के असामयिक
निधन के बाद उमड़ आई कुछ स्मृतियाँ, फेसबुक पर बिखरी स्मृतियों पर कुछ टिप्पणियाँ-
1. अलविदा कामरेड रमाशंकर यादव विद्रोही।
आप सच में जनता के कवि थे- संघर्षों के चितेरे- जैसे जाते हैं जनता के कवि वैसे ही
गए। लड़ते हुए, सड़क
पर, Occupy UGC के
लिए भिंची हुई मुट्ठियों के साथ। पर जेएनयू आज और ख़ाली हो गया, और बेगाना भी। आपके बिना गंगा ढाबा कैसा तो लगेगा!
2. लोग कहते हैं
विद्रोही आधे पागल थे। पर फिर ऐसे पागल अब कहाँ मिलते हैं जिनके जाने की ख़बर पर
दुनिया भर में हज़ारों आँखें नम हों, हज़ारों गलों में निवाला न उतर रहा हो।
3. जनकवि विद्रोही को
इस ठण्ड में
सुबह 7 बजे
बिना जूतों के
जाते देख जेनयू
की ही ईरानी-फिलिस्तीनी
कामरेड Shadi
Farrokhyani ने पूछा
कि जूते क्या
हुए?
विद्रोही दा का जवाब था- उस दिन प्रदर्शन में फेंक के पुलिस को मार दिया। यह जनवरी 2013 की स्मृति है
विद्रोही दा का जवाब था- उस दिन प्रदर्शन में फेंक के पुलिस को मार दिया। यह जनवरी 2013 की स्मृति है
4. विद्रोही दादा से अकसर हो जाने वाली मुलाकातों में उनका पैसे
लेना भी अक्सर होता था. ए समर- 10/20 ठू
रुपया दा से धीरे धीरे जितना संभव हो उनके हाथ में जबरिया ठूंस देने तक. तमाम बार
उनके प्रतिरोध के बावजूद.
पर यहाँ ठहरा जाय ताकि किसी भ्रम की गुंजाईश न रहे.
बस एतने चाहि/ फलाने दिहे रहिन आज/ खाना होई गय ढेर नाय चाही से
लेकर तमाम ऐसे ही जवाबों से लैस विद्रोही ने कभी किसी से पैसे मांगे नहीं- वह बस
ले लेते थे. क्यों, क्योंकि उनका हक था- लेनिन की पेशेवर
क्रांतिकारिता की परिभाषा में, मैं
तुम्हारा कवि हूँ के सहज भाव में. एक बात और- विद्रोही ने 'किसी से भी' पैसे
नहीं मांगे तो नहीं ही मांगे- लिए भी एक चुने हुए तबके से- उस तबके से जिनकी वह
आवाज थे, जिनके वह कवि थे. मुझसे पहले के जेएनयू
के साथियों से लेकर बहुत बाद आये नए साथियों तक सिर्फ उनसे जो धड़ा कोई भी हो
वामपक्षी थे.
'तू रहय द्या फलाने तू द्या - जेएनयू की तीखी राजनैतिक लड़ाइयों के बावजूद दक्षिण से बरास्ते मध्यमार्ग वामपंथियों तक में सहज दोस्ताना रिश्ते भी आम थे (इकलौता अपवाद अतिवामपंथी थे, शायद अब भी हैं पर वह फ़साना फिर कभी) और उनका ढाबे पर इकठ्ठा चाय पीना भी. उन्हीं में से एक में यह हादसा हुआ था- हम लोग लाइब्रेरी कैंटीन में खड़े थे और विद्रोही कहीं पीछे से आये थे- तनी कुछ रूपया दा हो- मेरे घूमने तक एक प्यारे दोस्त मगर गैरवामपंथी जूनियर ने जेब में हाथ डाला था और विद्रोही फिर उसी सहजता से- तू रहय द्या समर तू द्या.' फिर उनकी इस बात पर निगाह रखने लगा था- और फिर एक दिन पूछ लिया था- जवाब उस बार भी साफ़ था. 'मैं तुम्हारा कवि हूँ'. कहने की जरुरत नहीं यह 'तुम्हारा' किसका सर्वनाम है.
'तू रहय द्या फलाने तू द्या - जेएनयू की तीखी राजनैतिक लड़ाइयों के बावजूद दक्षिण से बरास्ते मध्यमार्ग वामपंथियों तक में सहज दोस्ताना रिश्ते भी आम थे (इकलौता अपवाद अतिवामपंथी थे, शायद अब भी हैं पर वह फ़साना फिर कभी) और उनका ढाबे पर इकठ्ठा चाय पीना भी. उन्हीं में से एक में यह हादसा हुआ था- हम लोग लाइब्रेरी कैंटीन में खड़े थे और विद्रोही कहीं पीछे से आये थे- तनी कुछ रूपया दा हो- मेरे घूमने तक एक प्यारे दोस्त मगर गैरवामपंथी जूनियर ने जेब में हाथ डाला था और विद्रोही फिर उसी सहजता से- तू रहय द्या समर तू द्या.' फिर उनकी इस बात पर निगाह रखने लगा था- और फिर एक दिन पूछ लिया था- जवाब उस बार भी साफ़ था. 'मैं तुम्हारा कवि हूँ'. कहने की जरुरत नहीं यह 'तुम्हारा' किसका सर्वनाम है.
5. कब आया हो समर, कस हया- जेएनयू में रहने ही नहीं, छूट जाने के बरसों बाद भी गंगा ढाबे पर लौटते ही इस सवाल से मुठभेड़ हो ही जाती थी। तिस पर यह समर कोई अकेला समर नहीं था, तमाम पीढ़ियों का सर्वनाम था- हम लोग आते जाते रहे, विद्रोही जेएनयू का स्थायी भाव थे- उन सब सपनों का भी, संघर्षों का भी जो जेएनयू का स्थायी भाव थे।
Ek 24*7 dhabbe ka nam to muje b yaad aaya waha baithkr shayad maine b chay pee thi shayad😊
ReplyDeleteEk 24*7 dhabbe ka nam to muje b yaad aaya waha baithkr shayad maine b chay pee thi shayad😊
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