ग़ैरइस्लामी तुरंत तीन तलाक़ और लिबरल कठमुल्ले

प्यारे मुसलमान दोस्तों- ख़ासतौर पर स्त्रियों

सोशल मीडिया पर अक्सर मुस्लिम नामों वाले ऐसे 'लिबरल' नज़र आते हैं जो औरतों की बदहाली पर दुखी रहते हैं बशर्ते वह बदहाली मनुस्मृति मानने वालों के हाथों हो रही हो। वे खाप पंचायतों के ड्रेस कोड से लेकर लड़कियों के मोबाइल इस्तेमाल न करने जैसे फ़तवों से लेकर (अ)सम्मान हत्यायों पर ठीक ही उबलते रहते हैं। पर फिर बुर्क़े, तुरंत तीन तलाक़ से लेकर लड़कियों के लाइब्रेरी जाने तक का कोई मसला सामने आया नहीं कि इनका लिबरलिज़्म वो गुलाटी मारता है कि औरतों को बच्चा पैदा करने की मशीन बना देने पर आमादा इनके संघी भाई भी शर्म से पानी पानी हो जाएँ। 

अब देखिए न, बुर्क़े के ख़िलाफ़ स्त्रियाँ बोलीं नहीं कि ये क़ुरान निकाल लाते हैं- उसमें हिजाब दिखाने लगते हैं। बिना ये बताए कि हिजाब का मतलब पर्दा है- बुर्क़ा नहीं कि औरतों को चलता फिरता तंबू बना के क़ैद कर दो- सर पर चादर भी हिजाब ही है।

पर वही बात तुरंत तीन तलाक़ को मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के समर्थन की हो तो इनकी गुलाटी और ज़बरदस्त होती है- उस पर ये क़ुरान नहीं निकालते। निकालें भी कैसे- क़ुरान के मुताबिक़ तुरंत तीन तलाक़ ग़लत है, ज़्यादातर इस्लामिक देशों में प्रतिबंधित है। तुर्की ने तीन तलाक़ (तुरंता) को 1926 में प्रतिबंधित कर दिया, इजिप्ट ने 1929 में, सूडान ने 1935 में, ट्युनिसिया ने 1956 में, पाकिस्तान ने 1961 में. जी, पाकिस्तान ने भी- वह भी इस्लामिक गणराज्य (इस्लामिक रिपब्लिक) बनने के बाद। अब तय करिए कि हिन्दुस्तान में मुसलमान औरतों की माँग पर 2016 में प्रतिबंधित कर दिया जाय तो खतरे में कौन पड़ेगा- इस्लाम कि ठेकेदार? 

सो उस पर ये नए नए तर्क निकालते हैं- पहले तुरंत तीन तलाक़ (एक बार में दिए गए) के विरोध को बड़ी सफ़ाई से तलाक़ का ही विरोध बनाने की कोशिश करते हैं- उसमें पकड़े जाते हैं क्योंकि पूरा तरक़्क़ीपसंद आंदोलन बोले तो प्रगतिशील आंदोलन ही सती से लेकर बेमेल और हिंसक विवाहों में फँसी स्त्रियों के तलाक़ के अधिकार का समर्थन करता है। इतना ही नहीं- वह तो शादियाँ ऐसे ही न चल रही हों तो भी तलाक़ के हक़ के साथ खड़ा होता है- सहमति से अलग हो जाने के हक़ के साथ- फिर वह ईसाईयत के "जब तक मृत्यु हमें अलग न कर दे" वाली शादी के ख़िलाफ़ हो या सनातनियों के सात जन्मों वाली शादी के। 

तब ये नए नए तर्क गढ़ते हैं- तीन तलाक़ एक बार में देने का 'हक़' न मिला तो पति पत्नी की हत्या कर देगा जैसे तर्क। बाक़ी आँकड़े नहीं देते कि जिन धर्मों में एक बार में तीन तलाक़ नहीं है वहाँ पत्नियों की हत्या ज़्यादा हो है या जिन इस्लामिक देशों में एक बार में तीन तलाक़ ग़ैरक़ानूनी है वहाँ ज़्यादा हो रही हैं। 

बाक़ी ऐसे 'बड़े' मामलों में भूल ही जाइए- इनके लिबरलिज़्म का बुर्क़ा उस किसी भी जगह सरक जाता है जहाँ बात मुस्लिम महिलाओं के हक़ की हो- अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय की सेंट्रल लाइब्रेरी में लड़कियों के जाने की इजाज़त न होने का इनका समर्थन याद है? बाक़ी हर मुद्दे पर ये ज़रूर ख़ामोश रहते हैं- एक स्टेटस लगा फिर बीफ़ के नाम पर इंसानों का क़त्ल पर चुप होकर सपा/बसपा/कांग्रेस/मीम कहीं भी अपनी ठेकेदारी की जुगत में लग जाते हैं। 

इन्हें ठीक से पहचानिए। हक़ हकूक की ही नहीं, अमन और इंसाफ़ की लड़ाई की राह में ये ठीक वैसे रोड़े हैं जैसे इनके कुम्भ/हज में बिछड़े संघी भाई।

आपका 
बस अभी इनके द्वारा संघी क़रार दिया जाने वाला अपना 
समर 

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