मुस्लिम टुडे के दिसम्बर 2014 अंक में प्रकाशित लेख का हिंदी लिप्यंतरण
बाबरी कभी एक मस्जिद का
नाम होता था, अब इस देश के सीने में पैबस्त खंजर का नाम है. वो खंजर जिसे लेकर एक
पूरी पीढ़ी जवान हो गयी. वो जिसने बाबरी को बस तस्वीरों में देखा है, तकरीरों में
सुना है. शुक्र है कि मैं उस पीढ़ी का नहीं हूँ. उम्र भले बहुत कम रही हो मैं उन लोगों
में से हूँ जिन्होंने बाबरी को देखा है और बारहा देखा है. देखता भी कैसे नहीं,
बाबरी और हनुमान गढ़ी दोनों वाली अयोध्या से कुल 28 किलोमीटर दूर गाँव की
रिहाइश वाले मेरे लिए बाबरी जिंदगी के मील पत्थरों में से रही है, ठीक वैसे जैसे
हनुमान गढ़ी या राम की पैड़ी थी. बचपन में अयोध्या के उस पार नानी के घर आनेजाने और फिर
ग्रेजुएशन के लिए इलाहाबाद रसीद हो जाने के बाद वो मील पत्थर जिन्हें पार करना हो
होता था, जिनसे हजार यादें पैबस्ता थीं.
तब बाबरी चौंकाती थी, कि
अखबारों में जब तब उसका जिक्र हवादिस के सबब से ही आता था और यहाँ बाबरी थी, उस
अयोध्या में जिसमे कभी कोई दंगा न हुआ था. अयोध्या के पार हम थे उस बस्ती में फिर
से जहाँ कभी कोई दंगा न हुआ था. बाबरी चौंकाती थी कि शहर में सबसे ज्यादा लोगों को
रोटी रामनामी और खंड़ाऊं बना के बेच के मिलती थी और ये दोनों ही काम ज्यादातर
मुसलमान करते थे. तब समझ नहीं आता था कि सरयू किनारे बसे इस छोटे से मुफस्सिल
कस्बे में इस जरा सी इमारत के लिए पूरे साउथ एशिया में फसाद क्यों होते रहते हैं.
पर फिर तब ये भी कहाँ पता था कि ये इमारत जरा सी इमारत नहीं सैकड़ों साल का माजी
अपने में समाये गंगाजमनी तहजीब का परचम है. उस तहजीब का जिसमे जातिपात से लेकर हजार
बुराइयां थीं पर कम से कम मजहब के नाम पर फैलाया जाने वाला जहर नहीं था. बेशक तब
भी लोग कभी कभी लड़ लेते थे, अपनी अच्छाइयां और बुराइयाँ दोनों समेटे बैठे आम से
लोग थे आखिर, दुनिया में हर जगह लड़ते हैं. पर फिर वे लड़ाइयाँ ख़त्म हो जाती थीं, एक
दूसरे से अफ़सोस जता लोग फिर एक हो जाते थे.
हाँ, बाबरी को देखते हुए
कभी डर न लगता था. ठीक है कि हर अगली बार गुजरने के वक़्त खाकी वर्दियां थोड़ी और बढ़
गयी होती थीं, हर बार बड़ों की आँखों में थोडा और तनाव, थोड़ा और डर पसर जाता था पर
बस, बात उतने पर ही ख़त्म भी हो जाती थी. लोगों को यकीन होता था कि मामला अदालत में
है, एक दिन फैसला हो ही जाएगा. पर फिर एक दिन फैसला तो हुआ पर अदालत ने नहीं किया,
हिन्दू धर्म के स्वयंभू (खुदमुख़्तार) ठेकेदारों ने कर दिया. तैयारी तो वो बहुत
पहले से कर रहे थे और अफ़सोस कि उस तैयारी में तब की सरकारें उनसे लड़ नहीं रही थीं
बल्कि उनकी मदद कर रही थीं. 6 दिसंबर 1992 को बाबरी शहीद की गयी थी पर बस उसी दिन नहीं की गयी थी.
बाबरी 1949 में तब भी शहीद की गयी थी जब रातों रात एक तालाबंद कमरे में भगवान् राम
की मूर्ति रख दी गयी थी. फिर 1986 में भी जब डिस्ट्रिक्ट जज ने विवादित जगह पर
ताले खोल हिन्दुओं को पूजा का अधिकार दे दिया था, उसी जज ने जो बाद में भारतीय
जनता पार्टी का सांसद हुआ. बाबरी 1989 में भी शहीद हुई थी जब तब की कांग्रेस सरकार ने विवादित
जगह के ठीक बगल विश्व हिन्दू परिषद को शिलापूजन (नींव रखने) की इजाजत दे दी थी. 6 दिसंबर 1992 को तो बस ये हुआ था कि बाबरी के साथ बहुत कुछ शहीद हो गया था, अमन,
गंगाजमनी तहजीब और लोगों का एक दूसरे में यकीन, बहुत कुछ.
पर उससे भी बड़ा था कुछ
जिस पर उस दिन हमला हुआ था. ये हमला इस मुल्क में इन्साफ की, हक की रवायतों पर था.
बाबरी ऐसे ही नहीं शहीद कर दी गयी थी. बाबरी के शहीद होने के एक दिन पहले सूबे के
तत्कालीन भाजपाई मुख्यमंत्री कल्याण सिंह ने सुप्रीम कोर्ट को लिखित हलफनामा दिया
था कि वे बतौर मुख्यमंत्री बाबरी की हिफाज़त करेंगे. सुप्रीम कोर्ट और तत्कालीन कांग्रेसी
केंद्र सरकार ने इस हलफनामे पर यकीन किया और फिर कल्याण सिंह की सरपरस्ती और
लालकृष्ण आडवानी, मुरली मनोहर जोशी, उमा भारती, साध्वी ऋतंभरा और विनय कटियार जैसे
भाजपा/विश्व हिन्दू परिषद के तमाम कद्दावर नेताओं की उपस्थिति में बाबरी जमींदोज
कर दी गयी. फिर उस हलफनामे का क्या हुआ? सुप्रीम कोर्ट ने उस पर कोई कार्यवाही
क्यों नहीं की? सुप्रीम कोर्ट ने कार्यवाही की. सालों बाद कल्याण सिंह को अदालत की
अवमानना के लिए एक दिन के लिए जेल भेजने की सख्त कार्यवाही की. अभी कल्याण सिंह
कहाँ है? अभी कल्याण सिंह भारत के सबसे बड़े सांविधानिक पदों में से एक राज्यपाल पर
बैठ देश के सबसे बड़े राज्य राजस्थान के मुखिया हैं. 6 दिसंबर 1992 को इस देश की
अकिलियत का सुप्रीम कोर्ट में, इन्साफ में भरोसा बच भी गया हो तो भी अब वह इसी ऐतबार
के साथ कह पाना जरा मुश्किल है.
सवाल सिर्फ कल्याण सिंह
का नहीं था. बाद में साफ़ ही हो गया कि बाबरी को शहीद करना कोई हादसा नहीं एक सोची
समझी साजिश थी. वह साजिश जिसमें हलफनामा देकर केंद्र सरकार को कारसेवकों के आने के
पहले उत्तर प्रदेश के निज़ाम को बर्खास्त करने से बचा जा सके. मान भी लें कि इस
साजिश में केंद्र सरकार और प्रधानमंत्री नरसिम्हाराव नहीं शामिल थे तो बाबरी पर
हमले के बाद उन्होंने तुरंत कार्यवाही क्यों नहीं की? बाबरी छोटीमोटी इमारत नहीं, 400 साल से खड़ी एक मजबूत ईमारत थी, ऐसी की उसे गिराने में घंटों लगे थे.
नरसिम्हाराव सरकार हमला होते ही राष्ट्रपति शासन लगा सकती थी, उसने शाम भर और
कल्याण सिंह के इस्तीफे (दोनों लगभग साथ ही हुए थे) का इन्तेजार क्यों किया? ऐसा
भी नहीं कि केंद्र सरकार के पास फैजाबाद में संसाधन नहीं थे, कमिश्नरी मुख्यालय
होने के साथ साथ फैजाबाद हिन्दुस्तानी फौज की डोगरा रेजिमेंट का मुख्यालय भी है और
बाबरी की सुरक्षा में उन्हें मोबिलाइज करने में ज्यादा वक़्त न लगता.
अफ़सोस यह कि लोगों का,
अकिलियत का ही सही, इन्साफ में, अदालतों में, सरकार में यकीन टूट जाए तो बहुत कुछ
टूट जाता है. आडवाणी की रथयात्रा ने अपने पीछे हुए दंगों में खून की एक नदी छोड़ी
थी. बाबरी की शहादत ने इस नदी को समन्दर में बदल देना था. 6 दिसंबर 1992 के घंटों
भर बाद देश सुलग उठा था और इस आग ने कम से कम 2000 हिन्दुस्तानियों को निगल लिया
था. पर फिर यह संख्या 2000 भी कहाँ? उसके बाद के तमाम दंगे फिर धीरे धीरे
नरसंहारों में बदलने लगे थे और अकिलियत का गुस्सा बदलों में. मुझे साजिश के
सिद्धांतों में कोई यकीन नहीं पर मैं जानता हूँ कि 1992 के पहले बाहर गए बेटे की
माँ, बीबी का पति बम धमाकों के डर से हलकान नहीं रहता था. हिंदुस्तान ने उसके पहले
भी तमाम हवादिस झेले थे पर वह उनकी सोच का हिस्सा नहीं बना था. खालिस्तान और
ऑपरेशन ब्लू स्टार दोनों होकर गुजर चुके थे पर उनकी लपटें पंजाब और दिल्ली के बाहर
तक नहीं पंहुचीं थीं. अबकी वाली आग की जद में पूरा हिंदुस्तान था.
पर फिर सिर्फ हिंदुस्तान
भी कहाँ? उस दिन के बाद से वो सोया सा कस्बा क़स्बा नहीं, पूरे पूरे साउथ एशिया भर
में अकिलियत के लिए डर का दूसरा नाम बन गया. न न, सिर्फ हिंदुस्तान की मुस्लिम
अकिलियत के लिए ही नहीं, पाकिस्तान और बांग्लादेश की हिन्दू अकिलियत के भी. यहाँ
कुछ करिए और बांग्लादेश के हिन्दुओं की रीढ़ में डर उतर आएगा. आये भी कैसे नहीं,
यहाँ की एक मस्जिद, जिसमे इबादत तक बंद थी, का बदला बांग्लादेश के फ़सादियों ने,
पाकिस्तान के फ़सादियों ने अपने यहाँ के हिन्दुओं से जो लिया था.
बाबरी
की शहादत पर, बाद में इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले पर, हिंदुत्ववादी कट्टरपंथ के उभार पर पहले भी बहुत बार लिखा है.
जो नहीं लिखा है वह यह कि जब बाबरी ढाई गयी तब मैं आरएसएस के बनाये पहले सरस्वती
शिशु मंदिर में पढता था उसी के छात्रावास में रहता था. शिशु मंदिरों के
छात्रावासों में शाखा जाना अनिवार्य होता है तो शाखा भी जाता था. खेलना कूदना
अच्छा भी लगता था. बौद्धिकों में आने वाले राष्ट्रप्रेम, समरसता जैसे शब्दों को
सुनकर लगता था कि ये भले लोग हैं. वैसे भी 13 साल की उम्र बहुत कुछ जानने समझने की
कहाँ होती है? पर उस दिन हवाओं में उतर आया तनाव आज भी याद है. आरएसएस का स्कूल
होने की वजह से मामला संवेदनशील था, बाबरी पर हमला होते होते तो पुलिस ने हिफाज़त
के लिए पूरी तरह से घेर लिया था. फिर शाम तक आचार्य जी (उस्तादों) के चेहरे पर उतर
आई मुस्कुराहटों ने बहुत कुछ साफ़ कर दिया था. हाँ उस दिन शाखा नहीं आरएसएस पर
प्रतिबंध लगा था. फिर हम लोग भीतर बुलाये गए कि आज शाखा भीतर लगेगी. मुझे अब भी
याद है कि मैंने बस इतना पूछा था कि अपनी थी तो क्यूं ढहा दी? कोर्ट के फैसले का
इन्तेजार क्यों नहीं किया? उनकी थी तो क्यों ढहा दी.
ये अपने हम और उन के फरक से
परे इंसान बनने की राहों पर चलने की शुरुआत थी. उस दिन मन से आरएसएस के अच्छे होने
का यकीन भी दरका था और बस यही एक दरकना अच्छा था.
आज इतने साल बाद बाबरी को याद
करता हूँ तो लगता है कि अपनी कौम, हिन्दुस्तानी कौम, की दिक्कत बस इतनी है कि वह
माजी को ज्यादा देर याद नहीं रखता. मुल्क का बंटवारा याद रखा होता, उसमे बहा खून
याद रखा होता तो शायद 1984 न होता. 1984 याद
रखा होता तो शायद 1992 न होता. हाँ 1992
के बाद की कहानी अलग है. उसके बाद की कहानी
हिंदुस्तान के हिन्दू पाकिस्तान बनने की राह पर चल पड़ने की कहानी है. वक़्त अब भी
है, काश हम रोक पायें.
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