['सामुदायिक नहीं हो पा रहे हम शीर्षक से 07-04-2016 को राज एक्सप्रेस में प्रकाशित].
विदेशों, खासतौर पर कानून
का पालन करने वाले देशों में दक्षिण एशियाई होना एक कठिन बात है यह हम आप्रवासियों
से बेहतर शायद ही कोई जानता हो. और अफ़सोस, वजह अक्सर नस्लभेद या अन्य किसी भेदभाव में
नहीं बल्कि हमारे अपने व्यवहार में होती है. वह व्यवहार जिसमें लोगों की, पड़ोसियों
की, समुदाय की निजता, स्वच्छता से लेकर कानून के सम्मान करने तक में हमारे नागरिक
बोध की कमी साफ़ झलकती है. दंडात्मक प्राविधान न हों तो यह व्यवहार और भी उभर कर सामने आता है- फिर पान
खाकर सड़कों पर थूक देना हो या किसी फास्ट फ़ूड श्रृंखला से खरीदे बर्गर का पैकेट
सामने दीखते कचरे के डिब्बे में न डालकर जमीन पर फेंक देना- पूरा दक्षिण एशियाई आप्रवासी
समुदाय ऐसी हरकतों के लिए दुनिया भर में कुख्यात है.
इसीलिए मुझे कोई आश्चर्य
नहीं हुआ जब अभी हाल में ब्रिटेन की लीसेस्टर काउंटी की नगर परिषद ने पान खाकर
सड़कों और इमारतों को गंदा करने के खिलाफ सार्वजानिक स्थान सुरक्षा आदेश लाने पर
विचार करना शुरू किया है. बस जानकारी के लिए जोड़ दें तो गोकि ठीकठाक दक्षिण एशियाई
आबादी वाली इस काउंटी में यह समस्या आमतौर पर मौजूद है, गुजराती समुदाय की दुकानों
से भरी गोल्डन माइल रोड पर यह महामारी जैसी बन गयी है. फिर यह समस्या कोई पहली बार
सामने नहीं आई है. लन्दन इससे पहले ही, 2010 में जूझ चुका है. ब्रेंट और ईलिंग कौंसिल
में यह समस्या तब इतनी बड़ी हो गयी थी कि नगर परिषद को सिर्फ पान के दागों की सफाई
पर सालाना 20,000 पौंड से ज्यादा खर्च करने पड़ते थे. तब इसे नियंत्रित करने
के लिये वहाँ की नगर परिषदों ने पान थूकते हुए पकड़े जाने पर 80 पौंड का जुर्माना
भी लगाया था.
यहीं एक बड़ा सवाल बनता
है- कि सफाई कोई ऐसी भी बुरी चीज नहीं जो हम बस जुर्माना लगाने पर करें. या फिर
ऐसी भी जिसके लिए हमें राष्ट्रीय स्तर पर ‘स्वच्छता अभियान’ चलाना पड़े- बावजूद
इसके कि उसका भी कोई ख़ास असर अब तक हुआ नहीं दिखता. हमारे अपने घरों में झाँक के
देखा जाय तो बात और साफ होती है- अपने घर हम भरसक साफ सुथरे रखते हैं. फिर भले खुद
से करके या फिर भारत ही नहीं पूरे दक्षिण एशिया में बहुत सस्ते दामों पर उपलब्ध मानवीय
श्रम के सहारे. हाँ, हमारे सफाई के यह छोटे छोटे द्वीप घर से निकलते ही खत्म हो
जाते हैं. अपने घर में कभी पान न खाने वालों को देखिये, घर से बाहर निकलते ही गली
में यह अनुशासन ख़त्म हो जाता है.
सो, अब यहाँ दो मसले हुए-
पहला यह कि बतौर समाज हम सामुदायिक नहीं हैं. हमारा जाति से लेकर धर्म तक तमाम
खांचों में बंटे होना हमारे नागरिक होने की पहचान के साथ खिलवाड़ करता है. फिर यह
खिलवाड़ हमारे घर और बाहर में फर्क करने से दीखता है- घर हमारा है, साफ़ रहना चाहिए.
सड़क ‘हमारी’ नहीं है- बावजूद इसके कि साझा है- सो गंदी भी रहे तो क्या फर्क पड़ता
है! अब इसी सूत्र को बढ़ाते जाएँ तो तमाम जगहों को गंदा करते रहना हमारी नागरिकता
की भोंथरी समझ को साफ़ करता है. आप सिर्फ ‘भारत माता की जय’ बोलते रहने से भारत माता
के बच्चे नहीं हो जाते. हो जाते तो फिर कौन बच्चा समझदार हो जाने के बाद अपनी माँ
को गंदा करता है?
यहाँ पर दूसरा सूत्र भी
खुलता है- भारत में मानवीय श्रम बहुत सस्ता है, इतना सस्ता कि उसकी गरिमा गम अक्सर
समझ नहीं पाते. हम आप्रवासियों से पूछिए, जहाँ ‘बाई’ रखने का ख़याल भी सिहरा देता है
क्योंकि यहाँ बाई को कम से कम मानवीय गरिमा बनाये रखने भर का पैसा देना पड़ता है.
अब पीछे छूट गए वतन में घर बाई साफ़ करती थी, सड़कें नगर निगम वाले (अगर कर दीं तो).
हमें क्या जरुरत उन्हें साफ़ रखने की? सो यह सीखा हुआ व्यवहार हमारे साथ साथ पूरी
दुनिया में घूमता रहता है- हमारी सामुदायिक पहचान को खराब करने तक की कीमत पर.
जैसे कि पहले ही कहा,
सफाई कोई ऐसी बुरी चीज तो है नहीं जो कोई जुर्माना न लगाये तो न की जाए. और जब हम उन
समाजों में ऐसे दिखने लगते हैं जहाँ आमतौर पर एक दूसरे के घर आनेजाने का कोई ख़ास
रिवाज नहीं है हमारी बाहर फैलाई गंदगी हमारे घरों की पहचान मान ली जाती है.
बखैर, लीसेस्टर नगर परिषद
को शुभकामनाएं भी, धन्यवाद भी. शायद हम इससे ही कुछ सीखें.
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