[ नवभारत में 22 जनवरी 2017 को प्रकाशित।]
सोशल मीडिया क्या है यह समझने के लिए अभी हाल में बीएसएफ के जवान तेज बहादुर
यादव का सीमा पर तैनात जवानों के लिए इंतज़ामात में बदहाली का वीडियो जारी कर देने
पर उठे भूचाल से बेहतर कोई सूत्र नहीं है. दुनिया की किसी भी उग्र राष्ट्रवादी विचारधारा
के लिए सेना से ज्यादा पवित्र कुछ भी नहीं होता, अपने देश की वर्तमान सरकार के लिए भी नहीं है. यही वजह है कि तमाम सरकार
समर्थक बात बेबात किसी भी बहस में सेना को खींच लाते थे- वहाँ सीमा पर सैनिक शहीद
हो रहे हैं और तुम... और लीजिये जनाब. बहस पलट गयी.
ऐसे में किसी जवान का ऐसा कुछ कर देना जो राष्ट्र भक्ति को सेना भक्ति में बदल
देने की कोशिश वालों को उनके प्रति कम से कम लापरवाह साबित कर दे तो? तो वही हुआ जो होना था- एक के बाद तमाम जवान सामने
आते गए, सरकार किसी भी तरह हालात
सँभालने की कोशिश में लगी और सैनिकों के नाम पर राष्ट्रवादी बनते फिरते लोग एकाएक
या चुप हो गए या फिर उन जवानों पर ही पिल पड़े. हाँ दोनों हालातों में ही उनका मूल तर्क़ कि सेना
महान है, अप्रश्नेय है भहरा कर गिर पड़ा.
पर ऐसा हुआ कैसे? अगर सोशल मीडिया न होता तो
क्या किसी फौजी छावनी से ऐसी किसी खबर का छन कर बाहर निकल आना संभव था? सीधा जवाब है नहीं। इसलिए क्योंकि सोशल मीडिया ने
सूचना के प्रवाह को अराजक सही, आजाद किया है. उस सूचना के
प्रवाह को जिस पर नियंत्रण दुनिया के अब तक के इतिहास में सत्ता कायम रखने का सबसे
बड़ा हथियार रहा है. जी, कोई भी तानाशाह, कोई भी सत्ता किसी और चीज से उतना नहीं डरती जितना
वह सूचना के मुक्त हो जाने से डरती है- लोगों तक तमाम जानकारियों के निर्बाध
पहुँचने की संभावना से डरती है. यही वजह है कि हिटलर हो या अमेरिका समर्थित
निकारागुआ या अर्जेंटीना जैसे 'केला लोकतंत्रों' के मुखिया- सबकी कोशिश यही रही है कि सूचना संजाल पर
एकाधिकार बनाये रखा जाय, जनता तक वही सूचना पहुँचने दी
जाय जो वह चाहते हैं, जो उनकी सत्ता के लिए ख़तरा
नहीं बनेगी।
इसी नियंत्रण की इच्छा वह कारण भी थी जिसने शीतयुद्ध में अमेरिकी और सोवियत
दोनों खेमों को प्रोपेगंडा युद्ध में लगाया- जनता हमारी तरफ बेहतर है खुशहाल है की
छवि गढ़ने की जद्दोजहद में लपेटा। उस वक़्त जनता के पास कोई तरीका नहीं था कि वह
अपनी बात कह सके- वह सिर्फ श्रोता या 'ऑडियंस' थी. बेजुबान श्रोता जिसे सरकार
जो भी कहे उस पर हाँ करना है. सोशल मीडिया के उदय ने सूचना पर सत्ता के एकाधिकार
को ध्वस्त कर उसको जुबान दे दी. पहले आपके पास छापाखाने थे, जनता के पास कुछ नहीं। सोशल मीडिया का पहला रूप बन
के ब्लॉग आये तो ये एकतरफा रास्ता दोतरफ़ा हो गया. दिलचस्प बात यह कि इसी वजह से
ब्लॉग को अमेरिकी संविधान के प्रथम और क्रांतिकारी संशोधन के नाम पर 'फर्स्ट अमेंडमेंट मशीन' भी कहा जाता है. उसके बाद तो फिर खैर सिलसिला रेडियो
को चुनौती दे सकने वाले पॉडकास्ट तक गया- अब यू ट्यूब से लगायत लाइव वीडियो तक
अपने निजी चैनल जैसे कुछ तक आ पहुँचा है ये फ़साना फिर कभी.
ब्लॉग के रूप में शुरू हो जाने के बाद फिर सोशल मीडिया को कहाँ रुकना था.
ब्लॉग की अब भी एक सीमा थी- वहाँ जनता विचार रख सकती थी, टिप्पणियों में बहसें भी हो सकती थीं पर मामला अब भी
तात्कालिकता से बहुत दूर था. सो अगली कड़ी में सोशल नेटवर्किंग साइट्स आयीं जहाँ
दोस्त एक दूसरे से जुड़ सकते थे,
उसी समय और काल
में बातें कर सकते थे. यह शायद वह जगह थी जिसे सोशल मीडिया को बदल देना था और इसने
बदल भी दिया। लोगों के आपस में जुड़ सकने की संभावना कभी भी परिचितों तक नहीं
रूकती- वह हमेशा आगे बढ़ती है. छोटे से निजी घेरे से निकल मोहल्ले तक, मोहल्ले से निकल शहर तक, उससे भी आगे बढ़ किसी फ़ुटबाल टीम के समर्थकों तक, किसी राजनैतिक विचारधारा से जुड़ने तक, या यूँ ही किसी एक मुद्दे पर साथ खड़े हो सकने तक.
सोशल मीडिया ने यह तो किया ही,
अनजाने में ही
सत्ता के खिलाफ एक बड़ा हथियार भी बना लिया- अनाम होने का, अदृश्य होने का हथियार. आप ट्यूनीशिया की सड़कों पर
तब के तानाशाह के खिलाफ कुछ बोलते ही चिन्हित कर लिए जाते थे, और फिर परिणाम भुगतने के लिए भी. चुप करा दिए जाने
से लेकर मार दिए जाने तक. पर फिर आप सिर्फ एक प्रोफाइल हैं तब कोई फौज क्या करेगी? इस हथियार ने सोशल मीडिया को जैसा बदला वैसा किसी और
चीज ने नहीं बदला. ट्यूनीशिया से शुरू हुई आग देखते ही देखते मामला इस्तांबुल, यूक्रेन के कीव, आक्युपाई हांगकांग से लेकर हिन्दुस्तान तक पहुँच आया- काश्मीर में बात बेबात
इन्टरनेट प्रतिबंधित कर दिए जाने से लेकर जाट आंदोलन के समय हरियाणा और पटेल
आंदोलन के समय गुजरात का उदाहरण सहज याद आता है.
पर फिर, जनता का कोई भी हथियार सत्ता
की नज़रों से बहुत देर तक कहाँ बच पाता है. फिर समाज के भीतर अपने हजार विभाजन हों
तो और भी. अनाम होने, अदृश्य होने की सुविधा एक
दोधारी तलवार है. यह प्रतिरोध ही नहीं, सत्ता को भी अनाम होने का रास्ता थमाती है, अपने किये की जिम्मेदारी लेने से बच निकलने का रास्ता दिखाती है. सो जहाँ एक
तरफ सोशल मीडिया प्रतिरोध के संगठन का आधार बन रहा था वहीँ इस पर दूसरी तरफ ट्रॉल
नाम की उस प्रजाति का जन्म भी हो रहा था जो उस पर बिना किसी नैतिक सामाजिक
मर्यादाओं के पिल पड़ता है. यूँ तो पूरी दुनिया महिलाओं को बलात्कार और हत्या की
धमकी देने वाली ऐसी ट्रॉल सेनाओं से परेशान है, पर अपने देश में जहाँ प्रधानमंत्री मोदी भी ऐसे कुछ ट्रॉल्स के 'अनुयायी' (फॉलोवर) हैं वहाँ तो कहना ही क्या।
खैर, इस खटराग को छोड़ दें तो सोशल
मीडिया ने सारी दुनिया में एक और बड़ी जमीन तोड़ी है- तमाम लिख पढ़ रहे लोगों को एक
ऐसा मंच दिलाने की जमीन जो अब तक उनकी पहुँच से बाहर था. खुद अपने सोशल मीडिया
नेटवर्क पर नजर दौड़ाएं तो ऐसे तमाम लोग शानदार लिखते हुए, विमर्श करते हुए मिलेंगे जिनके पास पहले खुद को
अभिव्यक्त करने के लिए निजी दायरे से बाहर कोई जगह नहीं थी. एक मित्र का कुछ अरसे
पहले व्यंग में कहा वाक्य याद आया- देख रहे हो- सब आंटियाँ लेखिका हो गयी हैं.
अपना जवाब था- हाँ, उनमें से तमाम तुमसे बहुत
बेहतर भी. उस की नाराज़गी अपनी जगह,
पर सच में सोचिये
कि हमारे जैसे पितृसत्तात्मक समाज में अब के पहले एक साथ बोलती, कहती,
लिखती पढ़ती
स्त्रियों को कहाँ देखा था- हाईस्कूल वाली सपनीली आँखों वाली बच्चियों से लेकर
शादी के बाद अपनी कविताओं वाली डायरी किसी बक्से में छुपा आयी अब पचासवाँ छू रही
स्त्री तक! मतलब उन स्त्रियों को जिनका आखिरी परिवार के बाहर आखिरी भाषण, आखिरी नृत्य आखिरी नाटक स्कूल कॉलेज के वार्षिकोत्सव
में होता था, फिर कपड़ों के साथ यादों में तह
कर रख दिया जाता था.
बेशक सोशल मीडिया के अपने खतरे हैं और वही हैं जो समाज के हैं. समाज में
चौराहे पर जाती किसी भी लड़की पर यौन हिंसा कर सकने वाले शोहदे होंगे तो फेसबुक के
इनबॉक्स निरापद होने की उम्मीद बेमानी है. समाज में किसी असहमति पर माँ-बहन की
गालियाँ दे सकने वाले लोग होंगे तो सोशल मीडिया पर उनसे मुक्ति पाना बस दिवास्वप्न
भर हो सकता है. समाज में इनसे जूझना है तो सोशल मीडिया पर भी जूझना होगा।
सोशल मीडिया की एक दूसरी दिक्कत अलबत्ता है जो बेहद खतरनाक है- इस पर सब कुछ
की स्वतःस्फूर्तता। लिखने की, पढ़ने की, समझने की, सोच का विकास करने की, आगे बढ़ने की. हमारी पीढ़ी तक
में बोलना और लिखना एक सचेत काम होता था, वरिष्ठों द्वारा लगातार परखा जाता हुआ. कहीं कुछ गलती हुई नहीं कि डाँट पड़ी.
बेशक तब कई बार बुरा भी लगता रहा होगा पर फिर उन फटकारों ने चिंतन से लेकर लेखन तक
जो माँजा वो आज तक दिखता है. अफ़सोस,
सोशल मीडिया पर 'डिसलाइक' का बटन तो खैर नहीं ही दिखा,
असहमति के स्वीकार
का साहस भी बहुत कम मिला। वजह शायद वही- लिखे पर बरसते 'लाइक्स' 'सेलिब्रिटी' बनने का अहसास देते हैं, और फिर वह अहसास आपको वहीँ रोक देता है.
स्वतःस्फूर्तता बरतने की चीज है- रियाज़ करना पड़ता है. सोशल मीडिया ने एक पूरी पीढ़ी
से वह रियाज़ छीन सा लिया है!
बाकी लौटें तो सोशल मीडिया हमारे समय का सब कुछ है. काहिरा के तहरीर चौक पर हथियार बंद फौजों के
सामने भिंची मुट्ठियों के साथ खड़े तानाशाही से लड़ रहे आजादी के जियालों से लेकर
सुबह जागते ही उनींदी आँखों से फोन टटोल फेसबुक खोलने को आतुर हाथ- यह दो छवियाँ
सोशल मीडिया को जैसे परिभाषित कर सकती हैं दरअसल कुछ भी और नहीं कर सकता। जी, न हमारे समयों को अतियों का युग कहते एरिक हॉब्सबॉम
ने सोचा होगा कि यह अतियाँ सोशल मीडिया में मूर्त होंगी न ही धर्म को जनता का अफीम
बताते मार्क्स को जरा भी अंदेशा रहा होगा कि बस एक सदी में धर्म नाम की अफीम सोशल
मीडिया नाम की चिलम में पी जायेगी!
जहाँ फायदे की बात होगी वहां नुकसान का भी कॉलम होता है ..ये दीगर बात है कोई फायदा और नुकसान का सही-सही मूल्यांकन नहीं कर सकता ...सोशल मीडिया के भी कुछ फायदे तो कुछ नुकसान या कमियां भी है ..
ReplyDeleteबहुत अच्छी प्रस्तुति ..
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन ’दलबदल ज़िन्दाबाद - ब्लॉग बुलेटिन’ में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...
ReplyDelete