फेरी वाले सपने

[दैनिक जागरण में अपने पाक्षिक कॉलम 'परदेस से' में 17 जनवरी 2015 को प्रकाशित]

फ्रेडी की आँखें अब भी चमक रहीं थी, वैसे जैसे अपने उजड़ने का डर बयान करते किसी शख्श की चमक ही नहीं सकतीं. मनीला के रिजाल पार्क की उतरती शाम में उनके चेहरे पर पड़ती सुनहली किरणें जोड़ लीजिये, और समझ आएगा कि थोड़ी देर पहले जोएल ने क्यों कहा था कि कभी कभी फ्रेडी जीसस क्राइस्ट जैसा लगता है.

हम मनीला के रिजाल पार्क में बैठे थे. हम माने मैं, स्थानीय साथी मेलोना, दयान और रिजाल के साथ साथ लुनेटा के नाम से भी जाने जाने वाले पार्क में फेरी लगाने वाले दोस्त. उस पार्क में जो अब 56 साल के हो चुके फ्रेडी का 1972 से ही घर है. हाँ, घर, बोले तो एक रेहड़ी जिसमें ऊपर सामान होता है और नीचे पाँव मोड़कर सो जाने भर की जगह. हम वहाँ इसलिए थे क्योंकि सरकार विकास के नाम पर पीपुल्स डेमोक्रेटिक हॉकर्स और वेंडर्स अलायंस नाम से संगठित रेहड़ी और फेरी वाले दोस्तों का यह घर छीनने की कोशिश में थी. फ्रीडम आइलैंड के मछुआरे दोस्तों की बसावट ध्वस्त करने की ऐसी ही कोशिश को दो साल से रोके रहने की हमारी छोटी से कामयाबी के बाद मेलोना ने हमें इस लड़ाई में शामिल किया था. सो एक साल तक सरकार से जद्दोजहद के बाद खतरा बढ़ता देख हम सरकार पर दबाव डालने के लिए खुद वहाँ पंहुच गए थे.

यूं तो पार्क में फेरी रेहड़ी दोनों ही कभी कानूनी नहीं थे पर फिर सरकार ने सैकड़ों लोगों को रोजगार देने वाले इस काम पर कभी ऐसा कहर भी नहीं तोड़ा था. “मेरे पास इस रेहड़ी के सिवा कुछ नहीं है, न पति न बच्चे”- ज़म्बोंगा मिंडान ने अचानक खामोशी तोड़ी थी- “वे मुझसे यह भी क्यों छीनना चाहते हैं”. “है तो, तुम्हारे पास वो बिल्ली भी तो है”-इस बार बीच में कूदने वाली ‘मिला’ थीं और एक साझा ठहाका हवा में बिखर गया था. किसी भी हालत में, कितनी भी परेशानियों के बीच हंस सकने की यह क्षमता मैंने श्रमिकों को छोड़ और किसी समूह में कभी नहीं देखी.

“इन लोगों की ‘जीरो वेंडिंग पालिसी’ बस एक बहाना है, ये लोग एक कोरियन फ़ूडजॉइंट की शाखाएं यहाँ खोलना चाहते हैं. हमें उनके दस्तावेज मिल गए हैं.” संगठन के अध्यक्ष जोएल बात को फिर पटरी पर ले आये थे. “यह कहते हैं कि हम लोगों से लोगों को दिक्कत होती है, फिर हमारे खाने में साफसफाई की भी कोई गारंटी नहीं है, पर हम भी तो शीतल पेय, नूडल्स, बिस्किट और ऐसी ही चीजें बेचते हैं. यह भी वही बेचेंगे, फिर साफसफाई की दिक्कत कहाँ से आ गयी”. बात आगे बढ़ाते हुए जोएल की आवाज में अब गुस्सा उतर आया था. पर ठीक यही तर्क तो दिल्ली में कनाट प्लेस और इंडिया गेट से रेहड़ी-फेरी वालों को निकालने के लिए दिल्ली सरकार ने इस्तेमाल किया था. सारी दुनिया के मजदूर कभी एक हो पायें या नहीं, दुनिया भर के हुक्मरान बिलकुल एक से हैं.

“पिछली बार हमने बड़ी मुश्किल से रोका था’ बात एडविन ने आगे बढ़ायी थी. “हमारा सारा सामान जब्त कर लिया था, पुलिस ने कुछ लोगों को मारा पीटा भी था. कुछ लोग डर कर चले भी गए थे, हमें अलविदा कहने का भी वक़्त नहीं मिला था. पर फिर संगठन ने लम्बी लड़ाई लड़ कर आगे की कार्यवाही रोक दी थी. तब सरकार ने एक आजीविका परियोजना शुरू कर हमें यहाँ काम करने की इजाजत दे दी थी, मगर इस शर्त पर कि पार्क की साफ़ सफाई की जिम्मेदारी हमारी होगी. अब वो फिर से निकालने का आदेश लेकर आ गए हैं.”

अफ़सोस यह कि इस बार का आदेश पोप फ्रांसिस की यात्रा के मद्देनजर था. उन पोप फ्रांसिस को जिन्हें लगभग कम्युनिस्ट समझा जाता है, गरीबों का हितैषी और मसीहा माना जाता है. लगभग 98 प्रतिशत रोमन कैथोलिक आबादी वाले इस देश में पोप का बहुत सम्मान है और रेहड़ी-फेरी वालों को यकीन कि उन्हें पता चल जाय तो वे नहीं निकाले जायेंगे. ‘उन्हें पार्क में एक दिन ही तो मॉस करना है, उसमें तो हम भी शामिल होना चाहते हैं. ऐसा शुभ अवसर कौन नहीं चाहेगा’ मिला की आवाज में अद्भुत ख़ुशी भर आई थी. “हम कहाँ कभी वैटिकन जा पाते, इसी अपने जीसस फ्रेडी को देखते रह जाते’- जोएल की चुहल भरी टिप्पणी ने साझा हंसी का दूसरा मौका दे दिया था. काश उनका यकीन सच निकले. रात उतर आई थी. कॉफ़ी और नाश्ता आ गया था, हमेशा की तरह जानता था कि ये मजदूर दोस्त पैसे नहीं देने देंगे सो निकलते हुए प्रस्ताव भी नहीं रखा था. लड़ाई जारी रहनी थी. हाँ अचानक जम्बोंगा ने अपनी रेहड़ी में लेटकर देखने का प्रस्ताव रखा था- तीन तरफ अलमुनियम से बंद चार गुने चार की उस रेहड़ी में मिनटों में ही दम घुटने लगा था और जिम्बोंगा उसी में दशकों से सो रही थीं.

लड़ाई जारी रहेगी. इस बार सरकारी अधिकारियों के साथ साथ पेपल नुन्सियो (पोप के राष्ट्रीय प्रतिनिधि) से भी बात करनी होगी सोचते हुए हम सब बाहर निकल आ

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