कोयले के अंगारों से

[दैनिक जागरण में अपने पाक्षिक कॉलम 'परदेस से' में कार्यकर्ताओं का अड्डा शीर्षक से 27-06-2015 को प्रकाशित] 


होटल गोल्डियाना। हाँ, एयरपोर्ट से निकल अपना यही ठिकाना था. पहुँचे तो समझ आया कि यह होटल सामाजिक कार्यकर्ताओं का अड्डा है, ठीक वैसे जैसे काठमांडू का होटल ग्रीनविच है! कमाल है ये दुनिया भी, आदमियों को छोड़िये, होटल भी 'स्पेस्लिस्ट' हो जाते हैं. खैर, पहुँचे तो वजह भी समझ आई- दुनिया भर में बाल यौन उत्पीड़न का गढ़ बन गए कंबोडिया की राजधानी नाम पेन में हर तीसरी बड़ी इमारत में 'मसाज पार्लर' का बोर्ड टंगा नजर आता है, यहाँ नहीं था. कंबोडिया के तमाम होटलों में आज भी 'राइफल फायरिंग' के बोर्ड टंगे मिलते हैं- गाय/सूअर मारने से लेकर खाली हवा में कार्बाइन ख़त्म कर देने तक के बोर्ड, यहाँ नहीं थे.

यहाँ जो था वो दिलचस्प था. तमाम भारतीय/पाकिस्तानी रेस्टोरेंट जिनकी 'कोयले के अंगारों से' शुरू होकर 'सब्ज खेतों तक' जाने वाले मेन्यू शानदार लगे. इस लिए भी कि जमाने से दक्षिण पूर्व एशिया में फँसे मुझ शाकाहारी को पता है कि यहाँ जिन्दा भर रहने के लिए खाना कितना मुश्किल है, स्वाद तो खैर भूल ही जाइए। दूसरी जिस चीज ने ध्यान खींचा वह थे गैर सरकारी संगठनों के बोर्ड, यह भी अजब ही है कि दुनिया में मानवीय या प्राकृतिक किसी भी आपदा के शिकार देश में गैर सरकारी संगठन खूब नजर आते हैं. न, इसमें कुछ बुरा नहीं है, पर मूलतः उनसे निपटना, नागरिकों को राहत पहुँचाना तो सरकारों का काम है न? और आखिर में जिस चीज ने चौंकाया वह यह कि होटल के टीवी में स्टार प्लस से लेकर ज़ी तक तमाम भारतीय चैनल भी आ रहे थे. क्यों, इन्हें कौन देखता है कंबोडिया में यह पता लगाने की कोशिश तो की मगर सफल नहीं हुआ.

और सबसे बड़ी बात थी होटल से लेकर सड़क तक लोगों का एक दूसरे को पूरी भारतीय शैली में हाथ जोड़कर फिर कमर तक झुक कर नमस्कार करना। कंबोडिया से हिन्दू प्रभाव जमाने पहले चले गए थे, यह जाने कैसे छूट गया. हाँ, जैसे भी छूट गया हो, मुझे बहुत अच्छा, अपने जैसा लगा. पर फिर, अभी कंबोडिया की असली यात्रा शुरू कहाँ हुई थी. वह यात्रा जिसमें चार सालों के हाहाकारी अनुभव थे, सूख गयी आँखें थीं, ठहर गया दुःख था. वह दुःख जो अभी की मुस्कुराहटों में दिखता नहीं, मगर ठहरा रहता है. पता था कि तुओल स्वे प्राय स्कूल जिसे खमेर रोज सरकार ने भयानक यातनाओं वाली जेल में बदल दिया था ज्यादा दूर नहीं था. वह जेल जिसमें उन चार सालों में 6000 से  ज्यादा लोग कैद कर मारे गए- वह लोग जिनमें से ज्यादातर खमेर रूज के ही वह सदस्य थे जिन्हें पोल पॉट के खिलाफ जाने की आशंका में गिरफ्तार कर लिया गया था. शाम को मिलने आये एक कंबोडियन दोस्त से पूछा तो उन्होंने सिर्फ यह कहा कि क्रांतियाँ न जाने कब और कैसे अपने ही खिलाफ चली जाती हैं, अपनों के ही क़त्ल पर उतर आती हैं. 

और फिर किलिंग फील्ड्स, वह जगह जो इंकलाब की आस लिए हर दिल में फांस सी गड़ती है, (हत्याओं वाले खेत) भी कहाँ दूर थे. बहुत सुना था इन खेतों के बारे में जहाँ किसी व्यक्ति पर शक होने पर उसके पूरे परिवार को लाकर मार दिया जाता था क्योंकि खमेर रूज मानता था कि 'साँप के परिवार में सँपोले ही पनपेंगे'. वह जगह जिसमें 40 गुणे 40 फ़ीट की कब्रों में 400 लोगों को जिन्दा दफना दिया जाता था क्योंकि खमेर रूज मानता था कि उनपर गोलियां बरबाद करना फिजूलखर्ची है. सच कहूँ तो कंबोडिया की यात्रा जिंदगी की सबसे कठिन यात्राओं में से एक थी. एक अंतर्यात्रा जो वामपंथ पर अपने यकीन को चुनौती दे रही थी, बता रही थी कि कोई भी विचारधारा अपनी अति पर जाकर क्या कर सकती है. पर फिर यह यात्रा एक अनुभव भी थी क्योंकि बावजूद इस तथ्य के कि उन्होंने भी जनता का कोई ख़ास भला नहीं किया यहाँ वामपंथियों के बाद वामपंथी ही लौटे थे.

उस रोज की शाम उतर आई थी और दक्षिण पूर्व एशिया में पहली बार यह चिंता नहीं थी कि आज खाऊंगा क्या- कोयले के अंगार मुझे बुला रहे थे.

Comments

  1. आज खाऊंगा क्या- कोयले के अंगार मुझे बुला रहे थे.:)

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