हम हिन्दुस्तानी बोले हैं, तुम उर्दू हिन्दी सुने हो.


[उर्दू पर एक और पुराना लेख यहाँ देखें ]  

तमाम हिन्दी वाले इतनी अच्छी उर्दू कैसे लिख लेते हैं? और 'उर्दू' वाले हिन्दी? दोस्त Meenu के इस सवाल में ही उन तमाम जवाबों के रास्ते खुलते हैं जो उर्दू हिन्दी का बँटवारा कर कचहरियों को गुलज़ार किये बैठे भाइयों को उनकी माँ हिन्दुस्तानी तक ले जाते हैं- उस माँ तक जहाँ उनके अलग होने का झगड़ा बिना अपील की इजाजत के खारिज हो जाता है. 


पर इस जवाब के रास्ते इन दोनों भाषाओँ, या जुबानों के माजी में मिलेंगे। कहाँ से आयीं ये? कब आयीं? हिन्दी इस लफ्ज़ का जुबान, या भाषा के हवाले में पहला जिक्र कब मिलता है? और उर्दू का? ढूँढ़िएगा, बेतरह चौंकेंगे। उससे ज्यादा तब जब ये जानेंगे कि उर्दू दरअसल तुर्की भाषा के ओर्दू लफ्ज़ से निकली है- जिसका मतलब फ़ौज़ होता है. उसकी वजह भी थी- पारसी बोलने वाले मुगलिया सल्तनत के पूरी तरह से हुकूमत ए हिन्दुस्तान हो जाने के पहले तुर्क लड़ाके भी खूब आते थे और फिर लड़ने को भी बातचीत की जरुरत होती है. फिर दोनों लड़ने वाओं को आपस में ही नहीं बल्कि उस अवाम से भी बात करनी होती थी जिसके बीच ये खेमे लगाते थे, लड़ते थे. कमाल ये कि ओर्दू से निकली इस उर्दू में तुर्की जुबान अमूमन नदारद है- फ़ारसी जरूर खूब है. सफर मोटा मोटा मुहम्मद बिन कासिम से शुरू मान लें- माने सातवीं सदी से और अमीर खुसरो के आने तक पूरी हो गयी- 

इक़बाल अशार को याद करें- 
उर्दू है मेरा नाम मैं खुसरो की पहेली 
मैं मीर की हमराज़ हूँ ग़ालिब की सहेली। 
कमाल ये कि खुसरो ने खुद जो बोली (और जो कव्वाली और ग़ज़ल दोनों के बाबा आदम हुए) ने जो जुबान बोली उसे कभी उर्दू नहीं कहा. जो कहा वो आप पता लगायें- सब हमहीं बता देंगे तो आप क्या करेंगे। हाँ जो बोली उसे उर्दू नहीं तो क्या कहेंगे ये भी बड़ा सवाल है- देखें-

ज़ेहाल-ए-मिस्कीं मकुन तग़ाफ़ुल
दुराये नैना बनाये बतियाँ
कि ताब-ए-हिज्राँ न दारम ऐ जाँ
न लेहु काहे लगाये छतियाँ..... 

पहला मिसरा ठेठ फ़ारसी मगर दूसरा? अब यहाँ एक लम्हा ठहरें और एक और बात जोड़ें- फौजी खेमों वाली इस उर्दू के साथ साथ इसकी एक बहन भी है- रेख्ता। मोटा मोटा कह लें तो इस जुबान की दिल्ली के आस पड़ोस वाला अंदाज- बड़ा फर्क यह कि वह खेमों में नहीं- बाज़ार में बातचीत की जरुरत पूरी करने के लिए पैदा हुई थी. उसके पहले की उर्दू की जरा तुर्शी और रेख़्ता की जरा नज़ाकत के राज इसी फर्क में छिपे हैं. इस रेख्ता का वक़्त है 17वीं सदी के बाद का- और बावजूद इसके कि रेख्ता का अपना अलहदा अंदाज़ आज भी बचा हुआ है, जुबान जो है अब वो उर्दू ही है. अब इकबाल भाई का ऊपर कहा याद करें और चचा ग़ालिब को 

रेख्ते के तुम ही उस्ताद नहीं हो ग़ालिब 
कहते हैं अगले ज़माने में कोई मीर भी था

मतलब साफ़ हुआ- जो उर्दू थी वही रेख्ता है, जो रेख्ता है वही उर्दू है. हाँ, ठुमरी और ख़याल- इन दोनों में रेख़्ता वाला अंदाज ही ज्यादा मिलेगा- ध्यान से सुने तो दोनों में अब भी बचा महीन सा फर्क भी. 

पर हिन्दी कब आई- और कहाँ से आई? और ये हिन्दी वाले, उर्दू वाले भी? इन नुक्तों से जूझेंगे फिर कभी. शुक्रिया मीनू, एक और सवाल से मुठभेड़ करवाने के लिए. तब तक उर्दू पर एक और पुराना लेख देखें- 

Comments