जनता की समझ दुरुस्त कर देनी है कामरेड, बता देना है कि कन्हैया चेग्वेरा नहीं है!


जी कामरेड।एकदम सही कह रहे हैं आप. कन्हैया चेग्वेरा नहीं है, लेनिन नहीं है. हो भी कैसे सकता है? चेग्वेरा तो पैदा ही चेग्वेरा हुए थे, लेनिन लेनिन। अब कन्हैया ठहरा बिहार के एक गांव के बहुत गरीब परिवार से आया हुआ लड़का- बड़ा 'जार्गन' भी नहीं गिराता। घंटे भर का भाषण दिया और सब समझ आ गया- साम्राज्यवाद, पूँजीवाद, उजरती श्रम, इजारेदारी, अवययी बुद्धिजीवी टाइप भारी भारी शब्द न गिराये, और जनता है कि उसे चेग्वेरा बनाये दे रही है. मने ऐसा भी कहीं होता है! मार्क्सवादी और जनता को समझ आने वाली बात बोल गया! वो भी ऐसी की जनता अश अश कर रही है? बेगूसराय से बहराइच तक, देवरिया से देहरादून तक लाल सलाम कह रही है- यह भी जोड़ के कि अब तक किसी कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्य नहीं है. 

अब इसका भी क्या कि जनता सिर्फ हिन्दी पट्टी में ही प्रभावित नहीं हुई है. यहाँ केरल से कोई बहन फ़ोन करके अपने भाई से पूछ रही है कि कन्हैया ने क्या विषय पढ़ा था- उसकी सारी दोस्त मेडिकल में जाने के लिए बायोलॉजी लेने जा रही हैं पर वह वह विषय पढ़ना चाहती है जो कन्हैया ने पढ़ा था.

न न कामरेड- न हममें से कोई कन्हैया को मसीहा मान रहा है न वह खुद. ठीक उल्टे हम जानते हैं कि आप सही हैं. अभी भावना में जो बह रही है वह आम जनता है, हमारे आपके जैसे 'क्रांति की आग में तप कर' निकली कामरेड जनता नहीं। अब इसका क्या करें मगर कि ये वह जनता है जो इतिहास बनाती बिगाड़ती है. वह जनता है जो ऐसे ही माहौल के साथ आपातकाल लगाने वाली इंदिरा गांधी को सबक भी सिखा सकती है और फिर वापस आपातकाल लगाने के सपने वाले नरेंद्र मोदी को सत्ता में भी ला सकती है. सहज बोध उर्फ़ कॉमन सेंस के साथ जीती है यह जनता- अफ़सोस कि आज की दुनिया में और कुछ भी सहज हो, सहज बोध हमेशा गढ़ा हुआ ही होता है- सुन्दर मतलब फेयर एंड लवली वाला सहजबोध, राष्ट्रवाद माने हिंसक, यकसां, अकिलियत के नागरिक तो क्या इंसानी हक़ तक छीन लेने के समर्थन वाला सहजबोध।

अब ऐसे में क्या हुआ कि इस सहजबोध में सेंध लगाने की एक खिड़की खुली थी. कन्हैया के बहाने उससे बातचीत की उम्मीद अचानक एक जिन्दा उम्मीद बन गयी है.सोचिये तो आखिरी बार ऐसा कब हुआ था कि आम जनता लाल सलाम का नारा देने वाले को जवाब दे रही हो, झूम रही हो. याद कर सकें तो याद आएगा कि बीते तीन-चार दशक हमारे अपनी जमीन खोने के दशक हैं- लाख ईमानदार सही (या न सही) उन आवाजों के साथ जुड़कर स्वीकार्यता खोजने के दशक हैं जिनमें एक अरुंधति रॉय को छोड़ दें तो ज्यादातर मार्क्सवाद को वैचारिकी के बतौर खारिज करने में देर नहीं करते. बीते दशक में तो मामला और ख़राब हुआ है- अभी तो खुलेआम नाथूराम गोडसे की वकालत करने वालों का सहज बोध, गांधी को गाली देने वालों का सहजबोध ही जनता तक ज्यादा पहुँच रहा था.

इस बार भी जो माहौल बना था वह बनाने में कन्हैया ही नहीं- जेएनयू ही नहीं, वामपंथ तक की कोई निर्णायक भूमिका नहीं थी. जेएनयू लगातार तमाम नाइंसाफ़ियों के खिलाफ लड़ता रहा है, इस बार भी लड़ रहा था- रोहित वेमुला/हैदराबाद से लेकर दादरी तक पर. अफज़ल गुरु पर भी हुआ कार्यक्रम पहला नहीं था. हाँ, अबकी बार जो सरकार थी वह फासीवाद की अपनी तमाम इच्छाओं के साथ बेवकूफ भी है. असहमति के क़त्ल की कोशिश में अपनी आत्महत्या कर लेने को उतारू सरकार। उसे लगा कि रोहित से ध्यान हटाने का मौका है और वह बजरंगी हो गयी पुलिस के साथ साथ ज़ी न्यूज़ जैसे मुखबिरों से लेकर टाइम्स नाऊ जैसे भाड़े के गुंडों के साथ टूट पड़ी. शुक्र इतना कि अभी कब्ज़ा पूरा नहीं हुआ है सो फर्जी वीडिओ से लेकर तमाम सच सामने आने लगे और वह फँस गयी. कन्हैया का जो 'फिनॉमिना' है इस कंटिंजेंसी से निकला फिनॉमिना है- उसकी अपनी ही नहीं, हम सबकी, पूरे वामपंथ की एजेंसी से निकला हुआ नहीं।

हमें इसे देखना भी ऐसे ही चाहिए था. इलाहबाद में वामपंथी कार्यकर्ता होने से शुरू हुए सफर के जेएनयू में एक  वामपंथी संगठन के नेतृत्वकारी साथियों में से एक होने तक पहुँचने को याद करूँ, कम्युनिस्ट संगठनों के भीतर काम करने का लंबा अनुभव याद करूँ तो न आपस में झगड़ने को मशहूर रही वामपंथी कतारों में ऐसी एकता याद आती है, न वामपंथ के लिए अचानक दिख रही इतनी स्वीकार्यता। लोग सुनने को तैयार हैं साथी- लाल सलाम कह रहे हैं. लोगों को छोड़ ही दें- टाइम्स ऑफ़ इंडिया जैसे पूंजीवाद समर्थक अखबार कन्हैया के भाषण की उस नरेंद्र मोदी के भाषण से तुलना ही नहीं कर रहे जिन्हें उन्होंने ही भाषणबाजी का उरूज बना दिया था, बल्कि पूछ रहे हैं कि दोनों में से बेहतर कौन था! अब ऐसे में मिली जमीन को पकड़ बहस आगे बढ़ानी चाहिए थी या?

पर आप भी सही हैं. ऐसे लोगों को उनके भरम से निकालना भी बहुत जरूरी है- उन्हें यह बताना भी कि कन्हैया चेग्वेरा नहीं है. हो ही नहीं सकता। इस वक़्त इससे ज्यादा जरुरी बात हो भी क्या सकती है, नहीं? क्या जरुरत उनके इस ख़याल को अकेला छोड़ उनसे और बातें करने की- वामपंथ की, उस खतरे की जो सरकार बन मुल्क की रूह को मार रहा है, उन समयों की जिनमें अल्पसंख्यकों से लेकर महिलाओं तक, दलितों से लेकर आदिवासियों तक, छात्रों से लेकर मजदूरों तक- सब पर खतरा है. पर यह सब कैसे बता दें हम उसे, आज का सबसे जरुरी और निर्णायक क्रांतिकारी कार्यभार (याद तो होगा ही यह 'जार्गन') है जनता की समझ दुरुस्त कर देना- उसे समझा देना कि कन्हैया चेग्वेरा नहीं है, बन भी नहीं सकता। आखिर हमारे वक़्त का इससे बड़ा अंतर्विरोध है भी क्या?

मैं तो कहता हूँ हमें इतने पर रुकना नहीं चाहिए। यह वक़्त जनता की समझ और दुरुस्त कर देने का भी है-उसे यह भी बताने का कि कन्हैया चेग्वेरा तो छोड़िये, क्रांतिकारी तक नहीं है. मुई संशोधनवादी, संसदवादी पार्टी का कार्यकर्त्ता है, हमारी तरह क्रांति का नीले खून, बोले तो ब्लू ब्लड वाला हिरावल नहीं बल्कि पतित कामरेड है. मैं तो कहता हूँ यह समय जनता की समझ ही नहीं, जनता को भी दुरुस्त कर देने का है. कहीं पूरी की पूरी जनता सीपीआई में चली गयी तो? क्रांति के लिए संघियों के सत्ता में होने से बड़ा खतरा हो जायेगा, है कि नहीं कामरेड? सोचिये जरा, मैं तो लिख के ही सिहर गया हूँ.

बाकी कामरेड, इस बात पर एक बात याद गयी. उन दिनों की बात जब तमाम कम्युनिस्ट पार्टियों के नेतृत्व ने पार्टी लाइन जारी कर अपनी पार्टी के अलावा किसी कम्युनिस्ट पार्टी के साथी से रिश्ता रखना गुनाह-ए-अजीम घोषित नहीं किया था. सो पार्टी लाइन की अनुपस्थिति में अलग अलग संगठनों के कामरेड बहसियाते रहने के बावजूद भ्रातृहंता (स्त्रीलिंगी शब्द अभी भी नहीं मिला है) नहीं  हो  जाते  थे, दोस्त बने रहते थे. अब दोस्त हैं तो साथ जुटना भी होता था. सो इलाहाबाद शहर में रात भर चाय पानी के जुगाड़ वाली शहर की दो जगहों में से एक प्रयाग रेलवे स्टेशन जुटान के ऐसे ही ठीहों में से था. चार साथी जुटते थे वहाँ, चारों संसदीय वाम से लेकर माओवादियों तक अलग अलग पार्टी के पर करीबी दोस्त। ऐसी ही किसी बहस के बाद उनमे से एक ने दूसरे को कहा था… सुनो में- हम लोग चाहे क्रान्ति कर पाएं चाहे न, तुम्हारी पार्टी से तो तय है कि न हो पायेगी। फिर चारों चुप हो गए थे.

क्या है कामरेड कि संघियों और हममें एक अंतर है, बुनियादी अंतर। वे किसी नए रंगरूट में जरा बहुत इंसानियत देख डरते नहीं- जनता की समझ नहीं दुरुस्त करते कि न न, यह बाबू बजरंगी न बन पायेगा। वह उसकी नफ़रत पर मेहनत करते हैं, कोशिश करते हैं कि वह बाबू बजरंगी, दारा सिंह या तोगड़िया बन जाय. हमारी तरह जनता को डराते नहीं- कि जाने दो, इससे न हो पायेगा। अभी एक बच्ची ने कन्हैया को खुली बहस की चुनौती दी है- बेहद बचकाने सवालों के साथ. किसी संघी ने कहा कि वह साध्वी प्राची नहीं बन सकती? कह और भी बहुत कुछ सकता था, पर समझ तो गए ही होंगे। सो जाने दीजिये, अभी और भी जनता भ्रम में हो सकती है- उसको साफ़ करना है कि कन्हैया क्या नहीं, क्या नहीं बन सकता।

Comments

  1. उफ्फ्फ़ आप ना जाने इतना कैसे सोच लेते हैं..!!:)

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