जानवरों से भी गया गुजरा व्यवहार करते थे”. मेरे ‘और अब’ पूछने पर तमाम आँखें खिल उठी थीं. ‘अब वे डरते हैं और हम बोलते हैं’, यह फिर से मुस्कान था.

भोजन के अधिकार को हासिल करने के लिए राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तरों पर लड़ने के लिए आयोजित कार्यशाला बार बार नेपाली राजनीति पर घूम जाती थी. लाजिमी भी था क्योंकि अपने लक्ष्यों को हासिल कर पाने में असफल रही पहली संविधान सभा के बाद दूसरी के गठन के लिए चुनावों की घोषणा होने ही वाली थी. दीवारें नवसंशोधनवाद, भारत के विस्तारवाद, साम्राज्यवाद और न जाने किस किस के खिलाफ नारों से पटी हुई थीं. आप यह सब समझती हैं, मैंने शाम को कार्यशाला के बाद यूं ही टहलते हुए एक बहुत युवा महिला प्रतिभागी से पूछ लिया था. ‘बिलकुल समझती हूँ, क्यों नहीं समझूँगी. आपका राजदूत हमारी सरकार पर कितना दबाव डालता रहता है, यह ठीक नहीं है.’ अरे, मुझसे तो नाराज नहीं हैं न, माहौल को हल्का करने के लिए मैंने यूं ही कह दिया था. और फिर तो पूछिए मत जो खनकती हंसी हवाओं में बिखरी थी- ‘इंडियन गवर्नमेंट बहुत खराब है, इंडियन लोग बहुत अच्छे.’

एक बात तो साफ़ थी, मार्क्सवाद यहाँ अब भी एक जिन्दा उम्मीद है. बराबरी के सपने देखने और उन्हें पूरा करने वाली जिद की उम्मीद. यह भी कि लड़ाई अब राजशाही समर्थकों से बहुत दूर निकल आयी थी और अब लोकतंत्र समर्थक आपस में जितना भी लड़ लें कोई भी पीछे लौटने को तैयार नहीं था.

फिर अचानक अपनी पीठ पर अपने कद से बड़ा पत्थर लादती एक बुजुर्ग सी महिला पर नजर अटक गयी थी. बुजुर्ग सी इसलिए कि जिन्दा रहने को हर दिन जंग लड़ने पर मजबूर करने वाले इन इलाकों में उम्र बहुत बार धोखा देती है. पर ये धोखा उससे बहुत बड़ा था, आजादी के सपनों के बीच पीठ पर लदे हुए पत्थरों का सच. ‘इस गरीबी से कैसे निपटेंगे माओवादी, या जो भी जीतें? कोई रास्ता सोचा है उन्होंने?’, मेरे सवाल पर इस बार चुप्पी उधर थी. ‘निपट ही लेंगे, यकीन है’ युवा प्रतिभागी ने कहा था. मुझे अच्छा लगा था.  


Comments

  1. नेपाल को आपके बहाने देखना सुखद है

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