सरकार और विपक्ष किसी मुद्दे पर एक हों, ऐसा कम ही होता है।
उससे भी कम यह कि अर्थशास्त्री, उद्योग जगत, मध्यवर्ग सब के सब सहमत नज़र आएँ। पिछले
हफ़्ते वस्तु और सेवा कर विधेयक के राज्यसभा में पारित होने के बाद यह हुआ। होना भी
चाहिए था क्योंकि14 साल भाजपा और अगले
2 साल कांग्रेस के
जवाबी विरोध के बाद इस विधेयक का वनवास ख़त्म हुआ है।
पर सवाल उठता है
कि क्या यह सुधार दरअसल उतना क्रांतिकारी है जितना इसे बताया जा रहा है? बेशक यह है
वह भी सिर्फ़ कराधान के मामले में ही नहीं, राजनीति के लिए भी। विकेंद्रीकरण पर ज़ोर
होने वाले दौर में राज्यों के कर लगाने के अधिकार को छीन कर केंद्र को दे देने वाला
यह विधेयक अभूतपूर्व है। इसमें भी कि बावजूद इस तथ्य के ज़्यादातर राज्य इसके समर्थन
में हैं भले ही इसके लिए उनकी शराब और अचल
सम्पत्ति पर कर लगाने के अधिकार को बचाए रखने और फ़िलहाल पेट्रोलियम उत्पादों को जीएसटी
से बाहर रखने की उनकी शर्त को केंद्र सरकार ने मान लिया है। अफ़सोस कि इस विधेयक के
पारित होने से देश के संघीय ढाँचे पर पड़ने वाले असर को के सवाल पर भारत की कम्युनिस्ट
पार्टी (मार्क्सवादी) और ऑल इंडिया अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (एआईडीएमके) के सिवाय किसी
दल ने चर्चा तक नहीं यह ज़रूर है कि मज़बूत संघीय ढाँचे वाले देशों, जैसे संयुक्त राज्य
अमेरिका में केंद्रीय कराधन की कोई व्यवस्था नहीं है और यह अपने आप में बहुत कुछ साफ़
कर देता है। अफ़सोस अब इस असर को देखने के लिए वक़्त के इंतज़ार के सिवा कोई चारा नहीं
है।
पर फिर भारत में
जीएसटी पर हुई सारी बहस कर प्रक्रिया और कर वसूली को आसान बनाने, भ्रष्टाचार कम करने,
राज्यों के बीच वस्तुओं की आवाजाही सुगम करने जैसे आर्थिक नुक़्तों पर टिकी हुई है
सो राजनैतिक सवालों का दरकिनार होना लाज़िमी ही था। आर्थिक पहलू से देखें तो पहली नज़र
में यह विधेयक अर्थव्यवस्था के लिए बेहतर लगता है। दो साल बाद ही सही, इस विधेयक के
लागू होने के बाद चौराहे चौराहे दिखने वाली तमाम चुंगियाँ नहीं दिखेंगी। चुंगियाँ ग़ायब
होंगी तो उनके साथ जुड़ी तमाम रिश्वत, निजी वसूली और भ्रष्टाचार भी ग़ायब हो जाएगा।
इसके साथ एक और बड़ा बदलाव होगा- यह कि तमाम राज्यों में चीज़ों की अलग अलग क़ीमत की
वजह से महँगाई वाले राज्यों के नागरिक कार जैसी महँगी चीज़ें अक्सर पड़ोसी राज्य से
चीज़ें ख़रीद लाते हैं। इससे उस राज्य को होने वाले राजस्व नुक़सान के साथ साथ उनके
बीच होने वाली आपराधिक तस्करी में भी कमी आएगी।
पर इन सबसे कहीं
ऊपर वो फ़ायदा है जो उत्पादित सामान में जोड़े गए मूल्य भर पर कर लगाने से न केवल उनके
ऊपर कर कम करेगा बल्कि उनके लागत को बढ़ा और मुनाफ़े को कम कर दिखाने के करचोरी के
प्रयासों को भी नुक़सानदेह बना देगा। ऐसा इसलिए क्योंकि उन्हें इस विधेयक के तहत अपनी
लागत और विक्रय मूल्य दोनों को साफ़ साफ़, दस्तावेज़ों के साथ दिखाना पड़ेगा और अगर
वह ऐसा नहीं करते तो उनके ऊपर कर बढ़ेगा, घटेगा नहीं। इस दस्तावेजीकरण से अब तक राजस्व
विभाग की निगाह से छिपी रहने वाली पूँजी का एक बड़ा हिस्सा सामने आएगा।
इस विधेयक से एक
और बड़ा फ़ायदा यह है कि इसने अब तक उत्पादन वाले राज्य में कर वसूली की व्यवस्था को
बदल कर इसे उपभोग आधारित बना दिया है सो इससे उत्पादन और उपभोग आधारित राज्यों के राजस्व
अंतर में कमी आएगी। इसको और आसान शब्दों में कहें तो अब तक उत्तर प्रदेश या मध्य प्रदेश
जैसे उन राज्यों को जहाँ उत्पादन गतिविधियाँ कम हैं अपने निवासियों द्वारा उपभोग किए
जाने वाली वस्तुओं पर कोई राजस्व नहीं मिलता था। वह सारा राजस्व उन राज्यों के पास
जाता था जहाँ इन वस्तुओं का उत्पादन होता था। अब इस नए कर के बाद उन्हें भी अपना हिस्सा
मिलेगा और यह एक बेहतर निर्णय है क्योंकि उपभोग यानी माँग ही न हो तो आपूर्ति के लिए
निर्माण होगा ही क्यों?
यह वही बात है
जो सीपीएम के अंदर मतभेद के रूप में सामने आयी थी जब केरल के वित्त मंत्री टॉमस इज़ाक
ने जीएसटी का खुला समर्थन करते हुए इसे केरल जैसे उपभोग आधारित राज्यों का राजस्व बढ़ाने
के लिए बेहतर बताया था। यह वह नुक़्ता भी है जिसकी वजह से तमिलनाडु जैसे उत्पादन आधारित
राज्य इस विधेयक के अब भी विरोध में हैं।
यह विधेयक अभी
तक तो आम उपभोक्ताओं के लिए भी बेहतर ही लग रहा है। उम्मीद है कि अब तक अलग अलग करों
के साथ सभी वस्तुओं और सेवाओं पर 30-35 प्रतिशत तक पहुँच जाने वाला कर
नीचे आकर 20-25 तक सिमट जाएगा
सो आम तौर पर चीज़ें सस्ती होंगी। पर फिर यह उम्मीद ही है क्योंकि बाज़ार का अपना एक
अर्थशास्त्र होता है जिसमें क़ीमतें ऊपर तो जाती हैं, पर नीचे कम ही आती हैं। सो यह
देखना होगा कि इस बार वह बदलता है या नहीं।
अभी के लिए बड़े सवाल सामने हैं जिनके जवाब इस विधेयक
के लागू होने के साथ ही मिलने शुरू होंगे। संघीय ढाँचे का सवाल उनमें से सिर्फ़ एक
है। एक और बड़ा सवाल है कि राजस्व जुटाना राज्य सरकार की ज़िम्मेदारी न रही तो उन्हें
फ़िज़ूल खर्ची से कैसे रोका जाएगा। यह भी कि अब तक जनता शिक्षा, स्वास्थ्य, बिजली,
पानी सड़क जैसी राज्य सूची वाली ज़रूरतों के लिए राज्य सरकारों को चुनती रही है, पूरा
न करने पर हराती रही है। कर वसूली के पूरी तरह केंद्रीय सरकार के पास चले जाने पर इन वादों/सुविधाओं को पूरा ना करने पर जनता क्या करेगी?
सरल शब्दों बहुत अच्छा विश्लेषण .अगर आपकी अनुमति हो तो इसे सिविल सेवा के विद्यार्थियों के लिए अपने साईट पर लगाना चाहूंगा (आपके ब्लॉग लिंक के साथ).
ReplyDeleteबिलकुल लगा दें राजीव जी।
Deleteधन्यवाद :-)
ReplyDeleteधन्यवाद
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