10 सितंबर 2016
को सूरज ढलते न ढलते लाल
है लाल, जेएनयू लाल है के नारों से गूँज उठे जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय के लिए उस
शाम में कुछ भी नया नहीं था। न वाम खेमे की जीत, न परिषद की शर्मनाक हार। न सांप्रदायिकता
को देश का सहजबोध बनाने की मुश्तरका कोशिशों के ख़िलाफ़ जेएनयू का संघर्ष, न जीत। लगातार
नए निज़ाम के निशाने पर रहे विश्वविद्यालय
को देश का ‘दुश्मन’ बना देने की साज़िशों के बावजूद जेएनयू को जिए हुए हम जैसे तमाम
लोगों को इस शाम होने वाला फ़ैसला भी पता था, और उस पर होने वाली दोतरफ़ा प्रतिक्रियाएँ
भी। मूर्तियों के खंडित होते रहने के दौर में विरोध का एक प्रतिदर्श बचाए रखने की ज़िद
वालों का जीत का उन्माद भी और बहुलवादी भारत में राष्ट्रवाद का हेंगा चला उसे हिन्दूवादी
बना देने के सपने देखने वालों से सीने में फिर से उतर गए हार के नश्तर का दर्द भी।
यहाँ एक मिनट के
लिए चुनावी जीत की बात परे रख सोचते हैं कि सवा अरब के देश में सत्ता पर क़ाबिज़ लोगों
की आँखों में बस 8000 विद्यार्थियों वाला जेएनयू इतना क्यों चुभता है। जवाब है, अवाम
के हक़ और इंसाफ़ के लिए किसी भी ताक़त से लड़ जाने की अपनी रवायत और विरासत की वजह
से। आख़िर को ये जेएनयू आपातकाल से लेकर देश बेचू नयी आर्थिक नीतियों तक से लगातार
जूझने वाला जेएनयू है, उच्च शिक्षा में आरक्षण लागू होने के दशकों पहले से प्रगतिशील
प्रवेश नीति लागू कर दूरदराज़ से आए छात्रों को और सभी छात्राओं को अतिरिक्त अंक देने
वाला जेएनयू है, छात्रसंघ के नेतृत्व में संघर्ष कर जेंडर
सेंसिटाइजेशन कमेटी अगेंस्ट सेक्सुअल हैरेसमेंट बनवाने वाला जेएनयू है।अकारण ही नहीं है कि देश के सुदूर इलाक़ों में जनता के बीच काम
कर रहे जितने सामाजिक कार्यकर्ता जेएनयू ने दिए उतने उससे हज़ार गुना संख्या वाले संस्थान
भी शायद नहीं दे सके हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो विकल्पहीनता के तर्क का सिर्फ़
नकार ही नहीं, एक जीता जागता उदाहरण देता है जेएनयू और यह सत्ता को डराने के लिए बहुत
है।
ऐसे परिसर में
फ़रवरी के बाद, दरअसल मोदी सरकार के आने के बाद से ही अनवरत हमलों के बाद प्रतिरोध
को ही मज़बूत होना था। इसीलिए हम जैसे ‘जेएनयू वाले’ दुनिया में जहाँ भी बैठे हों-
दक्षिणपंथी अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के इस चुनाव में जीत जाने की सम्भावना की
बात सुनते थे, मीडिया में ऐसी ख़बरें देखते थे तो बस हँस पड़ते थे। कहाँ तो बिहार जैसा
पिछड़ा कहा जाने वाला प्रदेश भी जुमलों और मीडिया मैनजमेंट को नकार प्रतिरोध की राजनीति
के साथ खड़ा था और कहाँ जेएनयू के हार जाने के शगूफ़े! वह भी तब जब परिसर के ग़ुस्से
के मद्देनज़र इस चुनाव में परिषद की अध्यक्ष पद की दावेदार को भी कहना पड़ा था कि उनका
भारतीय जनता पार्टी से कोई रिश्ता नहीं है और वह उनकी बेवक़ूफ़ियों पर जवाब नहीं देंगी!
सो फिर से वही, अंतिम फ़ैसला तो यही होना था। वाम-जनवादी जीत और राष्ट्रवाद के हिन्दुवादी
और हिंसक प्रतिदर्श की हार।
पर फिर इस चुनाव
में सबकुछ पुराना भी नहीं था। वाम खेमे में डर न सही, चिंता बहुत साफ़ थी। एक तरफ़
कुछ लिंगदोह मॉडल लागू होने के असर और कुछ विभाजित वाम के चलते पिछले चुनावों में दशकों
बाद परिषद की सेंट्रल पैनल में जीत थी तो दूसरी तरफ़ मीडिया ट्रायल के बाद आए हज़ारों
नए छात्रों के साथ पूरा समय भी कहाँ मिला था। पर इन सबसे ऊपर बहुजनवादी राजनीति के
साथ बिरसा अंबेडकर फुले स्टूडेंट्स असोसीएशन (बापसा) का उदय, जो अब तक के सारे वाम
समीकरणों को बिगाड़ सकता था।
अस्मिता या किसी
मुद्दे पर आधारित संगठनों का जेएनयू में आना आम बात रही है। 2006
में यूथ फ़ॉर इक्वालिटी(वाईएफ़ई) उसका
सबसे बड़ा उदाहरण है। इक्वालिटी का मज़ाक़ उड़ा अपना नाम रखने वाले उस संगठन ने भी
वामपंथी खेमे के चेहरे पर चिंता की लकीरें पैदा की थीं पर फिर उनमें और बापसा में एक
बुनियादी फ़र्क़ था- ज़मीन का फ़र्क़। वाईएफ़ई जेएनयू के प्रगतिशील सहजबोध के ख़िलाफ़
खड़ी थी और बापसा उस के साथ। बापसा वामपंथ की अपनी ज़मीन पर खड़ी है- बराबरी और सामाजिक
न्याय, हाशिए पर पड़े लोगों के हक़ और हकूक की ज़मीन।
अफ़सोस, इसी ज़मीन
पर वामपंथी खेमे की ग़लतियों की तमाम इबारतें भी दर्ज हैं। पहली अपनी सक्रियता को राजनैतिक
सांस्कृतिक सवालों से परे कर आर्थिक मुद्दे पर ट्रेड यूनियनिज़्म में समेट देना। दूसरी
उससे भी बड़ी- सांप्रदायिक फ़ासीवाद के बेहद बड़े ख़तरे से लड़ने के दबाव में उसने
सड़क पर सामाजिक न्याय की लड़ाई की ज़मीन ही नहीं बल्कि प्रतिनिधित्व का हिस्सा भी
लगभग छोड़ ही रखा था।
दलित-बहुजन साथियों
ही नहीं, हम सबको सभी बड़ी कम्युनिस्ट पार्टियों के नेतृत्व में दलित बहुजन समुदायों
की लगभग अनुपस्थिति बेहद साफ़ दिखती है। मंडल के बाद की भारतीय राजनीति में बहुजन और
दलित अस्मिता के उभार के बावजूद ऐसी छवि आत्महत्या का प्रयास करने जैसी ही थी और वही
हुआ भी। एक तरफ़ बहुजन अस्मिता की लड़ाई के नाम पर मुलायम सिंह यादव, लालू यादव से
लेकर दलित अस्मिता के साथ बहन मायावती जैसे नेताओं का उभार और दूसरी तरफ़ हिंदी पट्टी
में वामपंथी धमक वाले इलाक़ों का सिमटता जाना। याद करिए कि बिहार में बेगूसराय से लेकर
उत्तर प्रदेश के ग़ाज़ीपुर-मऊ जैसे इलाक़े कभी लेनिनग्राद काहे जाते रहे हैं, कम्युनिस्ट
सांसद विधायक चुनते रहे हैं।
यह कहने का मतलब
बिलकुल नहीं है कि सांप्रदायिकता से लड़ाई कोई छोटी या बाद की लड़ाई थी। पर फिर-सामाजिक
न्याय की लड़ाई भी उतनी ही ज़रूरी थी। लालू यादव ने यह बात पहचानी और मुस्लिम-यादव
गठजोड़ बना दोनों लड़ाइयों को साथ लड़ सकने, या कमसेकम ऐसा भ्रम बनाए रखने का, उदाहरण
दिया। वामपंथ ऐसा नहीं कर सका और अप्रासंगिक होता गया।
अपनी जमीन पर ऐसे
संकट के साथ फिर इन चुनावों के ठीक पहले परिसर में हाल के दौर में सबसे मज़बूत वामपंथी
संगठन आइसा के एक राष्ट्रीय नेता और जेएनयू के ही छात्र पर बलात्कार का आरोप लग जाना
वामपंथी खेमे के लिए एक और झटका था। उम्मीद के मुताबिक़ आइसा के आरोपी पर तुरंत कार्यवाही
करने के बावजूद परिषद से लेकर मीडिया तक इस घटना को ले उड़े थे और इसे एक व्यक्ति का
अपराध (या एक संगठन का ही) बल्कि जेएनयू का मूल चरित्र साबित करने में जुट गए थे।
फिर इसके बाद वह
हुआ जो अकल्पनीय था। ऐसे हमले के बीच वाम एकता के नाम पर वह आइसा और एसएफ़आई साथ आ
गए जो वामपंथी ज़मीन पर सिर्फ़ अपनी दावेदारी के लिए अब तक एक दूसरे के सबसे बड़े दुश्मन
रहे थे। जेएनयू को जानने वालों के लिए यह ख़ुशी की बात होने के बावजूद एक झटका देने
वाली ख़बर भी थी। आख़िर कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया (मार्क्सवादी) के छात्रसंगठन
एसएफ़आई और कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) लिबेरेशन के बीच
‘असली’ वामपंथी होने की लड़ाई कोई नयी लड़ायी नहीं है। सिंगूर नंदीग्राम के दिनों में
वामपंथियों ने इस झगड़े का चरम देखा है जब आइसा/लिबरेशन के कार्यकर्ता सीपीएम/एसएफ़आई
के कार्यकर्ताओं को देखते ही संशोधनवादी ही नहीं बल्कि तापसी मलिक का हत्यारा तक कहते
रहे हैं। बेशक उसके बाद ज़मीनी सच्चाइयों के मद्देनज़र बिहार चुनावों में दोनों को
साथ आना पड़ा हो, जेएनयू में वे अलग और लगभग दुश्मन ही रहे हैं।
ऐसे हालात में
‘वाम एकता’ के दावे के बावजूद एआईएसएफ़ और डीएसएफ़ जैसे दो वामपंथी संगठनों को छोड़
कर ही सही उनका साथ आना इस चुनाव के परिणाम को तय करना ही था। ख़ैर, इससे नाराज़ डीएसएफ़
ने संयुक्त सचिव पद पर चुनाव लड़ा और तमाम दुष्प्रचार के बावजूद दूसरे स्थान पर रहा।
यह वाम खेमे के लिए दूसरी सबसे बेहतर ख़बर और इस बात का सबूत मानी जा सकती है कि जेएनयू
में अब भी मुख्य बहस वाम-जनवादी-सामाजिक न्याय खेमे के भीतर ही है।
पर फिर बापसा का
अध्यक्ष पद पर दूसरे स्थान पर रहने के साथ बाक़ी पदों पर भी शानदार प्रदर्शन वाम खेमे
के लिए एक चेतावनी भी है और कोर्स करेक्शन का मौक़ा भी। यह चुनाव संगठनों की जीत हार
से ज़्यादा दक्षिणपंथी खेमे के हमलों के बीच जेएनयू को ज़िंदा रखने के सवाल पर लड़ा
गया था सो अब तक संघर्षों के हिरावल रहे वामपंथ की जीत लगभग तय ही थी। पर फिर बापसा
के उभार ने उसके भीतर की दिक़्क़तों को सामने लाकर रख दिया है। अब अगर उन्होंने सामाजिक
न्याय, अस्मिता और उनसे जुड़े प्रतिनिधित्व के सवालों पर रूख साफ़ और बेहतर न किया
तो यह ठीक वैसे अंत की शुरुआत भी हो सकती है जो उन्होंने दलित-बहुजनवादी राजनीति के
उभार के साथ हिंदी पट्टी में झेला है।
आइसा-एसएफ़आई के
असहज सही स्वागतयोग्य गठबंधन के लिए इन सवालों से जूझना शायद आसान नहीं साबित होने
वाला। अपनी ख़ुद की प्रतिद्वंदिता का भूत छोड़ें ही, अस्मिताओं और उनमें भी जाति का
सवाल उनके मातृसंगठनों के लिए भी आसान सवाल नहीं रहा है। ऐसा सवाल जिसके जवाब अस्मिताओं
को छद्म चेतना कह क्रांति के बाद का कार्यभार बताने से लेकर पश्चिम बंगाल में वाममोर्चे
के बड़े नेता और पूर्व मंत्री सुभाष चक्रवर्ती के ख़ुद को पहले हिन्दू, फिर ब्राम्हण
फिर कम्युनिस्ट बताने तक में घूमते रहे हैं।
पर फिर बापसा के
उभार ने साफ़ कर दिया है कि अब वाम खेमे के पास न इस सवाल को मुल्तवी करने की सहूलियत
बाक़ी बची है न ही प्रतिनिधित्व से इंकार की। भारत में जातीय गोलबंदियों के सहारे सामंतवाद
से लड़ाई की राजनीति शुरू करने वाले डॉक्टर लोहिया की बात याद करें तो ज़िंदा क़ौमें
पाँच साल भी इंतज़ार नहीं करतीं यहाँ तो क्रांति तक की गुज़ारिश है। दूसरे बापसा ने
वाम से हम नहीं तो परिषद आ जाएगा वाला ब्रमहास्त्र भी छीन लिया है।
संदेश साफ़ है-
जीत मुबारक पर सामाजिक न्याय पर कोर्स करेक्शन अनिवार्य है साथियों। वैसे भी बापसा
वाम का दुश्मन नहीं स्वाभाविक सहयोगी है। हमने संदेश सुन लिया तो बचा रहेगा, बना रहेगा
जेएनयू। नहीं, तो इबारत साफ़ है।
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