[मुस्लिम टुडे (हिंदी) के जनवरी 2015 अंक में प्रकाशित]
किसी नरसंहार से अल कायदा
का सीना ‘दुःख और दर्द से छलनी हो जाय’ यह हादसा रोज नहीं होता. पर फिर पेशावर में
फौजी स्कूल पर हमला कर 138 बच्चों सहित डेढ़ सौ
से ज्यादा लोगों को बर्बर ढंग से मारना और उसे सही ठहराना, यह हादसा भी तो रोज
नहीं होता. पर अंधेरी गली के आखिर में दिखने वाली रौशनी पेशावर के वहशियाना हमले
के बाद भी दिख रही है. यही रोशनी पाकिस्तान को आतंकवाद की उस बंद गली से निकाल
सकती है जिसका मुहाना एक असफल राष्ट्र बनने की नियति में खुलता है.
इस रोशनी की तमाम
परतों में पहली यह है कि इसने तालिबान के समर्थक आम नागरिकों से लेकर राजनेताओं तक
का मुंह हमेशा के लिए बंद कर दिया है. कल तक तालिबान लड़ाकों को शहीद बताने वाले
इमरान खान जैसे लोग इस ‘हमले की जिम्मेदारी लेने वाली’ तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान
(टीटीपी) की सशर्त ही सही निंदा करने को मजबूर हुए हैं. यह पाकिस्तान के लिए अच्छी
खबर है. इसमें लाल मस्जिद के नाम पर आतंक का गढ़ चलाने वाले मौलाना अब्दुल अज़ीज़ की
पहले हमले को उचित ठहराना और फिर अवाम के गुस्से के बाद माफ़ी मांगते हुए टीटीपी की
निंदा को मजबूर होना जोड़ लें. साफ़ है कि जनरल जिया उल-हक के बाद से लगातार कट्टरपंथी
होते गए पाकिस्तान में उदारवादी ताकतों के लिए वक्ती जीत ही नहीं, आगे की लड़ाई की
शुरुआत का मौका भी है.
सरकारों के लिए
आतंकवादी अवाम या कमसेकम अवाम के एक हिस्से के लिए आजादी के लड़ाके हो सकते हैं,
होते रहे हैं. पर फिर सरकारों के साथ हथियारबंद लड़ाई और आतंकी घटनाओं में साफ़ फर्क
है- आजादी के लड़ाके बेगुनाह और गैरलड़ाकू(non-combatant) आबादी पर हमले नहीं करते.
इस हिस्से पर हमला करने वाले आतंकवादी के सिवा कुछ नहीं हो सकते. यह हास्यास्पद
विडम्बना ही है कि इस हमले की चार पेज लम्बी निंदा में यह बात अल कायदा को भी
माननी पड़ी है. उसने स्वीकारा है कि अमेरिका की गुलाम बन मुसलमानों के नरसंहार में
सबसे आगे पाकिस्तानी सेना की हरकतों का बदला “दबे कुचले मुसलमानों से’ नहीं लिया
जा सकता. अल कायदा की दक्षिण एशियाई शाखा के प्रवक्ता उसामा महमूद द्वारा जारी इस
बयान में यह भी दोहराया गया है कि उसकी लड़ाई अमेरिका के पिट्ठुओं से हैं और वह ‘बच्चों, महिलाओं और अपने मुसलमान लोगों’ को
निशाना नहीं बनाता है’. भले ही इस हास्यास्पद झूठ के लिए अल कायदा से पूछा जा सकता
है कि वर्ल्ड ट्रेड सेंटर से लेकर बाली हमलों तक में मारे गए लोगों पर उसने कोई
मुकदमा चलाकर उन्हें दोषी पाया था. पर हमले के अगले ही दिन आ गयी अफ़ग़ान तालिबान की
निंदा के बरक्स हफ्ते भर बाद ही सही इस निंदा के मायने बहुत बड़े हैं.
यह शायद पहली बार है
जब जेहादी इस्लाम एक अंतर्संघर्ष से गुजरते हुए दिख रहा है. गोकि इस लड़ाई के संकेत अल कायदा द्वारा इस्लामिक
स्टेट को आधिकारिक रूप से अपने से अलग करने के दौर से ही मिलने लगे थे पर अब सूरत
और साफ़ हुई है. जेहादी इस्लाम अब खुद से पूछता हुआ दिख राह है कि मजहब के नाम पर
कितनी हिंसा की जा सकती है, कितनी निर्ममता पर उतरा जा सकता है. पर फिर अफ़सोस, यह
हमला न तो पहला था और न ही यह आखिरी होने जा रहा है. पाकिस्तान के कार्यकर्ता
परवेज हुडबाय के शब्दों में कहें तो “लक्की मारवात में वोलीबाल मैच देख रहे
दर्शकों पर फिदायीन हमले में 105 लोगों के मारे जाने के बाद कुछ नहीं बदला था. एक स्नूकर
क्लब में आत्मघाती हमले में 96 हजारा लोगों के मारे जाने के बाद भी. पेशावर में ही आल
सेंटस चर्च विस्फोट में मारे गए 127 लोग हों या प्रार्थना करते मारे गए 90 से ज्यादा अहमदी- अब बस
सूखे आंकडे हैं... पाकिस्तान में अगर कोई सामूहिक अंतरात्मा या विवेक होता तो
इनमें से कोई एक ही उसे झकझोर देने के लिए काफी था.”
पर नहीं, इस हमले ने
बहुत कुछ बदला है. पाकिस्तान में उदारवादी साथियों की लड़ाई हमेशा से बहुत मुश्किल रही
है, सलमान तासीर की तरह तमाम साथियों ने उस लड़ाई की कीमत अपनी जान से अदा की है.
पर फिर जेहादी नफरत के अड्डे लाल मस्जिद पर ही मोर्चा निकाल देने के फैसले पर
ज्यादातर लोगों का चुप ही सही समर्थन देना बता रहा है कि इस घटना ने तस्वीर काफी
बदल दी है. लोगों को समझ आ रहा है कि हिन्दू, ईसाई और अहमदी अल्पसंख्यक समुदायों
के खिलाफ जेहाद के नाम पर हो रही हिंसा का रुख शिया और हजारा समुदाय की तरफ मुड़
जाना पहली चेतावनी थी. वह चेतावनी न सुनना इस हिंसा को वहाँ ले आया है जहाँ पाकिस्तान
में कोई सुरक्षित नहीं है, न अवाम न इस्लाम..
बात अजीब लगे तो याद
करिए कि पेशावर के हत्यारों ने कैसे एक अध्यापिका को कुर्सी से बाँध कर जिन्दा जला
दिया, उस इस्लाम की बता करते हुए जिसमें मरने के बाद भी जलाने की इजाजत नहीं है.
यह भी कि कैसे उन्होंने मारने के पहले बच्चों से कलमा पढ़वाया, उनके साथ ‘जिन आठ को
बचना है वे बाहर आ जाएँ’ जैसे दिमागी खेल खेले. हद यह कि नरसंहार के बाद जब
पाकिस्तान ही नहीं पूरी दुनिया सदमे में थी (अल कायदा को एक हफ्ता लगना था) तब भी
टीटीपी का प्रवक्ता उसे जायज और इस्लामिक बता रहा था. कथित रूप से सहीह बुखारी,
पांच, की 148वीं हदीस उद्धृत करते हुए उसने यह दावा भी किया कि हमलावरों को केवल बड़े
बच्चों को मारने का आदेश था..
हम लाख कहते रहें कि
इस्लाम का आतंकवाद से कोई रिश्ता नहीं है, पर इस्लाम का जेहादियों के हाथ अपहरण ही
वह नुक्ता है जिससे जूझे बिना न पाकिस्तान को आतंकवाद से निजात मिल सकती है न
दुनिया को. नाइजीरिया में बोको हराम, लेवांत में इस्लामिक स्टेट, केन्या में अल
शबाब- ये सारे के सारे आतंकवादी संगठन न केवल इस्लाम के नाम पर लड़ रहे हैं बल्कि
अपने हमलों को न्यायोचित ठहराने के लिए कुरआन और हदीस का प्रयोग करते रहे हैं. जब
तक उन्हें कुरआन के ऐसे बेजा इस्तेमाल से रोका नहीं जाएगा, इस्लाम में यकीन रखने
वाले मासूम उनके जाल में फंसते रहेंगे. सोमालियन मुस्लिम लेखिका अयान हिरसी की बात
जरा सी बदल कर कहें तो इस्लाम में हो या न हो, इस्लामिक समाज के भीतर कुछ बहुत गड़बड़
है और इस्लाम बचाने के लिए उस गड़बड़ से जूझना ही होगा.
लगता नहीं कि
पाकिस्तान इस लड़ाई के लिए तैयार है. पहले तो यही कि उसी का खड़ा किया हुआ यह
भस्मासुर उसमें बहुत गहरे तक धंसा हुआ है. सरकार को पता ही नहीं है कि कौन दुश्मन
है और कौन दोस्त. ये तालिबान फौज की नकली वर्दियां पहन के आये थे पर गवर्नर सलमान
तासीर को मारने वाले सुरक्षाकर्मी की वर्दी असली थी. हक्कानी नेटवर्क कितना बड़ा है
किसी को नहीं मालूम. उन जेहादियों से कोई कैसे लड़ सकता है जो राज्य के संस्थागत
ढाँचे के हर हिस्से में शामिल हैं? फिर प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ के विदेश मामलों के
सलाहकार सरताज अजीज की बात सुनिए ‘पाकिस्तान उन आतंकी समूहों को निशाना नहीं
बनाएगा जो ‘(पाकिस्तान) राज्य के लिए खतरा नहीं है’ और तस्वीर साफ़ हो जाती है. इन
समूहों में हाफ़िज़ सईद के जमात उद-दावा जैसे संगठन शामिल हैं जो पूरे पाकिस्तान में
घूम घूम के नफरत फैलाते हैं और जेहाद की मशीन के लिए रंगरूट तैयार करते हैं.
ऐसे हालात में कार्यवाही
को सिर्फ खैबर पख्तून ख्वाह, फाटा (फेडरली एडमिनिस्टर्ड ट्राइबल एरियाज), अफगानिस्तान
सीमावर्ती इलाके और कुछ हद तक कराची और इस्लामाबाद तक सीमित रखने से भी कुछ नहीं
होगा. जेहादी पूरे पाकिस्तान में हैं और सरकार को उनसे निपटना भी पूरे पाकिस्तान
में पड़ेगा. अफ़सोस कि यह काम सोशल मीडिया पर उमड़ पड़े आम नागरिकों के गुस्से के बस
का नहीं है, यह बस पाकिस्तान सरकार कर सकती है और वह इसके लिए तैयार मालूम नहीं
पड़ती. ऐसे में यह एक हारी हुई लड़ाई को थोड़ा सा और हार जाने का मामला ही बनता दिख
रहा है.
अंत में सबसे बड़ा
अफ़सोस यह कि दुनिया के दीगर मुस्लिम इलाकों में इस वहशियाना हमले के खिलाफ गुस्सा
वैसा नहीं दिखा जैसा गाजा हमलों या पैगम्बर के कार्टूनों के खिलाफ दिखा था. ठीकठाक
मुस्लिम आबादी वाले हिंदुस्तान के हर शहर में तब हुए प्रदर्शनों के बरक्स इस बार
की खामोशी अफसोसनाक है. यह इस्लाम के लिए भी आत्मसंघर्ष का समय है. यह समझने का
समय है कि दुनिया की कोई किताब इतनी पाक नहीं हो सकती कि उसके नाम पर लोगों की
हत्या को सही ठहराया जा सके. यह भी कि किसी किताब के नाम पर मासूमों का खून बहाने
वालों पर चुप नहीं रहा जा सकता है. ऐसी हर चुप्पी उनके हौसले ही बुलंद नहीं करती
बल्कि अपने मुल्क के भीतर की वैसी ताकतों को बढ़ावा भी देती है. पाकिस्तान की आम
अवाम ने इस बड़ी और जरुरी लड़ाई में अपने लिए जरा जमीन बना ली है. बाकी दुनिया के हर
इंसान, खासतौर पर मुसलमानों को, तय करना होगा कि उन्हें इस मुश्किल वक़्त में
पाकिस्तान के आम इंसान के साथ खड़ा होना है या अपनी चुप्पी लेकर तालिबान के साथ.
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