सावरकर, भगत सिंह और नेताजी सुभाष चंद्र बोस- व्हाट्सप्प के पार का सच:


नोट. अंग्रेजी में एक शब्द होता है पोस्ट-फैक्टो: किसी घटना के गुज़र चुके होने के बाद की दृष्टि- जिसमें चीजें काफी साफ़ होती हैं. मेरा सावरकर पर यह लेख पोस्ट फैक्टो है- आम जनता ही नहीं, गांधी तक उन्हें 1921 तक तो क्रांतिकारी मानते ही थे- उनकी रिहाई की भी अपील की थी! सो यह ध्यान रखें।


सावरकर फिर चर्चा में हैं. फिर वही सदियों पुराने झूठों के साथ- सच्चाई तो इतने से साबित हो जानी चाहिए कि इतने वीर थे कि अंग्रेज़ों से 5 बार माफ़ी मांग 1921 में ही रिहा हो गए, वह भी 60 रुपया महीना की पेंशन के साथ! फिर जीवन में कभी अंग्रेजों के खिलाफ चूँ तक न की!


उल्टा भारतीयों को अंग्रेजी सेना में शामिल होने का आह्वान करते रहे! यह भी भूल जाएँ- अंग्रेजी राज ख़त्म होने के बाद गांधी हत्या के आरोपी होने, फिर सबूतों के अभाव में बच निकलने के बाद सावरकर लंबा जिए- 26 फरवरी 1966 तक.


रिहाई के बाद उन्होंने क्या किया? अगर कांग्रेस/सरकार- जिसमें संघ के मुताबिक़ भी महान माने जाने वाले लाल बहादुर शास्त्री जी की भी सरकार रही थी- गलत थी तो उन्हें संघर्ष करना चाहिए थे- आखिर कम से कम काला पानी तो ख़त्म ही हो गया था!

नहीं किया तो क्यों? सावरकर का संक्षिप्त इतिहास नीचे देता हूँ- अभी संघी झूठ कारखाने से फिर से चलाये जा रहे झूठों का बिंदुवार जवाब:


1. सावरकर वीर थे. अंग्रेजी राज के खिलाफ साजिश कर रहे थे. उनके ऊपर 5-5 मुक़दमे थे-


पहला- मजिस्ट्रेट ए एम टी जैक्सन की हत्या की साजिश का (काले पानी की सजा इसी में हुई). कमाल ये है कि सावरकर ने जीवन में कभी बंदूक छुई नहीं- हमेशा किसी को आगे किया- इस मामले में 18 साल के अनंत लक्ष्मण कन्हेरे को. उन्हें 19 अप्रैल 1910 को फांसी भी हो गई.


सवाल: भगत सिंह सहित सभी साथियों को सांडर्स की हत्या की साजिश के लिए फांसी हुई- जैक्सन की हत्या में में 4 में से 3 को हुई- अनंत को, कृष्णजी कार्वे को, और विनायक देशपांडे को! अंग्रेज बस सावरकर पर दयालु थे!


दूसरा मुक़दमा: लार्ड कर्ज़न वाइली की हत्या की साजिश का!


यहाँ भी गोली मदनलाल धींगरा ने चलाई! उन्हें फांसी हुई- शहादत मिली! सावरकर को अंग्रेजों ने छुट्टा घूमते रहने दिया। आराम से पेरिस भी जाने दिया, मैडम कामा के घर! बाद में पकड़ा भी तो फांसी नहीं दी- हिन्दुस्तान ले गए. फिर से ऐसी दयालुता! कमाल नहीं लगता?


बाकी मुकदमे लिखने पढ़ने और राष्ट्रदोह के हैं! आजकल भी लोगों पर खूब लग रहे हैं! सावरकर वीर थे तो वो तो महावीर हुए!


खैर, भारत लाये जाते समय जहाज से कूद के भागने की कोशिश किये- इंग्लैंड और फ़्रांस की शाश्वत दुश्मनी की वजह से मामला अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी चर्चित हुआ. भारत फिर भी लाये गए!


कुल 10 साल कालापानी में रहे, अंग्रेज़ों से 5 बार माफ़ी मांग 1921 में ही रिहा हो गए, वह भी 60 रुपया महीना की पेंशन के साथ!


झूठ 2: सावरकर को अंग्रेजों ने 27 जाल जेल रखा.


निरा झूठ- अंग्रेजों ने सावरकर को कुल 10 साल जेल में रखा- कालापानी में. उसके बाद के रत्नागिरी में 4 में जेल में नहीं थे- जिले से बाहर नहीं जा सकते थे. अगले 13 तो हाउस अरेस्ट के हैं- सरकारी पेंशन के साथ! अलमस्त!


झूठ 3: उनकी किताब 1857: वॉर ऑफ़ इंडिपेंडेंस का तीसरा संस्करण भगत सिंह और चौथा नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने छापा।

इस अति हास्यास्पद दावे पर ढंग से रोना आना चाहिए! भगत सिंह की जेल नोटबुक्स उपलब्ध हैं, उनका लिखा हुआ सब कुछ सार्वजनिक जगत में है! किन नेताओं का सम्मान करते थे, किनको पढ़ते थे. असेंबली में बम फेंकते समय फ्रांस के अराजकतावादी शहीद वैलियाँ का दिया नारा- बहरे कानों को सुनाने के लिए बमों के धमाके की ज़रूरत होती है लगाया था- फांसी के वक़्त लेनिन की जीवनी पढ़ रहे थे.

भगत सिंह ने प्रताप प्रेस कानपुर के दिनों में जो किताबें छापीं थीं उनके नाम हैं-

आयरिश क्रांतिकारी डॉन ब्रीड की आत्मकथा।
संभवतः शचीन्द्र नाथ सान्याल की बंदी जीवन का अनुवाद जिसके विज्ञापन पंजाबी अखबार कीर्ति में छपे वह जिसके संपादक मंडल के सदस्य थे और 1928 तक उसमें लिखते रहे थे!


इस फ़र्ज़ी दावे का भगत सिंह से लेकर उनके साथियों तक के लेखन में कहीं कोई ज़िक्र नहीं है! सावरकर के 1921 में माफ़ी मांग बाहर आ जाने के बाद क्रांतिकारियों के उनसे किसी रिश्ते की बात तक नहीं होती है. एक बार आज़ाद से उन्होंने किसी अल्पसंख्यक को मारने के लिए कहा तो

अद्भुत है न कि ऐसा आदमी सावरकर की किताब छापने का जिक्र तक न करे! का नाम तक लिखे! उलटा यशपाल ने अपनी किताब सिंहावलोकन में बताया है कि उनके हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी के लिए चंदा मांगने पर सावरकर के भाई बाबूराव ने जिन्ना को मारने के लिए पैसे देने की बात की- जिन्ना ने तब तक बंटवारे की मांग नहीं की थी- अगले 10 साल तक नहीं- और आज़ाद भड़क गए कि ये हमें पेशेवर हत्यारा समझता है!

सुभाषचंद्र बोस का उनकी किताब का चौथा संस्करण छापने का दावा और भी हास्यास्पद है!

नेताजी सुभाष चंद्र बोस ही थे जिन्होंने कांग्रेस का अध्यक्ष बनते ही 1938-39 में कांग्रेस में दोहरी सदस्यता की इज़ाज़त से हिन्दू महासभा और मुस्लिम लीग दोनों के सदस्यों को हटा दिया था.

उसके बाद भी उन्होंने अपने साप्ताहिक फॉरवर्ड ब्लॉक में 4 मई 1940 को सम्पादकीय लिखा था: शीर्षक था कांग्रेस और सांप्रदायिक संगठन। आगे उनके शब्द- अनुवाद मेरा:


"कुछ समय पहले तक कांग्रेस के नेता हिन्दू महासभा और मुस्लिम लीग जैसे सांप्रदायिक संगठनों के सदस्य हो सकते थे. पर अब समय बदल गया है, दोनों सांप्रदायिक संगठन और सांप्रदायिक हो गए हैं. इसलिए कांग्रेस ने संविधान में इन दोनों को सदस्यता न देने की धारा जोड़ दी है.


झूठ 4: नेता जी सुभाष चंद्र बोस ने आज़ाद हिन्द फौज की स्थापना सावरकर के निर्देशन में की!


यह तो हाहाकारी है! इतना ही काफी है कि आज़ाद हिन्द फौज के पहले रेडियो प्रसारण में में नेताजी ने महात्मा गांधी को सलाम भेजा था, उन्हें सुप्रीम कमांडर बताया था.


उनकी फौज के चारों ब्रिगेड के नाम थे: गांधी, नेहरू, सुभाष, आज़ाद और बाद में झाँसी की रानी रेजिमेंट।


नेताजी इसके पहले ही सावरकर और जिन्ना दोनों को ब्रिटिश साम्राज्यवाद का दलाल बता चुके थे! वह कहानी ऊपर लिख चुका हूँ!


झूठ 5: यह वाला बड़ी सफाई से लिखा गया है- कि सावरकर का बार बार माफ़ी मांग निकल आना 'रणनीति' थी, अंग्रेज सेना में भर्ती के लिए युवकों को प्रोत्साहित करना भी- ताकि बाद में सेना पर ही कब्ज़ा कर लें!


यह आधा सच भी होता तो हिन्दू महासभा के लिए आज़ाद हिन्द फौज में भर्ती होना सीधा विकल्प था- पर सावरकर अंग्रेजी फौज में भर्ती करवा रहे थे, श्यामाप्रसाद मुखर्जी बंगाल में मुस्लिम लीग के साथ सरकार चला रहे थे!


इस बार के आखिर में- मैं जानना चाहता हूँ कि भारतीय सेना के जनरल का 1962 का युद्ध हारने के बाद सावरकर के बारे में क्या कथन था? उस सावरकर के जो 1947 के पहले अंग्रेजों से दुबका बैठा रहा- उसके बाद नेहरू पटेल शास्त्री और इंदिरा गांधी से! इनमें से 2- पटेल और शास्त्री- के नाम की माला तो सावरकर के चेले भी जपते रहते हैं!


जनरल का न मिले तो तो सावरकर का ही कथन दिखा दिया जाय- कुछ बोले हों तो!


आगे सावरकर की माफियों का संक्षिप्त इतिहास:


अंग्रेजों ने सावरकर की खुद को महारानी विक्टोरिया का भटका हुआ बेटा तक बताने वाली तमाम माफियों के बाद 1921 में 60 रूपया महीना पेंशन के साथ रिहा किया।

सावरकर ने पहली माफ़ी अंडमान सेलुलर जेल माने काला पानी पहुँचने के 1 महीने में ही मांग ली थी- माने 30 अगस्त 1911 को.

इसके खारिज होने के बाद दूसरी मांगी 14 नवम्बर 1913 को. इसमें ही भटका हुआ बेटा बताया था, वादा किया था कि छूट गए तो और भटके हुओं को लौटाएंगे।

ये भी ख़ारिज हुई तब तीसरी मांगी 1917 में. वो भी खारिज हुई.

तब 4थी माफ़ी मांगी- अबकी बार माहौल जरा ठीक था उनके लिए- दिसंबर 1919 में सम्राट जॉर्ज पांचवे ने एक शाही घोषणा की थी- जिसमें भारत को घरेलू मामलों पर हक़ देने के साथ साथ रिश्ते बेहतर बनाने और राजनैतिक चेतना का स्वीकार भी था- सावरकर ने मौक़ा देखा और फिर माफ़ी मांग ली!

अँगरेज़ ठहरे मगर अँगरेज़- उन्होंने सावरकर के भाई गणेश सावरकर को रिहा करने का विचार किया पर सावरकर को नहीं।

कमाल यह कि इसी बीच गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने दोनों भाइयों की बिना शर्त रिहाई की मांग की जो अंग्रेजों ने फिर ख़ारिज कर दी.

फिर सावरकर ने पाँचवीं माफ़ी मांगी- अपने मुकदमे, सजा और ब्रिटिश कानून को सही मानते हुए और हमेशा के लिए हिंसा छोड़ देने का वादा करते हुए. इस बार अंग्रेजों ने पहले उन्हें काला पानी से रत्नागिरी जेल में भेजा फिर ऊपर बताई 60 रुपये की पेंशन के साथ रिहा कर दिया।

फिर जीवन में कभी अंग्रेजों के खिलाफ चूँ तक न की!

उल्टा भारतीयों को अंग्रेजी सेना में शामिल होने का आह्वान करते रहे! यह भी भूल जाएँ- अंग्रेजी राज ख़त्म होने के बाद गांधी हत्या के आरोपी होने, फिर सबूतों के अभाव में बच निकलने के बाद सावरकर लंबा जिए- 26 फरवरी 1966 तक.

रिहाई के बाद उन्होंने क्या किया? अगर कांग्रेस/सरकार- जिसमें संघ के मुताबिक़ भी महान माने जाने वाले लाल बहादुर शास्त्री जी की भी सरकार रही थी- गलत थी तो उन्हें संघर्ष करना चाहिए थे- आखिर कम से कम काला पानी तो ख़त्म ही हो गया था!

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