अमेरिका में नफ़रत के निशाने पर आप्रवासी भारतीय

राज एक्सप्रेस में 8 मार्च 2017 को प्रकाशित। 
कंसास, केंट और फिर वाशिंगटन-  कभी उन भारतीयों के सपनों का नाम होते थे जिनकी ख्वाहिशें हिन्दुस्तान की के अपने सपनीले शहर मुम्बई की जद में भी नहीं समाती थीं. सिर्फ 10 दिन में आप्रवासी/अनिवासी भारतीयों पर तीन जानलेवा हमलों के बाद अब वे एक दहशत का नाम हैं. समुदाय की रीढ़ की हड्डी में उतर आयी उस दहशत का नाम जिससे वे पहले कभी बावस्ता तक न थे. होते भी कैसे, संयुक्त राज्य अमेरिका के इस सबसे सफल, सुशिक्षित और धनी आप्रवासी समुदाय ने अमेरिकी सपने को दशकों नहीं, सदियों से अपने खून पानी से सींचा था, नासा से लेकर पेंटागन और सिलिकॉन वैली तक में बैठ उसको सैन्य महाशक्ति से ज्ञान महाशक्ति बनने का सफर तय करते देखने में अपनी भूमिका निभाई थी.

फिर अचानक यह जो हुआ वह किसी सदमे से कम न होना था, न हुआ. खासतौर पर इसलिए भी कि इस बार हमले जमाने से श्वेत दक्षिणपंथ का निशाना रही इस्लामिक पहचान पर नहीं बल्कि सीधे सीधे भारतीय पहचान पर हैं- दक्षिण एशियाई शक्लों पर हैं. 'अपने देश लौट जाओ' की धमकी के साथ हो रहे ये हमले अब किसी ख़ास पहनावे पर भी नहीं हैं- कंसास के बार में बैठे श्रीनिवास कुचिभोटला और केंट के अपने स्टोर में मौजूद हरनीश पटेल दोनों सामान्य अमेरिकी नागरिकों द्वारा रोजमर्रा पहने जाने वाले कपड़ों में ही थे. यहाँ से देखें तो साफ़ है कि पूरे समुदाय में डर उतर जाना लाजिमी है. या फिर सिर्फ समुदाय में ही क्यों- अमेरिकी अखबार न्यू यॉर्क टाइम्स के मुताबिक़ अब भारतीय समुदाय काम या और सिलसिलों में अमेरिका की यात्रा करने से भी घबरा रहा है. 

सवाल यह कि 9/11 उर्फ़ वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हमलों के बाद उपजे नफ़रत के माहौल और नस्ली हमलों से भी अछूता रहा भारतीय समुदाय अब निशाने पर क्यों है? बेशक कानून के शासन वाले किसी देश में किसी समुदाय के किसी एक भी व्यक्ति के खिलाफ ऐसी एक भी घटना का होना दुखद है, पर घृणा की राजनीति से जन्म लेती ऐसी घटनाओं को पूरी तरह से रोकना असंभव भी है. फिर भी तब यह दिखा था कि भारतीय समुदाय पर जो चंद हमले हुए भी थे वे सिख समुदाय के सदस्यों पर उनकी दाढ़ी के चलते पहचान की गलती से हुए थे. साफ है कि भारतीय पहचान तब नस्ली नफ़रत का निशाना नहीं थी.

यहाँ सवाल बनता है कि फिर वही समुदाय एकाएक निशाने पर कैसे आ गया. जवाब भी है, एकाएक नहीं आया. एक अरसे तक गर्भपात और समलिंगी विवाह जैसे कुछ धार्मिक मुद्दों, अश्वेत अमेरिकन और हिस्पैनिक्स जैसे नस्ली समुदायों से घृणा और हथियार रखने के अधिकार जैसे मुद्दों की जुगलबंदी  के दम पर टिके अमेरिकी दक्षिणपंथ ने अपनी रणनीति बदल कर आर्थिक मुद्दों पर भी निगाह गड़ानी शुरू की थी. बाद में तो वर्तमान राष्ट्रपति और तब के रिपब्लिकन पार्टी प्रत्याशी  डोनाल्ड जे ट्रम्प ने इसे ही अपने चुनाव अभियान का केंद्र बना दिया था. याद करें कि उन्होंने अपने चुनाव प्रचार के शुरूआती दौर से ही आप्रवासियों को अमेरिकी नागरिकों की नौकरियाँ चोरी करने का आरोपी बताना, उन्हें वापस भेजने की बात करना शुरू कर दिया था. यह भी कि इन आप्रवासियों में भारतीय, चीनी, मैक्सिकन्स और जापानी उनके ख़ास निशाने पर थे.

अफ़सोस, ट्रम्प के ऐसे बयानों पर और देशों से उलट भारत सरकार ने कोई कड़ा आधिकारिक ऐतराज भी  नहीं जताया और बेशक इससे श्वेत नस्लवादी ताकतों के हौसले बढ़े ही होंगे। अमेरिकी-भारतीय समुदाय से भी यहाँ एक चूक हुई, यह कि उन्होंने खुद भी भारत सरकार पर ट्रम्प चुनाव अभियान के ऐसे नफ़रत फैलाने वाले बयानों के खिलाफ हस्तक्षेप करने की माँग को लेकर कोई दवाब बनाने की बड़ी कोशिश नहीं की. शायद भारतीय सरकार और समुदाय दोनों यह सोच रहे थे कि अंततः ट्रम्प चुनाव जीत नहीं पाएंगे। पर अफसोस, कूटनीति तथ्यों और तर्कों से चलती हैं, कयासों से नहीं!

दुखद यह है कि इन हमलों के बाद भी भारतीयों की सुरक्षा के सवाल पर भारत सरकार की हीलाहवाली जारी ही लगती है. बेशक हमारी विदेश मंत्री ऐसे मामलों में लगातार और सार्थक हस्तक्षेप करती रही हैं, इस बार भी उन्होंने पीड़ितों की जानकारी ली, उनके स्वास्थ्य की सूचना देने वाले ट्वीट किये, अमेरिका में भारतीय राजनयिकों को उनकी मदद करने को कहा- पर यह सब दरअसल दूतावास के काम हैं. विदेश मंत्री का काम होता है तुरन्त अपने समकक्ष स्तर पर राजनयिक हस्तक्षेप करना, अपने नागरिकों की सुरक्षा की गारंटी माँगना, अपने देश में मौजूद उनके राजदूत को तलब कर कड़ा सन्देश देना, पर ऐसा कुछ ख़ास होता दिखा नहीं. आलम यह कि खुद भारतीय दूतावास ने इन हमलों को लेकर अमेरिकी स्टेट डिपार्टमेंट से आधिकारिक 'चिंता' जताने और भारतीय समुदाय की सुरक्षा करने की मांग करने में पूरे 10 दिन लगा दिए! तब तक जब बाकी 2 हमले भी हो चुके थे. फिर ट्रम्प के हमलों की निंदा करने में हफ्ते भर से ज्यादा का समय लेने पर आश्चर्य कैसा!

बावजूद इसके कि हमले में जान गँवा बैठे दोनों भारतीयों को वापस नहीं लाया जा सकता, शायद औरों को बचाने के लिए अब भी बहुत देर नहीं हुई है. बशर्ते भारत सरकार इस मुद्दे पर अपनी स्थिति कड़ी कर ट्रम्प प्रशासन से तीखा ऐतराज जताए और अपराधियों के खिलाफ त्वरित और समयबद्ध  कार्यवाही की माँग करे. साथ ही भारतीय समुदाय को भारत सरकार पर दबाव बनाना पड़ेगा कि वह ट्रम्प प्रशासन से 'आप्रवासियों के खिलाफ नफ़रत बढ़ा सकने वाली बयानबाजी तुरन्त बंद करने की माँग करे.  


यह नहीं किया तो हालात और बिगड़ेंगे ही. "घृणा का जो वातावरण बन गया है वह किसी में फर्क नहीं करता" कहते हुए भारतीय अमेरिकी समुदाय के नेता जसमीत सिंह यह ठीक समझ रहे हैं।  वह देख पा रहे हैं कि नफ़रत की आग अब दरवाजे पे है.

Comments

  1. आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन ’आओगे तो मारे जाओगे - ब्लॉग बुलेटिन’ में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...

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