दोस्ती और प्रतिद्वंदिता के बीच भारत और चीन

[प्रभात खबर में भारत और चीन में हो रहे बदलाव शीर्षक से15-05-2015 को प्रकाशित] 
कूटनीतिक संबंधों में ज्यादा मिठास सिर्फ दो वजहों से दिखती है. पहली यह कि दोनों देश सच में बहुत करीबी ही नहीं, एक दूसरे पर निर्भर भी हों जैसे इजरायल और संयुक्त राज्य अमेरिका हैं, फिर भले ही एक की निर्भरता आर्थिक हो और दूसरे की राजनैतिक. मिठास का दूसरा कारण सिर्फ और सिर्फ गहरा अविश्वास और युद्ध से लेकर तनाव तक का इतिहास ही होता है.
प्रधानमंत्री मोदी की चीन यात्रा के पहले दोनों तरफ से दिखाई गयी ऊष्मा बेशक पहली नहीं बल्कि दूसरी ही वजह से है. और वजह दूसरी हो तो ऊष्मा ज्यादा दिखानी भी पड़ती है. ठीक वैसे, जैसे चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग की भारत यात्रा के बीच चीनी सैनिकों के भारतीय क्षेत्र में अतिक्रमण का जवाब नदी किनारे झूला झेलने की प्रतीकात्मकता से ही दिया जा सकता है. 
पर फिर इन तनावों का स्त्रोत न सिर्फ सीमा विवाद या चीन के पाकिस्तान को समर्थन में है (भले ही उस समर्थन के भूराजनैतिक कारण सीमाविवाद ही नहीं चीन और भारत की ऐतिहासिक प्रतिद्वंदिता में भी छुपे हुए हैं) न ही प्रधानमंत्री मोदी के विवादित व्यक्तित्व में. इसके ठीक उलट याद करिए तो प्रधानमंत्री नेहरु के दौर में दोस्ताना संबंधों के बीच सीधे युद्ध के बरक्स गुजरात को लेकर लगभग वैश्विक वीजा बहिष्कार के दौर में चीन मोदी का स्वागत करने वाले पहले देशों में से था और अमेरिका द्वारा 2005 में वीजा न दिए जाने के बात मोदी की पहली 5 दिवसीय विदेश यात्रा चीन की ही थी. 
सीमा विवाद से लेकर एशिया से लेकर विश्वस्तर तक प्रभुत्व की लड़ाई में खोजे जा सकने वाले तनाव के इन स्त्रोतों में एक महत्वपूर्ण हिस्सा अक्सर छूट जाता है. वह हिस्सा है वैश्विक उत्पादन और सेवाओं, दोनों का केंद्र बनने की वह लड़ाई जिस पर इन दोनों देशों का अपना विकास और भविष्य टिका हुआ है. भूराजनैतिक कारणों और इतिहास के अपने दबावों के बीच अब तक इस संघर्ष में एक संतुलन बनता नजर आ रहा था. भारत में कपड़ा उद्योग से लेकर जूट तक के बंद होते कारखानों के बीच चीन उत्पादन का केंद्र बनकर उभरा था तो वहीँ सेवाओं की ‘आउटसौर्सिंग’ का हिस्सा भारत के हाथ आया था. 
इसके कारण भी बहुत साफ़ थे. एक तरफ चीन में सर्वाधिकारसंपन्न कम्युनिस्ट पार्टी के शासन, देश भर में एक ही सांगठनिक और आधारभूत ढांचा, लगभग एक संस्कृति और तेज सामाजिक आर्थिक सुधारों (चीन की लगभग आबादी शिक्षित और स्वास्थ्य सुविधाओं से सुरक्षित है) ने सस्ता श्रम उपलब्ध कराने में बड़ी भूमिका निभाई थी. दूसरी तरफ कन्फ्यूशियन सिद्धांतों में छुआछूत रहित सामाजिक श्रेणीबद्धता के पालन और वफादारी पर जोर ने इस श्रम के सत्ता से टकराव की संभावनाएं कम की थीं. 
आज भी चीनी दफ्तरों में उच्च अधिकारियों का सम्मान, उनसे गरिमामयी दूरी, असहमति के बावजूद आदेशों के पालन के साथ नियमानुसार पूरे समय काम करना आदि व्यवहार का मूलमंत्र माने ही नहीं बल्कि बरते भी जाते हैं. आर्थिक दृष्टि से इस शानदार आधार में चीनी कम्युनिस्ट पार्टी का गांवों तक पसरा संजाल, 70 के दशक के बाद पार्टी की कड़ी निगहबानी में अर्थव्यवस्था का खुलना और श्रम कानूनों को बिलकुल शिथिल कर विशेष औद्योगिक क्षेत्रों के निर्माण के साथ चीन के गांवों से शहरों की तरफ हुआ प्रवास जोड़िये और चीन की आर्थिक प्रगति की कहानी सामने है. 
पर फिर इस कहानी में दो पेंच थे. पहला चीन में लगभग तानाशाही वाली शासन पद्धति से पैदा होने वाला भ्रष्टाचार और तीसरा अंग्रेजी भाषा की लगभग अनुपस्थिति. इन दोनों के साथ एक बच्चे के नियम के कठोर अनुपालन से बूढी हो रही उम्र जुड़ने से चीन के वैश्विक उत्पादन पर प्रभुत्व को चुनौती मिलनी लाजमी थी पर उसके मिलने के पहले ही चीन ने खुद को सुधारना शुरू कर दिया. हांगकांग रहते हुए चीन की तमाम यात्राओं में वहाँ अंग्रेजी पढ़ा रहे अमेरिकी और ब्रिटिश युवाओं से मिलने ने चौंकाया तो ढूँढने पर पता लगा कि बीते दशक में ऐसे दसियों हजार युवा चीन पहुंचे हैं. साफ़ है कि चीन में अंग्रेजी भाषा की बढ़ती पैठ भारत के बीपीओ आधारित सेवाक्षेत्र के लिए बहुत कड़ी चुनौती खड़ी करने वाला है.  
दूसरी तरफ भ्रष्टाचारी शीर्ष नेतृत्व तक पर चीनी सरकार की कड़ी कार्यवाहियों की खबर हम तक पहुँच ही रही है. वरिष्ठ राजनेता बो शिलाई से लेकर चीनी सेना के पूर्व उपप्रमुख तक की बर्खास्तगी और सजा के बरक्स भारत को देखें तो इस दिशा में भी संकेत बिलकुल साफ़ है. 
दूसरे शब्दों में कहें तो यह चीन और भारत के बीच आर्थिक प्रतिद्वंदिता ही नहीं बल्कि सामाजिक और राजनैतिक संस्कृति का भी संघर्ष है. भ्रष्टाचार को लगभग भाग्यवादी ढंग से स्वीकार कर चुके भारतीय मानस, अनुमानित से कई गुना ज्यादा समय में पूरी होने वाली परियोजनाएं, महानगरों से बाहर निकलते ही सड़क और बिजली तक गायब हो जाने वाले आधारभूत ढाँचे को छोड़ ही दें. मानव विकास सूचकांकों पर लगातार बेहतर हो रही चीनी आबादी के सामने 42 प्रतिशत से ज्यादा कुपोषित बच्चों वाले भारत में किसी किस्म की प्रतिद्वंदिता का परिणाम एक ही दिशा में जाता हुआ दिखता है. 

हाँ, एक बात में भारत बेशक बहुत आगे भी है और सुरक्षित भी. यह कि लोकतंत्र की बहुत गहरी जड़ें उसे ऐसे किसी तूफ़ान से बचाए रखेंगी जो चीन को कभी भी तबाह कर सकता है. 1989  में तियेनआनमन स्क्वायर पर फूटे गुस्से के बाद चीन ने प्रतिरोध पर काबू तो कर रखा है पर कितना, यह कोई नहीं जानता. 

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