शुभम श्री को मिले भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार पर हुए दंगे पर खरी खरी

शुभम श्री को भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार मिला अच्छा हुआ। न मिलता तो हम जैसे हिन्दी साहित्य के शाश्वत बाहरियों को फ़ेसबुक पर मौजूद इतने सारे आलोचकों और उनकी प्रतिभा का पता ही न चलता। इसे तो छोड़े हीं, कविता दरअसल क्या है, और क्या नहीं है इसका भी। ख़ैर, अच्छा हुआ हम सब हुए, कवि नहीं हुए- कविता लगती ही नहीं हमें कि कर दें! हाँ, पढ़ते ज़रूर रहे, जो अच्छी लगीं अच्छी लगीं। जो नहीं लगीं, नहीं लगीं। जो अजीब लगीं वो अजीब लगीं। नागार्जुन की ओम याद आती है, बाल ठाकरे याद आती है। निराला की ताक कमसिन वारि भी। किसी आलोचक की भुजाएँ फड़कते न देखीं इन पर। फड़कते तो दिनेश कुमार शुक्ल के उस संग्रह पर भी न देखीं डेढ़ दशक पहले इलाहाबाद की एक उदास दोपहर को जिसको पढ़ सालों हँसते रहे- जिस भी दोस्त का मज़ा लेना होता था उसे 'कभी तो खुलें कपाट- तुम्हारी बुद्धि जोड़कर देते रहे। कुछ कविताएँ तो शब्दश: न सही, याद अब भी हैं-
बंदर बैठा पेड़ पर करता टिलीलिली- ले गुलबकावली ले गुलबकावली।
मैं रात की पेंदी से खुरच लाया हूँ सपने, फुटपाथ पे सोने वाले सब हैं मेरे अपने
मैं उठा लाया हूँ काजल और बना ली है स्याही- सुनानी है सबको कहानी
पी मैंने छाछ फूँककर फिर जीभ क्यों जली- बंदर बैठा पेड़ पर.....
वह भी जिसका गंगा की कछार में बैठ- रसूलाबाद हो या झूँसी- सस्वर पाठ किया करते थे- उसके पहले क्या किया करते थे समझ ही गए होंगे!
ले चंद्रकटार सखी तुम धीरे धीरे
उठीं तीज की रात गगन में धीरे-धीरे
भरकर तुम विस्तार पसरती जैसे सृष्टि अपार
तुम्हारा बिखर गया मणिहार
दमकते तारे कई हजार
गगन में धीरे-धीरे....
पर फिर उस संग्रह में सबसे विध्वंसक कविताएँ यह दोनों नहीं, एक तीसरी लगी थी- शब्दश: याद है आज भी-
देखें-
"सो गया हूँ मैं
तुम्हारे
हृदय के पर्यंक पर
दहकते दो सूर्य
मेरी कनपटी पर --
हृदय है
कि सेज है
कि चिता है ?"
आपको समझ आए तो मुझे समझाइयेगा, आज तक इसका अर्थ तलाश रहा हूँ।
बखैर, दिनेश जी की तमाम कविताएँ अतिप्रिय भी हैं- इस संग्रह वाली भी। अवध्य नहीं है कवि, सिंघाड़े का ताल तो सहज याद आती हैं, स्मृति में बनी हुई हैं। उनका ख़ास ज़िक्र सिर्फ़ इसलिए कि वह अद्भुत संग्रह है- बेहद शानदार, अर्थपूर्ण कविताओं के साथ इन कविताओं का भी सो स्मृति से निकला ही नहीं कभी- ठीक कुमार विकल के निरुपमा दत्त मैं बहुत उदास हूँ की तरह। इस फ़र्क़ के साथ कि इस संग्रह की कोई कविता खिलन्दड़ई के वक़्त कभी नहीं याद आयी- हाँ जब भी उदास हुआ मन तो चंडीगढ़ लौट जाने की ख़्वाहिश वाली उस लड़की की याद ज़रूर आयी- उसके उस भाई की भी जो 26 डाउन- या ऐसी ही कोई ट्रेन पकड़ कहीं चला गया था। ख़ैर, कुल जमा कहना यह कि कुंठा के इस विस्फोट में मुझे कवयित्री नहीं, कुंठित आलोचक ही हास्यास्पद लग रहे हैं। कविता पर बात की जा सकती है- की जानी चाहिए।

 मुझे पोयट्री मैनजमेंट शानदार कविता लगी थी- बुखार हो या भावना, चरम उन्माद (डिलीरीयम) में लिखी गयी कविता जैसी पढ़ी जाने वाली कविता- दुनिया की तमाम भाषाओं में ख़ूब मिलती हैं- जाने क्यों हिन्दी में बहुत नहीं दिखीं। 

ख़ैर- ज़्यादा लिखा थोड़ा समझिएगा। वैसे भी हिन्दी साहित्य का शाश्वत बाहरी हूँ तो दिल पे न लीजिएगा, ले भी लिए, बाक़ी, तो मेरा क्या जाएगा। 

पुनःश्च: अपनी बात सिर्फ़ कविता पर है। पुरस्कार मंडल वाले उस उदय प्रकाश पर नहीं जिनको मैं दुनिया भर घूमते हुए अपनी विपन्नता का रोना रोने वाले, दूसरों की निजी जिंदगियों की त्रासदियों का मज़ाक़ उड़ा कहानियाँ गढ़ने वाले, और हर सफल असफल अन्य से जलने वाले अति-कुंठित व्यक्ति के रूप में ही जानता हूँ।

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