माओवादियों की देवी

[दैनिक जागरण में अपने कॉलम परदेस से 11 अप्रैल 2015 को प्रकाशित] 

मैं कुमारी, यानी नेपाल की जीवित देवी के ठीक सामने खड़ा था. किसी की गोद (सामान्यतः पिता ही लेते हैं) में बैठी कुमारी के पांवों में गिरती भीड़ को देख चकित और स्तब्ध आँखें अगल बगल फिरीं तो तमाम विदेशी लोगों की आँखों में भी वही भाव दिखा. कोई भाव नहीं था तो बस कुमारी की पहले से ही लम्बी होने के बावजूद काजल से और लम्बी कर दी आँखों में. मुझे दुर्गापूजा के दिनों में लगने वाली मूर्तियाँ याद हों आयीं थीं, बस इन आँखों में उन मूर्तियों वाला गुस्सा नहीं एक निस्पृहता थी, ऐसे जैसे भक्ति और कौतूहल के दो बिलकुल अलग भावों वाली आँखें उसके सामने हों हीं न. 

पर तब तक कहाँ पता था कि कुमारी हंस नहीं सकती, उनका हँसना नेपाल पर तबाही आने का संकेत होता है. तब कहाँ पता था कि बचपन में चुन ली जाने वाली यह जीवित देवी पैदल नहीं चल सकती, उसके पाँव जमीन पर नहीं पड़ सकते. इसीलिए उसे कुमारी रहने तक, यानी कि मासिक स्त्राव शुरू होने की संभावना के पहले ही नयी कुमारी चुन लिए जाने तक गोद में ही चलना पड़ता है. यह भी कि जीवित देवी ही सही यह बच्ची खेल नहीं सकती. मतलब उसके साथ खेलने वाले बच्चे चुने तो जाते हैं पर उन्हें देवी की हर बात माननी होती है, जो वह चाहे वही करना होता है. जो उसके सामने चढ़ाये गए प्रसाद को हाथ भी नहीं लगा सकती क्योंकि यह भी तबाही लाता है. 

आखिर में यह कि जिसकी जिंदगी नयी देवी चुने जाते ही बलगभग ख़त्म हो जाती है. वह शादी नहीं कर सकती, क्योंकि लोग मानते हैं कि उससे शादी करने वाला मर जाएगा. वह नौकरी नहीं कर सकती क्योंकि पूर्व कुमारी कि शक्तियों से पंगा कौन मोल लेगा. कुमारी बनने का मतलब यह कि फिर जिंदगी इन्दर जात्रा के समय को छोड़ कर कुमारी बहल में जिंदगी सिमट के रह जाना है. 

हाँ, यह इन्दर जात्रा का समय ही तो था जब जाने क्यों मैं आदतन ही दरबार स्क्वायर चला आया था. तमाम बार महीनों रह लेने के बाद अपने शहर से ही हो गए काठमांडू की इन दो जगहों से यह अनजान लगाव कभी समझ नहीं आया. क्या है जो मुझे पशुपतिनाथ मंदिर के पीछे बागमती नदी के तट पर बने शमशान घाट और कुमारी बहल यानी कि कुमारी घर की तरफ खींचता रहता है. पहली फुर्सत मिली नहीं कि दोस्त की स्कूटी उठाकर इनमें से कहीं एक पंहुच गए. 

कुमारी घर... एक भव्य ईमारत जिसके सामने यूं तो रोज ही भीड़ होती है कि कुमारी के दर्शन हो जाएँ पर इन्दर जात्रा का तो पूछना ही क्या. उस इन्दर जात्रा में जिसमें तीन दिन कुमारी जात्रा के होते हैं जब कुमारी अपने साथी गणेश और भैरव के साथ तीन रथों पर शहर की तीन दिशाओं में यात्रा पर निकलती हैं और हर तरफ उन्हें देखने का, उनका आशीर्वाद पा जाने का उन्माद होता है. कुमारी के पांवों में गिरती भीड़ में से कोई टकराया तो अचानक ख्यालों की दुनिया से लौट आया था. कुमारी थोड़ा आगे बढ़ आयीं थीं पर थीं अब भी सामने ही. पता नहीं नजरें मिलीं थीं या नहीं, कहा ही उनकी आँखों में कोई भाव नहीं तिरता, वे आपके पार देख रही होती हैं. या शायद देखने को प्रशिक्षित की गयी होती हैं. 

मैं अक्सर कुमारी घर के सामने वाले मंदिर की सीढ़ियों पर बैठ जाता था, सोचते हुए कि देवी चुने जाने के बाद तांत्रिक अनुष्ठानों को पूरा कर इस मंदिर से सफ़ेद कपडे पर अंतिम बार पैदल चलते हुए उस छोटी से बच्ची के मन में क्या रहता होगा? क्या सोचती होगी वह चारों तरफ भरी हुई भीड़ को देखकर? यह आता होगा होगा उसके दिमाग में कि अब से देवी न रहने तक के तमाम सालों में उसके पाँव जमीन पर नहीं पड़ेंगे? वह हंस न सकेगी? 

यह भी कि एक नेवाड़ी, मतलब बौद्ध, लड़की हिन्दू देवी कैसे बन जाती है? कल तक हिन्दू राष्ट्र रहे नेपाल का विष्णु अवतार माना जाने वाला राजा उसके पांवों में सर क्यों झुकाता होगा? और झुकाता ही है तो फिर उस देवी का नेवाड़ी पुजारी भी क्यों होता है? पर सबसे दिलचस्प सवाल यह आता था कि माओवादियों ने सत्ता में आने के बाद यह प्रथा खत्म करने की जगह चालू क्यों कर रखी है? अपने कुमारी घर के लगभग सामने पंहुच चली कुमारी देवी को देख कर चेहरे पर मुस्कान खिल आई थी. 2008 में तीन साल की उम्र में इस देवी मतीना शाक्या को माओवादियों ने ही ही पदारूढ़ किया था. माओवादियों द्वारा स्थापित की गयी देवी, इस बार मैं खिलखिला के हंस ही पड़ा था। 

Comments