अपनी हिंदी को कोई पखवाड़ा नहीं चाहिए, न श्राद्ध का न स्मृति का.

हिंदी तीन तरह की होती है, अरसे पहले भारतीय मूल की अमेरिकी दोस्त स्नेहा ने कहा था. पहली 'नीचे' वाली- आटो भैया, सीपी चलोगे? कितना हुआ? नहीं नहीं ज्यादा है. 

दूसरी बीच वाली- जिसमे दोस्त लोग बातचीत करते हैं, फिल्म देखते हैं, जिंदगी जीते हैं. अरे यार, शानदार थी मूवी, क्या एक्टिंग थी और क्या क्लाइमेक्स वाली। 
तीसरी हिंदी विभागों वाली- वो जो लगती है कोई और ही भाषा है. स्नेहा ने फिर कहा था. 

इसमें बस यह जोड़ देने की जरूरत है कि हिंदी विभाग ही नहीं ज्यादातर हिंदी साहित्य भी हिंदी की कब्रगाह हैं और साहित्यकार उसका मृत्युभोज खाने को तैयार बैठे महाब्राह्मण। संस्कृत की ओखली में मुसलिया दी गयी ये वाली हिंदी मरणासन्न है ही, कुछ दिन में गुजर भी जायेगी। 

बाकी पहली और दूसरी वाली महफूज़ हैं, जिंदाबाद हैं, पाइन्दाबाद हैं. 

तब तक जब तक बंगाली बोलने वाली कोई लड़की बेकराँ है बेकराँ गुनगुनाती रहेगी, जब तक 'आशिकी' के गाने अवाम की जुबान पर चढ़ते रहेंगे, जब तक गुलजार (मुझे न पसंद होने के बावजूद) की उर्दू/पंजाबी के बीच की किसी जगह वाली उर्दू लोगों के मन के तार खड़काती रहेगी। हिंदी महफूज़ है जब तक ओंकारा जैसी फिल्मों की हिंदी गुलाल वाली हिंदी से बिलकुल अलग होगी और दोनों कस्बों वाली टूरिंग टाकीज से लेकर मल्टीप्लेक्स तक बराबर 'हिट' होंगी, बराबर भीड़ खींचेगी।

क्या है कि इस हिंदी को सड़े 'मानकीकरण' उर्फ़ standardisation की जरूरत नहीं है. यह तो बहती नदी है, नए शब्द उठाती, पुराने बेकार वाले छोड़ती हुई. फिर इस हिंदी को राष्ट्रभक्ति के किसी नए प्रयोग से भी मतलब नहीं है, इसे तो व्यापार करना है, अधिकतम लोगों तक पँहुचना है. सो इसके लिए कोई किसी की शब और सुबह ही हो सकता है, रात्रि और प्रातःकाल नहीं। फिर इसमें प्यार भी आता है तो बेहद और बेशुमार ही आता है, अत्यधिक और असीमित नहीं। 

पहली और दूसरी वाली महफूज़ हैं जब तक अखबार हैं जिन्हें आसान शब्दों में अपनी बात आम आदमी तक पंहुचानी है. तब तक जब तक आप उन्हें जितनी गाली दे लीजिये, सरस सलिल जैसी पत्रिकाएँ हैं- एक पूरी पीढ़ी को पत्रिका खरीदने का पहला मौका देने वाली पत्रिकाएं।

वे महफूज़ हैं जब तक रिक्शे चलाने वाले दोस्त हैं, सड़क किनारे पानी की रेहड़ी वाला भाई है, बड़े शहरों में अपनी जमीन तलाशते पुरबिये हैं, पछुए हैं, मगही हैं, मागध हैं, बुन्देले हैं, बघेल हैं, रुहेले हैं.…… इन सबको साझे की एक जुबान चाहिए, वो जुबान हिंदी है. पर हमारी वाली, हिंदी विभागों वाली नहीं। क्या है कि इसे न राष्ट्रभाषा बनने की जिद है न राज भाषा बनने की। ये आम अवाम की जुबान बन के खुश है। 

और हाँ, इस हिंदी को कोई पखवाड़ा नहीं चाहिए, न श्राद्ध का न स्मृति का.  

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