सशक्त जातियों को आरक्षण का झुनझुना देंगे तो हिंसा मिलेगी

[समाचार पत्र सुबह सवेरे में 21 फ़रवरी को प्रकाशित] 

500 से ज्यादा रद्द रेलगाड़ियाँ, लाखों फंसे हुए लोग, पूरी तरह से जाम पंजाब को दिल्ली से जोड़ने वाला राष्ट्रीय राजमार्ग 10, जल दी गयी हजारों करोड़ की सार्वजनिक संपत्ति, अब तक जा चुकी तीन जानें और सड़कों पर फ्लैग मार्च कर रही सेना- यकीन नहीं होता कि यह काश्मीर, मणिपुर या नागालैंड जैसे 'अशांत' क्षेत्रों में नहीं बल्कि हरियाणा में हो रहा है. उस हरियाणा में जो हमेशा से भारत के सबसे संपन्न राज्यों में से रहा है. यह भी कि यह आरक्षण की मांग के लिए हो रहा है क्योंकि आरक्षण की जरुरत रखने वाले समुदाय आम तौर पर इतने साधन संपन्न और बाहुबली नहीं होते कि राज्य की ताकत से टकरा सकें और उसे फ़ौज उतार देने पर मजबूर कर दें. जी, यह आरक्षण की लड़ाई का नया दौर है. वह दौर जिसमें सामाजिक गैरबराबरी के खिलाफ उत्पीड़ित अस्मिताओं के  इस बहुत बड़े हथियार को सामंती और सशक्त जातियाँ धन और बाहुबल के साथ संख्या के डीएम पर चुनावों को प्रभावित कर सकने की ताकत के चलते हथियाने की जुगत में लग गयी हैं. यह आरक्षण की लड़ाई का वह दौर है जो 'या तो हमें दो या आरक्षण ख़त्म करो' की धमकी ही नहीं देता उसे अमल में लाने की कोशिश करने की क्षमता भी रखता है

मनोवांक्षित को को भीड़ की उस ताकत के जरिये हासिल करने की कोशिश जिसे बाबासाहेब अंबेडकर 'अराजकता का व्याकरण' कहते थे जरा नयी है. अफ़सोस यह कि इस जुगत की शुरुआत संविधान की कसम खाकर शोषितों और वंचितों के हक़ में कसम खाने वाले राजनैतिक दलों ने ही की है. किसी भी तरह सत्ता में आने के लालच में उन्होंने सशक्त जातियों को आरक्षण का झुनझुना दिखाना शुरू किया पर यह भूल गए कि सशक्त जातियाँ असली शोषित-वंचितों की तरह नहीं हैं, वह उनसे हिसाब भी मांग सकते हैं. वह हिसाब जो गुर्जरों ने राजस्थान में माँगा, पटेलों ने गुजरात में, कापुओं ने आंध्र प्रदेश में और अब जाट हरियाणा में मांग रहे हैं

इनमें से कोई भी दावा निर्वात से नहीं आया है- सबके पीछे किसी किसी राजनैतिक दल के प्रलोभन की भूमिका है. फिर इनमें से किसी भी दावे का दरअसल कोई सामाजिक-आर्थिक आधार नहीं है- गुर्जर पिछड़ी सूची में हैं पर वह आदिवासी दर्जा चाहते हैं जो कि असली आदिवासियों के साथ अन्याय होगा बाकी सारे खुद को पिछड़े वर्ग में शामिल करना चाहते हैं जबकि दरअसल वह पिछड़े नहीं हैं. उनको पिछड़े वर्ग में शामिल करना असली पिछड़े समुदायों के साथ अन्याय होगा क्योंकि अपनी बेहतर सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक स्थिति के चलते वह बाकी समुदायों का हिस्सा कब्ज़ा कर लेंगे यही कारण है कि असली पिछड़े समुदाय ऐसी किसी कोशिश का विरोध करते हैं. उदाहरण के लिए खुद हरियाणा में भाजपा सरकार के रहते भाजपा के ही सांसद राजकुमार सैनी का विरोध देख सकते हैं जिसमें वह जाट आरक्षण के खिलाफ पिछड़ी जातियों का संयुक्त मोर्चा बना 'सीधी कार्यवाही' करने की धमकी देते नजर रहे हैं

हरियाणा के जाट आरक्षण 'आंदोलन' का इतिहास इस बात की तसदीक करता है कि ऐसे मामले यहाँ तक पहुँचते कैसे हैं. इस बार का जाट आंदोलन खुद को मुश्किल में पा रही कांग्रेस सरकार के हरियाणा की आबादी के 27 प्रतिशत होने के साथ साथ 9 और भी राज्यों में फैले जाटों का वोट हासिल करने के लिए उनको मार्च 2014 में पिछड़ी जातियों की केंद्रीय सूची में शामिल करने से किया कांग्रेस ने इसके लिए पिछड़ी जातियों के राष्ट्रीय आयोग की फ़रवरी 2014 की वह रिपोर्ट भी ख़ारिज करके किया जिसने साफ़ किया था कि जाट किसी भी आधार पर पिछड़े नहीं हैं.  

भाजपा ने भी अपना आधार बचाये रखने के लिए इस निर्णय का समर्थन किया मुश्किल तब हुई जब उसके सत्ता में आने के बाद सर्वोच्च न्यायालय ने मार्च 2015 में जाट समुदाय को पिछड़े समुदायों की सूची से बाहर ही नहीं किया बल्कि इसके खिलाफ केंद्र सरकार की पुनर्विचार याचिका को सुनने से ही इंकार कर दिया तब से केंद्र और हरियाणा दोनों की भाजपा सरकारें इस स्थिति से निपटने के लिए तमाम प्रयास कर रही हैं और असफल हुई हैं. इसमें राज्य सरकार का वह प्रयास भी शामिल है जिसमें उसने जाटों को आर्थिक पिछड़ा घोषित करते हुए राज्य सरकार के आरक्षण में आर्थिक पिछड़े वर्ग का कोटा 10 से बढ़ाकर 20 प्रतिशत करने का निर्णय लिया था

सवाल बनता है कि अब आगे क्या? जवाब एक ही है. किसी भी समुदाय को अपनी मांगें पूरी करवाने के लिए हिंसा करने की इजाजत नहीं दी जा सकती और ऐसी किसी कोशिश से जरुरी सख्ती से निपटा जाना चाहिए पर साथ ही ऐसे मामलों में राजनैतिक दलों की जवाबदेही, या कहें कि शीर्ष उत्तरदायित्व (command responsbility) भी तय की जानी चाहिए ताकि वे आगे से चुनावी लाभ के लिए लोगों की जिंदगियाँ दांव पर लगा सकें 

पर फिर, इसके लिए जनता को भी समझदार होना पड़ेगा, उन्हें समझना पड़ेगा कि 'अच्छे दिन' के वादे करने वाले, उनके खाते में काला धन वापस लाकर 15 लाख जमा करवाने के वादे करने वाले उन्हीं वादों को जुमला भी बता सकते हैं. यह भी कि फिर सड़कों पर उतरने के बाद बंदूकें और वर्दियां जुमला बताने वालों के पास होती हैं, उनके नहीं 


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