भूकंप के बाद नेपाल

[दैनिक जागरण में अपने पाक्षिक स्तंभ 'परदेस से' में २३-०५-२०१५ को प्रकाशित]

25 अप्रैल की वह दोपहर नेपाल में आये भूकंप की खबर मिलने तक सप्ताहांत की आम दोपहरों जैसी ही थी. देर से उठ किसी पहाड़ पर चढ़ने निकल जाने के बाद घर लौट सुस्ताते हुए टीवी देखने वाली वैसी दोपहर जो पागलों की तरह भागने वाले इस शहर में मुश्किल से ही नसीब होती है. और फिर फोन बजने शुरू हो गए थे. तबाही की कोई खबर परेशान करती है पर फिर ऐसी जिसमें आपके तमाम करीबियों के फंसने की संभावना हो उससे बुरी कोई तबाही नहीं हो सकती.

भूकंप की जद में पड़ने वाले पूर्वी उत्तर प्रदेश में मौजूद परिवार की खबर लेने के बाद दिमाग नेपाल में मौजूद दोस्तों की तरफ जाये उसके पहले रीढ़ की हड्डी में ठंडी सिहरन उतरने लगी थी. टीवी पर दिख रहे दृश्यों से बहुत ज्यादा भयावह थे नेपाल भर में फैले दोस्तों से संपर्क स्थापित न हो पाना था. काठमांडू, पोखरा, मुगू, बागलुंग, गमगढ़ी, नेपालगंज, भैरहवा- कहीं किसी से संपर्क स्थापित हो सके बस.

फिर पहले फोन लगना शुरू होने के बाद मन को दिलासा मिला था, ऐसी त्रासदी में भी मनुष्य अंततः स्वार्थी ही होता है. अपने परिचितों के सुरक्षित होने की आती खबरों के साथ चीजें कुछ बेहतर लगने लगती हैं. त्रासदी का फैलाव जानना भयावह था, बस राहत भरी बात सिर्फ यह थी कि नेपाल के संचार माध्यमों ने खुद को संभाल लिया था. यह बहुत बड़ी बात थी क्योंकि सरकार के लगभग गायब हो जाने के असर वाले भूकंप में लोगों के पास अपनों की खबर लेने का यही एक जरिया बचा था.

अब तक काठमांडू में अपनी सबसे प्रिय जगहों में से एक कुमारीघर के सामने भक्तपुर दरबार के लगभग पूरी तरह से ध्वस्त हो जाने की खबर मिल चुकी थी. ज्यादातर मंदिरों के गिर जाने के बाद कुमारीघर ही इकलौती जगह थी जिसपर कोई दरार तक नहीं आई थी. उस तनाव के बावजूद चेहरे पर एक मुस्कराहट खिल आई थी. यूँ ही कुमारी की प्रतिष्ठा कहाँ कम थी जो उनके साथ एक यह चमत्कार भी जुड़ गया. शाम होते न होते यह खबर चलने भी लगी थी- कुमारीघर को कोई नुकसान नहीं पहुँचने के साथ उसमे जुड़ गयी और भी बातों के साथ- भूकंप के समय कुमारी के अपने सामने मौजूद भक्तों को उन्हें कुछ न होने का दिलासा देने की खबरें, उनके दैवीय प्रताप की खबरें.

पर शायद यह मानवमन का सहज भाव है. तबाहियों के बीच कोई भी दिलासा मिलना सुकून देता है सो लोगों ने गला सुकून छिटपुट दरारों के सिवा पशुपतिनाथ मंदिर को भी कोई नुकसान न होने में ढूंढ लिया था. पर फिर बाकी जगहों का क्या? उस धरहरा टावर का जिसमें चढ़ कर काठमांडू वादी देखना नेपालियों को बहुत पसंद था. हाँ, मूलतः विदेशी सैलानियों की आमद पर टिके काठमांडू में यह एक अजीब जगह थी जिसमें हमेशा नेपाली ही ज्यादा होते थे. कुछ विदेशी होते भी थे तो हम जैसे जिनका विदेशी होना नेपाल में पता भी नहीं चलता.

उस थमेल का जो ‘हरे रामा हरे कृष्णा’ गाने के साथ भारतीय स्मृतियों में पैबस्त हो गया था. फोन के दूसरे सिरे पर मौजूद दोस्त थमेल में ढह गयी इमारतों के बारे में बता रहा था और मेरा मन वहीँ पहुँच गया था... उन इमारतों को अब कभी न देख पाने के दर्द के साथ जो कभी मील पत्थर हुआ करती थीं. ““न्यू रोड’ के लिए जिस जनरल स्टोर के सामने वाली सड़क से मुड़ते थे याद है हुजूर?” उधर से दोस्त ने पूछा था और यहाँ आँखें डबडबा आई थीं. “जाने दो यार, न बताओ’ मैं बस इतना ही कह सका था.

सच में कहाँ पता चलता है कि कब और कैसे कोई शहर आपके होने में शामिल हो जाता है. मुझे ही कहाँ पता चला कि काठमांडू कब और कैसे इंसानी रिश्तों के ऊपर अपनी इमारतों, सड़को और धरोहरों के साथ दोस्त बन गया था. वह काठमांडू जो अब कभी नहीं दिखेगा. वो भी जिसमें छाबिल से भक्तपुर के लिए स्कूटी घुमाते हुए सिहरन होगी- वैसी सिहरन जो अपने चेहरे पर जिंदगी भर का घाव दे सकने वाले किसी हादसे की कल्पना भर से हो जाती है.

जो काठमांडू मैंने देखा है, जिया है वो अब शायद कभी नहीं देख पाऊंगा. हाँ, यह यकीन जरुर है कि काठमांडू ही नहीं पूरा नेपाल फिर से उठ खड़ा होगा. आखिर यह उनका देश है जिनके बारे में कहा जाता है कि मौत से न डरने की बात करने वाला या तो झूठा होगा या गोरखा.

Comments

  1. सच में कहाँ पता चलता है कि कब और कैसे कोई शहर आपके होने में शामिल हो जाता है.....बहुत खूब😊

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