[6 मई 2016 को राज एक्सप्रेस में प्रकाशित]
अगर आदित्यनाथ मर्द
हैं तो शादी करके, बच्चे पैदा करके अपनी मर्दानगी साबित करें- यह किसी अनाम ट्रोल की
सोशल मीडिया पर निकाली गयी भड़ास नहीं बल्कि उत्तर प्रदेश के शहरी विकास मंत्री आज़म
खान का भाजपा सांसद योगी आदित्यनाथ पर नया हमला है. फिर योगी भी भाषा के साथ
दुर्व्यवहार की अपनी शानदार क्षमता के लिए जाने ही जाते रहे हैं- सो उन्होंने भी
करारा जवाब दिया. बोले दुनिया जानती है कि कौन मर्द है कौन नहीं. साथ में यह भी
जोड़ दिया कि मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को आज़म को मंत्रिमंडल से बरखास्त कर किसी
पागलखाने में भर्ती करवा देना चाहिए.
अब यह भूल जाएँ कि
मर्दानगी को बहादुरी का पर्याय बना देने
में दोनों बिलकुल एक हैं, स्त्रियों के प्रति इनके सम्मान की ऐसे करतूतें पहले भी
सामने आती रही हैं. अफ़सोस, संवाद का स्तर गिराने वाली अभद्रता की यह नयी भाषा न
सिर्फ इन दोनों की है, न ही एक दूसरे से टकराते रहने वालों के बीच सिमटी हुई है. संसदीय
भाषा कभी आदर्श भाषा का मानक मानी जाती थी. अब वह अक्सर सांसदों के मुँह से ऐसे
अंदाज में सुनाई पड़ती है कि खबरी चैनल उनके बयानों को “सिर्फ वयस्कों के लिए” की
चेतावनी के साथ चलायें तो यह उनका सामाजिक योगदान माना जा सकता है.
वैसे तो इस गिरावट
की प्रक्रिया बहुत लंबी है पर दो बड़े उदाहरणों में याद करें तो बात आसानी से समझ आ
जाती है. अरसे पहले, जीप घोटाले में अपने रक्षा मंत्री कृष्णा मेनन पर आरोप लगने
पर देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु ने कहा था कि इन आरोपों के पीछे “गन्दी
राजनीति” है. इसके कुछ चार दशक बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री पी वी नरसिंहाराव खुद आरोपों
में फंसे तो उन्होंने कहा कि आरोपों के पीछे ‘राजनीति’ है. बात साफ़ है कि भारतीय राजनीति
का सफ़र ‘गंदी राजनीति’ के ही राजनीति बन
जाने का भी सफ़र है.
अब सवाल बनता है कि राजनीति
इतनी गंदी हो कैसे गयी. इस सवाल का जवाब बेहद आसान है. साथ के दशक तक स्वतंत्रता
संग्राम में तप कर आई आदर्शवादी पीढ़ी के बुजुर्ग होते जाने के साथ उनके आदर्शों को
भी सामाजिक पकड़ कमजोर पड़ती गयी. फिर इस नयी पीढ़ी के लिए राजनीति सेवा नहीं बल्कि
धंधा बन गयी, ऐसा धन्धा जिसमें लाभ कमाने के लिए उसे साम दाम दंड भेद किसी चीज से
कोई परहेज नहीं था. इस पीढ़ी ने सबसे पहले राजनीति में अपराधियों का इस्तेमाल करना
शुरू किया- विरोधियों को डराने धमकाने से शुरू कर चुनावों के वक़्त बूथ कब्जा कर
लेने तक.
धीरे धीरे अपराधियों
को यह बात समझ आ गयी कि ऐसे नेताओं के पीछे कि असली ताकत वह हैं तो उन्होंने पीछे
खड़े रहने से इनकार कर दिया और खुद राजनीति में उतर पड़े. 80 के दशक के बीतते न बीतते
राजनीति के अपराधीकरण की यह प्रक्रिया अपने चरम तक पहुँच चुकी थी. अब यह तो हो
नहीं सकता कि ‘बाहुबली’ माननीय हो जाएँ और उनकी भाषा, उनकी जीवनशैली बुरी ही बनी
रहे, सो वह हुआ भी नहीं. पूर्वी उत्तर प्रदेश से बरास्ते बिहार तेलंगाना तक ‘काट
देंगे, मार देंगे’ संसदीय भाषा ही नहीं, सांसदों के असली व्यवहार में भी शामिल हो
गए.
अब जो बचा था वह बस
राजनीति में विशुद्ध व्यापारियों का आना था. व्यापारियों से मुराद गाँव कस्बों
वाले छोटे मोटे व्यापारियों से नहीं, बल्कि कॉर्पोरेट धन्नासेठों से है, उन धन्नासेठों
से जो अब तक बड़ी राजनैतिक पार्टियों के आगे पीछे घूमते थे, उनसे अपना काम निकालने
की मदद करने को तैयार रहते थे. विजय माल्या को याद करें तो याद आएगा कि कैसे
उन्होंने तिकड़म लगा कर, वोट खरीद कर राज्य सभा में घुसना शुरू किया. अंबानी बंधुओं
को याद करें तो यह भी कि कैसे उन्होंने अमर सिंह की मार्फ़त उत्तर प्रदेश सरकार में
अपनी जड़ें घुसायीं. अपराधियों के आने के साथ राजनीति को उनकी भाषा मुफ्त मिली थी
तो ऐसे धन्नासेठों के आने के बाद उनका कुछ भी करके बच निकलने में विश्वास रखने
वाला घमंड. यह एक भयानक दुरभिसंधि थी जिसका रास्ता यहाँ तक पहुँचना ही था.
यहाँ जहाँ हेरोल्ड
पिंटर याद आते हैं. वे जिन्होंने कहा था कि हमारी दुनिया की हकीकत इतनी वहशी, इतनी
भयावह हो गयी है कि उसे जो भाषा मौजूद है उसमें कहा ही नहीं जा सकता. भाषा और यथार्थ
की संरचना एक दूसरे के समानान्तर जा खड़ी हुई हैं. इसी बात को अब ऐसे सोचें कि हमारे
देश में राजनीति का असली चेहरा इतना घिनौना हो गया है कि उसमें सभ्य भाषा में बता
करने की जगह ही नहीं बची है. वहाँ तो अब यही चलेगा- आदित्यनाथ और आज़म खानों से
शुरू कर आजादी मांगने पर औरतों को नंगा घूमने की सलाह देने वाले खट्टर जैसे
मुख्यमंत्री, रूसी औरतों को अकेले में धोती बांधना सिखाने को तत्पर बाबूलाल गौर जैसे
मध्य प्रदेश के गृहमंत्री.
श्रद्धांजलि संसदीय
भाषा.
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