आज़ादी, इंक़लाब और लोकतंत्र के बीच पाकिस्तान

[पत्रकार प्रैक्सिस में प्रकाशित]
कुल्हाड़ियाँ और डंडे लेकर प्रधानमंत्री निवास की तरफ बढ़ते हजारों लोग, कंटेनर को अस्थायी मंच बना कर बाकी समर्थकों के साथ बैठा हुआ एक नेता किसी भी देश के लिए अपने आप में भयावह दुस्वप्न है. फिर इस आज़ादी जुलूस के बरक्स इन्कलाब जुलूस के नाम पर उसी राजधानी में कहीं पाकिस्तान को सुधार की हद से बाहर चला गया बताते हुए अपने हजारों समर्थकों के साथ बैठ कर एक इस्लामिक गणतंत्र में इस्लामिक राज्य लाने की मांग कर रहा मौलवी जोड़ दें. साफ़ दिखेगा कि पाकिस्तान अपने आंतरिक संकट के चरम पर खड़ा हुआ है. इस संकट की पहली विडम्बना इसी में है कि वहाबी इस्लाम के हमले झेल रहे पाकिस्तान में मौलाना ताहिर उल कादरी सूफी इस्लाम के करीब माने जाते हैं, तालिबान के मुखर आलोचक रहे हैं. ठीक उलटे, अभी सत्ताधारी पाकिस्तान मुस्लिम लीग (नवाज़) उदार लोकतान्त्रिक पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के बरक्स दक्षिणपंथी इस्लामिक राजनीति ही करती रही है.

दूसरी विडम्बना यह कि यह उस पाकिस्तान में हो रहा है जिसने पिछले ही साल अपने इतिहास में पहली बार नागरिक सरकार से नागरिक सरकार में सत्ता परिवर्तन देखा था और पहली बार सेना को नागरिक मामलों से पीछे धकेलने की कोशिश की थी. तीसरी विडम्बना यह कि समाज के लोक्तान्त्रिकरण की वह कोशिश इमरान खान के नेतृत्व वाली पाकिस्तान तहरीक ए इन्साफ के बेहद अलोकतांत्रिक और प्रतिगामी आज़ादी जुलूस में ही प्रतिबिम्बित हो रही है. नफरत और स्त्रीद्वेष की राजनीति करने वाले धार्मिक कट्टरपंथियों के बीच हजारों महिलाओं की उपस्थिति इस पूरे संकट की इकलौती आश्वस्तिकारी बात है.
खैर, इस दोतरफा हमले को ध्यान से देखें तो कई चीजें साफ़ होती हैं. पहली यह कि वढेरों, या जमींदारों के वर्गीय हितों की संरक्षक पाकिस्तान मुस्लिम लीग (नवाज़) समाज के बुनियादी गतिरोधों को हल करने में असफल तो रही ही है, इसने उन्हें बढ़ाया भी है. ज्यादातर कनाडा में रहने वाले कादरी की जून 2014 में पाकिस्तान वापसी के समय उनकी पार्टी पाकिस्तानी अवामी तहरीक के कार्यकर्ताओं पर पंजाब में पुलिसिया गोलीबारी के पहले कादरी की पाकिस्तानी राजनीति में कोई बड़ी हैसियत नहीं थी. बची खुची कसर नवाज़ शरीफ सरकार ने उनके विमान को इस्लामाबाद में उतरने की अनुमति न देकर पूरी कर दी. विमान अपहरण के दावे को छोड़ दें तो सरकार की इस बेवकूफाना हरकत ने उसका डर ही नहीं जाहिर किया बल्कि राजनीति की परिधि पर बैठे कादरी को रातोंरात मुख्यधारा का नायक बना दिया.
फिर कादरी के इस्लामिक राज्य का प्रतिदर्श जनता के एक बड़े हिस्से को लुभाता भी है. वह इस्लामिक राज्य को मुस्लिम बहुसंख्या वाले ऐसी राजनैतिक इकाई के बतौर देखते हैं जो स्वतंत्रता, विधि के शासन, धार्मिक आजादी सहित वैश्विक मानावाधिकार, सामाजिक भलाई, स्त्री अधिकार और अल्पसंख्यक अधिकारों पर टिका होता है. कहना न होगा कि ऐसा इस्लामिक राज्य आज की दुनिया के तमाम धर्मनिरपेक्ष राज्यों से बेहतर ही प्रतीत होता है. फिर लगातार हिंसा और अस्थायित्व झेल रहे पाकिस्तान में अवाम के एक बड़े हिस्से को यह सपना आकर्षित ही करेगा.
बेशक इसके बाद कादरी को लेकर तमाम सवाल भी उठते हैं. जैसे कि यह कि पूरे पाकिस्तान को अपने पोस्टर और बैनरों से पाट देने वाले कादरी के धन का स्रोत क्या है, इलेक्ट्रॉनिक और प्रिंट दोनों मीडिया में उनके विज्ञापन कौन प्रायोजित करता है और उनके पाकिस्तानी फौज से क्या रिश्ते हैं. एक गम्भीर सवाल यह भी है कि तालिबान के मुखर विरोधी कादरी मोटे तौर पर तालिबान समर्थक और तालिबानी दहशतगर्दों को शहीद बताने वाले इमरान खान के साथ सुविधा के गठजोड़ में कैसे शामिल हो सकते हैं. पर यह सभी सवाल एक राजनैतिक संवाद की मांग करते हैं न कि उस हठी हिंसा की जो पहले प्रधानमन्त्री के भाई शाहबाज शरीफ के नेतृत्व वाली पंजाब सरकार ने दिखाई और अब खुद केन्द्रीय सरकार दिखा रही है.
अब इस हमले के दूसरे पक्ष इमरान खान के नेतृत्व वाली पाकिस्तान तहरीक ए इन्साफ को देखें. अपनी घोषित विचारधारा में इस्लामिक गणतंत्र की समर्थक यह पार्टी मूल रूप में भयानक दक्षिणपंथी और अवसरवादी समूह है. जाहिरा तौर पर तालिबान के खिलाफ कभी कभी बयान देते रहने के बावजूद फिर चाहे ड्रोन हमलों का मामला हो या सैकड़ों पाकिस्तानी सैनिकों की तालिबान द्वारा हत्या का टीटीपी की राजनैतिक अवास्थितियाँ तालिबान के समर्थन में ही जाती रही हैं.
आम चुनावों के समय पीपीपी पर लगातार हो रहे हमलों के बीच इस दल पर कोई तालिबानी हमला न होना इनके अंदर की समझ को प्रतिबिम्बित करता है. वहीँ मुख्यधारा के अन्य सभी दलों के विपरीत तहरीक ए इन्साफ फौज के साथ भी करीबी रिश्ते रखती है. पार्टी का दावा है कि जून 2013 में हुए चुनाव में भारी धांधली हुई थी इसलिए नवाज़ शरीफ सरकार इस्तीफ़ा दे और फिर से चुनाव हों.
इस दोतरफा हमले में फौज की शांत लेकिन असंदिग्ध उपस्थिति जोड़ दें तो सरकार का बच निकलना मुश्किल ही लगता है. वैसे तो अमेरिकी मदद पर टिकी पाकिस्तानी अर्थव्यवस्था के मद्देनजर फौज सीधा तख्तापलट करने की स्थिति में नहीं हैं, लेकिन सेनाध्यक्ष जनरल राहील शरीफ ने इमरान खान और कादरी से मुलाक़ात और मध्यस्थता के प्रस्ताव से अपनी पक्षधरता जाहिर कर दी है. यह होना भी था क्योंकि 1999 में जनरल परवेज़ मुशर्रफ द्वारा तख्तापलट में अपदस्थ किये गए नवाज शरीफ और सेना में लगातार टकराव ही रहा है. मुशर्रफ पर देशद्रोह का मुकदमा चलाने और सैनिकों की हत्या के बावजूद तालिबान पर कड़ी कार्यवाही की सेना की मांग के विरोध में खड़े प्रधानमंत्री से सेना पहले ही नाराज थी. बाद में जियो न्यूज़ के पत्रकार हामिद मीर पर जानलेवा हमले के बाद सेना पर लगे साजिश के आरोपों के बीच शरीफ के मीर और जियो न्यूज़ का साथ देने से यह टकराव और बढ़ा.
सेना अन्दर से शरीफ की बर्खास्तगी ही चाहती है और यह प्रधानमन्त्री आवास की तरफ हथियारबंद जुलूस से साफ़ होता है, ऐसी दुस्साहसिक कार्यवाहियां बिना किसी ठोस आश्वासन के नहीं की जा सकतीं. जनरल शरीफ की मध्यस्थता के प्रस्ताव पर ‘सौदा’ हो जाने की अफवाहों और अटकलबाजियों के बीच नवाज़ शरीफ ने सरकार द्वारा सेना से ऐसा कोई आग्रह न किये गये होने की बात सार्वजनिक कर इस टकराव को बहस में भी ला दिया है.
बेशक तालिबान के पेशावर के आर्मी स्कूल पर किये गए वहशियाना हमले के बाद आम अवाम के गुस्से ने फिलवक्त इमरान खान और कादरी समर्थकों को पीछे हटने पर मजबूर कर दिया है पर फिर सेना के ऊपर से तटस्थ दिखने की कोशिशों के बीच हालात काबू से बाहर होते जा रहे हैं. पंजाब पुलिस द्वारा कादरी समर्थकों के ‘मॉडल टाउन नरसंहार’ में नवाज़ शरीफ और शाहबाज शरीफ दोनों को हत्या आरोपी बना कर आन्दोलन को शांत करने की हालिया कोशिश के भी असफल हो जाने के बाद नवाज़ शरीफ सरकार पर संकट गहराया ही है.
सो सवाल उठता है कि इस संकट के असली मायने क्या हैं? पाकिस्तान विशेषज्ञ आयेशा सिद्दीका ने कहा था कि नवाज़ शरीफ अगर इस हमले से बच भी गए तो अपने बाकी के कार्यकाल में वह बस रस्मी प्रधानमंत्री बन कर रह जायेंगे. पर उनकी असली चिंता कहीं बड़ी है. वह मानती हैं कि इस हमले ने बीते 8 सालों में लोकतंत्र मजबूत करने की तमाम कोशिशों को धक्का ही नहीं पंहुचाया है बल्कि मुल्क को वापस वहीँ ला खड़ा किया है.  फिर क्या यह पाकिस्तान में जम्हूरियत कायम करने के एक और प्रयास की हार है?

शायद नहीं, क्योंकि संकट की इस घडी में विपक्षी पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी अपने तमाम मतभेद भुला कर पूरी ताकत से सरकार के साथ खड़ी हुई है. जरूरत है कि नवाज़ शरीफ सरकार लोकतंत्र समर्थक बाकी सारी पार्टियों को भी विश्वास में लेकर सेना का एक मजबूत और लोकतान्त्रिक प्रतिपक्ष खड़ा करे. जरूरत इस बात की भी है कि सरकार उन तमाम अटकलों को दृढ़ता से खारिज करे जिनमे ‘समस्या’ के समाधान के लिए सौदेबाजियों का जिक्र है. कहा जा रहा है कि सेना नवाज़ शरीफ सरकार द्वारा भारत से रिश्ते सुधारने के प्रयासों से भी नाराज है और चाहती है कि यह प्रक्रिया तुरंत बंद हो. इस संकट के बीच भारत पाक सीमा पर पाकिस्तानी सेना द्वारा संधिविराम के लगातार उल्लंघन इसकी तरफ साफ़ इशारा भी करते हैं. पाकिस्तान को समझने वाले हलकों में यह खबरें भी है कि सेना नवाज़ शरीफ सरकार की मदद करने को तैयार है बशर्ते वह महत्वपूर्ण राष्ट्रीय मुद्दे, खासतौर पर भारत और पाकिस्तान के प्रति रक्षा नीति, को फौज के लिए छोड़ दें.  सेना की एक मांग यह भी है कि नवाज़ शरीफ भारतीय सैनिक पोस्टों पर पाकिस्तानी गोलीबारी में जांच न करने का वादा करे.
पर शायद हाँ भी, क्योंकि पेशावर हमले से उठे गुस्से से निपटने के लिए नवाज शरीफ सरकार ने इस्लामिस्ट दलों को छोड़कर और सभी दलों के समर्थन के साथ आतंकवाद के खिलाफ सैन्य अदालतों के गठन की मंजूरी दे दी है. गौरतलब है कि पाकिस्तान ने आखिरी बार सैन्य अदालतों को जनरल जिया उल-हक के जमाने ने देखा था और उसके बाद 9 साल के अपने शासन में भी जनरल परवेज मुशर्रफ ने ऐसी कोई कोशिश नहीं की थी.
नवाज़ शरीफ सरकार को ही नहीं बल्कि पाकिस्तान में लोकतंत्र समर्थक पूरे तबके को समझना होगा कि इस तरह की सौदेबाजियाँ लोकतंत्र के लिए स्थायी खतरा होतीं है. वैसे भी शरीफ सरकार के पास संसद में पूर्ण बहुमत ही नहीं है बल्कि मुख्य विपक्षी दल उनके साथ है. फिर दुनिया मानती है कि चुनावों में धांधली के आरोप झूठे हैं, वैसे भी पिछले चुनाव पीपीपी सरकार के दौर में अंतर्राष्ट्रीय पर्यवेक्षकों की उपस्थिति में हुए थे. तमाम साजिशों के बावजूद सेना भी जानती है कि वह कोई तख्तापलट नहीं कर सकती. उसकी ऐसी कोई कोशिश पाकिस्तान को मिलने वाली अमेरिकी मदद रोक देगी और उस मदद के बिना पाकिस्तान ही नहीं बल्कि सेना भी एक दिन नहीं चल सकती.


सो ऐसे हालात में पाकिस्तान सरकार को संसद की संप्रभुता को चुनौती देने वाले, लोकतंत्र को नुकसान पंहुचाने वाले आंदोलनों से सख्ती से निपटने के साथ साथ सेना की साजिशों से भी लड़ते रहना होगा. यही पाकिस्तान ही नहीं बल्कि पूरे दक्षिण एशिया के हक में है.

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