गंगाजमनी तहजीब जिंदा रखने की जिद की कीमत तो चुकाई, पर हारा नहीं अयोध्या

[एलएन स्टार, भोपाल में 4-12-2016 को प्रकाशित]

अयोध्या- घाघरा नदी को कुछ किलोमीटर के लिए सरयू बना देने वाला एक खामोश सा कस्बा! अयोध्या- फिर धीरे धीरे राजनीति की भेंट चढ़ दुनिया के लिए बड़े झमेले का, डर का नाम बन जाने वाले क़स्बा! फैज़ाबाद का जुड़वाँ क़स्बा!

पर फिर, यह सब 'बाहरी' लोगों के लिए. हमारे लिए तो हमेशा वह बहुत प्यारा सा कुछ और ही रहा- गांव से बस 28 किलोमीटर दूर हमारी हाट बाजार, सरयू उस पार नानी के घर जाते हुए पड़ने वाला पड़ाव, बस में बगल बैठे बुजुर्गों की प्यारी सी झिड़की- सरजू माई आय गयीं, हाथो न जोड़बा? वो कस्बा जहाँ पापा पढ़ने आये थे और जहाँ से पहले छात्रसंघ अध्यक्ष फिर प्राध्यापक बन कर लौटे. वह क़स्बा जहाँ का लगभग हर दुकानदार पापा के रहने तक उन्हें नाम से बुलाता था- कस हया जगन्नाथ भैया । वह क़स्बा जिसने मुझसे हमेशा पूछा- तुहूं पापा की तरह तेज तर्रार हया कि बस- चला बतावा दू बटे पाँच दशमलव मा केतना होये। वह कस्बा जिसकी मिट्टी में पुरखों की राख शामिल है, जिसमें पिछले साल मुझे भी पापा को विदा कर आना पड़ा.
जी. लोग अयोध्या की बात करते हैं, हमारे भीतर अयोध्या जीता है. वो अयोध्या जिसको कुछ लोगों ने अपनी राजनीति का ईंधन बना लिया- मंदिर वहीँ बनाएंगे! फिर उसके जवाब में कुछ और लोगों ने. और लीजिये- राम जन्मभूमि आंदोलन के नाम पर पीछे सड़क पर दंगे और लाशें छोड़ता जाता हुआ एक रथ था. फिर उन दंगों और लाशों का बदला लेने का दावा करते हुए कुछ बम थे. बाकी दोनों को न अयोध्या से मतलब था, न किसी मंदिर से, न किसी मस्जिद से. अयोध्या में तो रामलला विराजमान की पूजा भी हो ही रही थी, नमाज पढ़ने को मस्जिदें भी खूब थीं!

उनके लिए अयोध्या उनकी सत्ता पाने की हसरतों का रास्ता भर था! सो दोनों ने कुछ किया नहीं- मंदिर मस्जिद के नाम पर लोगों को लड़ाते रहे, सत्ता में आते रहे. अब मुद्दा कोई भी हो बार बार लोगों को भड़काने के लिए इस्तेमाल नहीं किया जा सकता- सो धीरे धीरे वे भूलते भी गए! मंदिर वाले हों या मस्जिद वाले- अब दोनों को अयोध्या की याद कभी आ भी जाए तो बस चुनावों के वक़्त आती है!

पर अफ़सोस- उनकी सत्ता की हसरतों के रास्ते में पड़ जाने की कीमत अयोध्या को खूब चुकानी पड़ी और उसके हम जैसे बच्चों को भी. बाकी कस्बों में फैक्ट्रियाँ खड़ी होती रहीं, अयोध्या में सुरक्षाबलों के टेंट। बाकी कस्बों के लिए कर्फ्यू बस कभी कभार हो जाने वाला हादसा रहा, अयोध्या के लिए साल में कम से कम 3 बार का त्यौहार- अयोध्या की अपना दशहरा दीवाली और ईद! आप इलाहाबाद विश्विद्यालय से घर लौट रहे हैं और लीजिये- फिर किसी को किसी वजह से मंदिर बनाने की याद आ गयी और आप फैज़ाबाद में अटक गए- आपके और आपकी माँ के बीच में कर्फ्यू खड़ा है!

कभी किसी और शहर और अयोध्या की 30 साल पुरानी और अब की तस्वीर को साथ रख कर गौर से देखिएगा! समझ आएगा मैं क्या कह रहा हूँ! राम मंदिर 'आंदोलन' के तीस साल मेरे बचपन से अब चालीसवें पतझड़ से बस तीन कदम दूर खड़े होने के भी साल हैं. वे साल जिसमें मैंने बाकी हर शहर को बेतरह बदलते, बड़े होते देखा बस अयोध्या ठिठका खड़ा रह गया.

बस इतना बेहतर है कि अयोध्या अब भी वही अयोध्या है जो राम जन्मभूमि 'आंदोलन' के पहले था . वह कस्बा जहाँ आज तक एक भी दंगा नहीं हुआ। जी हाँ, अयोध्या के नाम पर दुनिया हर में दंगे करवाने वालों के मुँह पर गंगाजमनी तहजीब का तमाचा है हमारा कस्बा! वह कस्बा जहाँ बाबरी मस्जिद के मुख्य पैरोकार रहे हाशिम अंसारी चचा के जनाज़े के आगे भीगी आँखों के साथ हनुमान गढ़ी के महंत खड़े होते हैं और पीछे तमाम संतों की फ़ौज।

वही अयोध्या जहाँ ढह रही आलमगीर मस्जिद को फिर से बनाने के लिए हनुमानगढ़ी जमीन ही नहीं देती, निर्माण में आने वाला खर्च उठाने की बात ही नहीं करती बल्कि उसके बनने तक मुसलमान भाइयों को अपने परिसर में नमाज़ पढ़ने का न्यौता भी देती है. ये कहके कि यह भी खुदा का घर है! वो कस्बा जहाँ राम जन्मभूमि 'आंदोलन' वालों के कन्धों पे टंगी 'रामनामी' मुस्लिम जुलाहों के घर से निकल मुस्लिम रंगरेजों के यहाँ रंग तक ही उन तक पहुँचती है. वह कस्बा जहाँ खडाऊं बनाने वालों का नाम पूछियेगा तो झटका खा जायेंगे- हम पूछते थे- और बाकर चचा, खड़ाऊँ बढ़िया बिक रही है कि कम हो गए धरम करम वाले! और उनकी डांट खाते थे- काहे कम होई जैंहें? सबका अपने केस नास्तिक समझ लिहा है?

मैं जानता हूँ कि मेरा अयोध्या वही रहेगा!

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