जनता की असुविधा बनाम प्रतिरोध का अधिकार: क्या किसान जनता नहीं हैं

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भारत में एक नया जिन्न पैदा हुआ है- 
जनता की असुविधा का. 

कहीं कोई अपने हक़ के लिए सड़क पर उतरे तो ये जिन्न उसके सामने खड़ा कर दो. कभी कभी तो बंदूक वगैरह के साथ, गोली तक चलवा के. पर सबसे पहले पूछते हैं कि ये जनता क्या है? कौन है? 



किसान भी जनता हैं या नहीं? या फिर जनता वही जनता है जिसे भारतीय जनता पार्टी के लोग जनता होने का प्रमाणपत्र देंगे बाकी लोग देशभक्त होने से खारिज होने के साथ साथ जनता होने से भी खारिज हो जायेंगे।


उन्होंने ये शाहीन बाग़ से शुरू किया था और अफ़सोस कि आज सड़कों पर बैठे किसानों का एक बड़ा हिस्सा भी उनके बहकावे में आ गया था. यह भूल कर कि तानाशाहों का मूल चरित्र तानाशाही ही होता है, कल शाहीन बाग़ में दिखाएँगे तो आज किसानों पर भी. खैर, शाहीन बाग़ प्रतिरोध नए नागरिकता संशोधन कानून और उसके साथ नागरिकता की रजिस्ट्री को लेकर शुरू हुआ था, भारत के संविधान की पंथनिरपेक्षता को चोट के साथ साथ अल्पसंख्यकों के खिलाफ जाने से भी शुरू हुआ था. गोदी मीडिया रेडियो रवांडा की भूमिका में था ही नए करेंसी नोटों में नैनोचिप लगवा सकता है तो नागरिकों को खलनायक बनाने की कोशिश भी कर ही सकता है.

हाँ अफ़सोस इस बात का कि इस बार किसान आंदोलन को लेकर शाहीन बाग़ न दोहराने वाले, कभी संविधान की रक्षा का अंतिम अस्त्र रहे सुप्रीम कोर्ट ने ने भी शाहीन बाग़ आंदोलन पर गलत राय ही नहीं बनाई थी बल्कि अपने पुराने और बड़ी बेंच वाले फैसलों को पलट कर प्रतिरोध के अधिकार को सीमित करने की कोशिश की थी. इस बार भी कृषि कानूनों परअदालत की बनाई कमिटी में न्याय होना ही नहीं चाहिए होते हुए दिखना भी चाहिए के मूल सिद्धांत को खारिज कर ऐसे चार लोगों को कमिटी में रखा जो सब के सब सरकारी कानूनों के साथ हैं.

खैर, उस पर बाद में आते हैं.

पहले इस पर कि सरकार के दमन की तमाम कोशिशों के बावजूद प्रतिरोध बढ़ाा ही है कम नहीं है. कभी जेएनयू, जामियाजैसे विश्वविद्यालयों से निकल अब किसानों के रूप में सड़कों तक आ गया है, दो महीने से ज़्यादा तक देश की राजधानी को घेर कर बैठा है. वह भी तब जब केंद्र और राज्यों की भाजपा सरकारों ने अपने इरादे पंजाब और हरियाणा की सीमा शम्भू बॉर्डर पर ही साफ़ कर दिए थे। शुक्र है किस उस दिन कोई हादसा नहीं हुआ पर एक संकरे से पुल पर किसानों को घेर वाटर कैनन, आंसू गैस के साथ लाठी चार्ज करने में कुछ भी हो सकता था! जलियांवाला का दोहराव भी.

पर इस शारीरिक दमन से ज़यादा दिक्कत उन हमलों में है जो प्रतिरोध के अधिकार पर किये जा रहे हैं. भले ही शाहीन बाग़ उन फैसलों से नहीं, कोविद के चलते लॉकडाउन से ख़त्म हुआ, सर्वोच्च न्यायालय की 3 सदस्यीय खंड पीठ ने हिम्मत लाल शाह बनाम कमिश्नर दिल्ली पुलिस मामले (1973 AIR 87) में 5 सदस्यीय माने बड़ी- खंड पीठ के फैसले का अद्भुत पुनर्पाठ कर दिया था! उस फैसले में अदालत ने साफ़ कहा था कि ‘बेशक नागरिक जहाँ उनका मन करे ऐसी किसी भी जगह पर यूनियन बना के नहीं बैठ सकते- इसका यह मतलब भी नहीं है कि सरकार कानून बना कर सारे सार्वजनिक रास्तों पर शांतिपूर्ण ढंग से इकठ्ठा होने का अधिकार ख़त्म नहीं कर सकती.” (अनुवाद मेरा)

अब देखिये कि जस्टिस संजय किशन कौल के नेतृत्व में तीन सदस्यीय खंडपीठ ने इसका क्या पाठ कर डाला!

“हम ये बात पूरी तरह से साफ़ करना चाहते हैं कि सार्वजनिक रास्ते और जगहें इस तरह से और अनंतकाल के लिए कब्जा नहीं की जा सकतीं। लोकतंत्र और असहमति साथ साथ चलते हैं पर प्रदर्शन चिन्हित जगहों में ही होने चाहिए’ (अनुवाद मेरा।

सबसे पहले तो 3 सदस्यीय खंडपीठ अपने से बड़ी 5 सदस्यीय खंडपीठ का फैसला बदल दे यह न्यायिक रूप से गलत है. फिर उसका पुनर्पाठ गलत करे यह और भी ज़्यादा! जो फैसला यह कह रहा है कि जनता कहीं भी प्रदर्शन नहीं कर सकती पर सरकार उसे हर सार्वजनिक जगह में प्रदर्शन करने से रोक भी नहीं सकती!

शाहीन बाग़ पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला एस रंगराजन बनाम जगजीवन राम फैसले (1989) 2 SCC 574) के भी ठीक उलट जाता है. सुप्रीम कोर्ट ने तब कहा था कि अब हम जब अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता संविधान के अनुच्छेद 19(2) के अंदर आने वाले सामाजिक हितों से टकराती दिखे तब उसको परिभाषित करने पर विचार कर सकते हैं. बेशक अभिव्यक्ति की स्वंतत्रता के हित और विशेष हितों में समझौता ज़रूरी है. पर हम इनदोनों को ऐसे बैलेंस नहीं कर सकते जैसे वे बराबर वजन के हों.

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए हमारी प्रतिबद्धता मांग करती है कि इसे तब तक न दबाया जासके जब तक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से बन सकने वाली स्थितियां महत्वपूर्ण हों सामुदायिकहितों कोखतरे में डाल रही हों. साथ ही संभावित ख़तरे दूर, अनुमानित या क्लिष्ट-कल्पित नहीं होने चाहिए। उनका विचार से सीधा और नजदीकी रिश्ता होना चाहिए। भाव को व्यक्त करने से सार्वजनिक हित को अंतर्भूत ख़तरा होना चाहिए। अन्य शब्दों में विचार का कार्य (एक्शन) से नाभिनाल बद्ध संबंध होना चाहिए- बारूद के ढेर में चिंगारी जैसा। साफ़ है कि इस फैसले में भी अदालत ने साफ़ साफ़ कहा है किस अगर आंदोलन सार्वजनिक हितों को सीधे और असली समय में नुक्सान नहीं पहुँचा रहे हैं तो उन्हें तोड़ा नहीं जा सकता।

शांतिपूर्ण ढंग से लोकतान्त्रिक प्रतिरोध का अधिकार अंतर्राष्ट्रीय कानूनों और संयुक्त राष्ट्र संघ की संधियों जिनका भारत एक हिस्सा है में भी शामिल है. अभी हाल में भी संयुक्त राष्ट्र संघ के राइट तो फ्रीडम ऑफ असेम्ब्ली एंड एसोसिएशन पर स्पेशल रिपोर्टियर और स्पेशल रपोर्टियर ऑन एक्स्ट्राजुडिशल, समरी और अरबिट्ररी एक्सेक्युशन्स ने 2016 में भी यह बात दर्ज की थी.

उन्होंने कहा था

“इसीलिए अधिकारों पर पूरी तरह से प्रतिबन्ध, खासतौर पर किसी अधिकार के लिए आंदोलन पर खास जगहों में पूरे समय प्रतिबन्ध अंतर्भूत रूप से गलत हैं क्योंकि वह हर सभा की विशेष स्थितियों को नहीं समझते।

पर इन सबसे बड़ी बात वह जहाँ से शुरू किया था. किसान भी जनता हैं और शौकिया सड़क पर नहीं बैठे हैं. उनके संविधानिक अधिकार हैं. उनको खलनायक बनाना, समर्थकों से उन पर हमले करवाना लोकतंत्र के लिए अशुभ संकेत है.

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