धर्म और पंथ में अंतर

बहुत बड़ा अंतर है. यह कि रिलिजन वाले अर्थ में संस्कृत/हिन्दी में कोई शब्द ही नहीं है. यहाँ धर्म का अर्थ है 'या धारयति इति धर्मः'- अर्थात जो धारण किया जाय वह धर्म है। उदाहरण लें तो आग का धर्म हो जायेगा जलाना और बिच्छू का डंक मारना। 

पंथ इससे अलग है- आचरण का codified यानी कि संहिताबद्ध रूप है. धर्म वाले सन्दर्भों में कहें तो पूजापाठ, सम्पत्ति अंतरण, जन्म से मृत्यु तक के संस्कार वाला रूप. ऊपर वाला उदाहरण लें तो बिच्छुओं का कोई समूह अगर तय कर ले कि अब रास्ते में पड़ जाने पर ही डंक नहीं मारना है- दौड़ा के डंक मारना है तब वह पंथ हो जाएगा। 

उन अर्थों में भारत में कभी कोई धर्म (हकीकतन पंथ) रहा ही नहीं। अंग्रेजों के आने तक तो क्षेत्रीय ही नहीं (जैसे तमिल और काश्मीरी) एक ही क्षेत्र के हिन्दुओं में इतने फर्क थे कि वह एक मोटीमोटी जीवनशैली तो था पर धर्म नहीं था. बस एक उदाहरण लें तो अंग्रेज न आये होते तो (तथाकथित) पिछड़ी जातियों में स्त्रियों को पति के जिन्दा रहते भी पुनर्विवाह का अधिकार था जबकि (तथाकथित) उच्च वर्णीय जातियों में पति के मर जाने पर भी काशी के अलावा बस चिता का ही रास्ता था.

(आप भक्त हों और इस बात पर ज्यादा मिर्ची लगे तो) बॉम्बे उच्च न्यायालय का हिन्दुत्व धर्म नहीं जीवनशैली है वाला फैसला देखें। जिस नुक्ते पर वह फैसला आया वह नुक्ता दिक्कततलब जरूर है पर फैसला कमाल है. पढियेगा एक बार. 

सो साहिबान हुआ यह कि अंग्रेज बहादुर ये बात समझ नहीं पाये और धीरे धीरे अपने पंथ को भारत का धर्म बनाते गए, और फिर वह धर्म तो ब्राह्मणों वाला ही पंथ होना था- एक तरफ के ही नहीं, मुसलमानों वाले ब्राह्मणों का भी. (अंग्रेजों के ज़माने में सभी उच्च न्यायालयों में धार्मिक मामलों में जज की मदद करने को धर्म विशेषज्ञ नियुक्त किये जाते थे और क्या यह कहने की जरुरत है कि वह पंडित/मौलवी ही होते थे- मने जाति पंचायतों के अपने नियमों को खारिज कर ऊपर वालों के पंथ को अंग्रेजों ने धर्म बना दिया। (देखें जानकी नायर, वीमेन एंड लॉ इन कोलोनियल इंडिया, ऑक्सफ़ोर्ड, 1996). 

बाकी उन्होंने ये साजिशन नहीं किया। दलित/पिछड़े समुदाय के प्रति अपनी सनातन असहिष्णुता (स्त्रियों के प्रति तो दुनिया भर के धर्मों की थी ही) को छोड़ सनातनियों को कुछ भी एक नहीं करता था, नहीं करता है. पर यह बेचारे अंग्रेजों को कहाँ मालूम जो भारी संहिताबद्ध धर्म से आये थे. सो उन्होंने अपने लिए सहज अनुवाद कर दिया- रिलिजन माने धर्म। 

हकीकत में वह है नहीं। उनका रिलिजन माने अपना पंथ. और हाँ- इसमें आरएसएस उर्फ़ संघ कबीले की बाजीगरी कि अपना धर्म सनातन- उसके पंथ हिन्दू, बौद्ध, सिख, जैन सब शामिल नहीं है. क्या है कि सनातन भी कोई धर्म नहीं है. यह शब्द भी आर्य समाजियों का दिया हुआ है- (चाहें तो इसमें खुश हो लें कि अरबों के दिए हिन्दू से ज्यादा स्थानीय है) माने 1875 के बाद का. बाकी पंथनिरपेक्ष उर्फ़ सेकुलर शब्द से जो मुराद है वह साफ़ है- धर्म यानी निजी/सामुदायिक आस्थाओं का सार्वजनिक जीवन में कोई दखल न होना। 

[सवालों का, विमर्श का स्वागत है. Semantics, Epistemology और Ontology यानी शब्दार्थ विज्ञानं, ज्ञानमीमाँसा और सत्य मीमाँसा तीनों के स्तर पर. आस्था आहत हो गयी हो तो किसी और से संपर्क करें।]

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