राजनीति, राजनय और क्रिकेट

[राज एक्सप्रेस में 19 मार्च 2016 को प्रकाशित]

भारत पाकिस्तान राजनैतिक सम्बन्ध और दोनों के बीच क्रिकेट दुनिया में सबसे अनिश्चित चीजों में से  माने जा सकते हैं. सिर्फ राजनैतिक सम्बन्ध और क्रिकेट इसलिए क्योंकि बाकी तमाम कुछ तो बदस्तूर चलता रहता है, फिर चाहे वह व्यापार हो या हॉकी जैसे बाकी खेल. इन लगातार जारी रहने वाली चीजों पर अक्सर दोनों तरफ के ‘राष्ट्रवादियों’ की नजर तक नहीं पहुँचती. 

वजह भी साफ़ है. न राजनीति और राजनय एक होते हैं न सत्ता और विपक्ष में होना एक जैसा. खासतौर पर तब जब आप आक्रामक विपक्ष की भूमिका निभाने की कोशिश में उन चीजों पर भी हमला करना शुरू कर दें जिनकी राजनय  में बहुत जरुरत पड़ती है- वे जिन्हें ट्रैक टू कूटनीति कहा जाता है, जिनमें आधिकारिक संवाद से इतर जनता का जनता से संवाद होता है, युद्ध की जगह दोनों पक्षों में खेल होते हैं, सांस्कृतिक आदान प्रदान होता है. 

भारत में अभी मौजूदा सरकार की एक बड़ी दिक्कत है. यह कि सीधे  राजनयिक संबंधों को छोड़े हीं, विपक्ष में रहते हुए ट्रैक टू संबंधों पर भी उसका रवैया इतना उग्र रहा है कि अब उनमें जरा सी भी ढिलाई उसके समर्थकों तक के गले नहीं उतरती. याद करिए कि भाजपा के युवा सांसद और भारतीय क्रिकेट के प्रशासकों में से एक अनुराग ठाकुर जमाने तक आतंक और क्रिकेट एक साथ कैसे हो सकते हैं पूछते रहे थे. फिर सत्ता में आने के बाद बाकी सम्बन्ध सुधारने के लिए क्रिकेट शुरू करने का हवाला देने पर भाजपा समर्थक ही उन पर किस तरह टूट पड़े थे और उन्हें दो दिन में बयान बदलने पर मजबूर कर दिया था. 

अभी टी-20 विश्वकप में पहले पाकिस्तान के शामिल होने और फिर किसी तरह वह मसला निपट जाने पर पाकिस्तानी अधिकारियों के आने न आने पर चल रहे विवाद की गुत्थियाँ दरअसल इसी जगह खुलती हैं. विपक्ष में रहते हुए आपने क्रिकेट को युद्ध के उल्टे ध्रुव की जगह खड़ा कर दिया, जबकि पता आपको भी था कि सत्ता में आकर युध्द करना आसान नहीं है. विपक्ष में आप पूछते रहे कि धमाकों के शोर के बीच बातचीत कैसे हो सकती है, स्टेडियमों में बजती तालियाँ तो छोड़ ही दें. फिर सत्ता में आने पर उसकी प्रतिध्वनि वापस आनी ही है. 

वह आई भी- पहले हिमाचल में कांग्रेस सरकार द्वारा धर्मशाला में मैच का विरोध करने वाले राष्ट्रभक्तों  बल प्रयोग करने से इनकार के रूप में, फिर पाकिस्तान के सुरक्षा चिंताओं के चलते न आने की घोषणा कर देने से. पहली ने पुराने राष्ट्रवादियों का पाखण्ड उजागर किया तो दूसरी ने वैश्विक राजनीति में भारत में आतंरिक सुरक्षा की स्थिति की छवि खराब की. सोचिये कि जहाँ रोज बम फटते हों उस पाकिस्तान का प्रतिनिधिमंडल भारत में उनकी टीम के आने पर सुरक्षा स्थिति का जायजा लेने आया हो यह कैसी शर्मिन्दा करने वाली बात है. 

खैर, ख़ुशी की बात यह है कि इन सारे संकटों के बीच, और उसके बाद पाकिस्तान के कुछ उच्चाधिकारियों को वीजा न देने के बाद खड़े हुए एक और राजनयिक संकट के बावजूद सही, टीम आई और खेल रही है. उससे भी ख़ुशी की बात यह होगी कि इस बार के अनुभव से सभी पक्ष सबक लें और समझें कि अंततः युद्ध युद्ध होता है और खेल खेल. क्रिकेट में सियाचिन में दोनों देशों के सैनिकों की शहादत घुसा देने से शहादतें रुक नहीं सकतीं, संबंधों को और असामान्य कर बढ़ा भले ही दें. 

बात साफ़ है. आप दम कितना भी भरें कि आतंक और बातचीत साथ नहीं चल सकती- आप अंततः संयुक्त राष्ट्र संघ सम्मेलन में मिलने से शुरू कर सार्क सम्मेलन में नेपाल के पोखरा में बात करने को मजबूर होते ही हैं. यह मजबूरी कोई बुरी बात भी नहीं क्योंकि आतंक रोकने के लिए भी बातचीत करनी ही पड़ती है. बेहतर होगा कि अब, इस सरकार के समय भी भारत पाकिस्तान मैच होता देखकर सभी पक्ष कुछ सीखें और आगे से अंतर्राष्ट्रीय राजनय और देश की चुनावी राजनीति को अलग रखें. युद्ध किसी का भला नहीं करता, उल्टा सबसे ज्यादा नुकसान उन सैनिकों का करता है जिनके नाम पर क्रिकेट खेलने से मना किया जाता है. क्रिकेट किसी का नुकसान नहीं करता- हाँ शायद संबंधों में थोड़ी ऊष्मा लाकर सैनिकों को जरा देर की सही राहत जरुर दे सकता है.

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