अथ श्री नेहरू कथा प्रथमो अध्यायः आनंद भवन, इलाहाबाद

आनंद भवन. आज के इलाहाबाद में बीते, औपनिवेशिक ज़माने की एक भव्य इमारत। वह ईमारत जो सपनीली आँखों के साथ गाँव कस्बों से निकल खुद की अपनी पहचान ढूंढ़ने ही नहीं, बनाने भी कभी सत्ता का केंद्र रहे उस शहर पहुंचे लड़के के रास्ते में पड़ती थी, उसकी यूनिवर्सिटी के ठीक आगे. अब क्या है कि वो लड़का भी पहले ही साल यूनिवर्सिटी से आगे निकल आया था, वहाँ तक जहाँ क्रांति के सपने शुरू होते थे. और जिस पार्टी में वह पहुँचा था, उसका दफ्तर आनंद भवन के ठीक सामने था! ठीक सामने। खैर, ये उस लड़के की नहीं, नेहरू की कहानी है. उनकी तमाम पीढ़ियों की, वह कहानी जो भारत की कहानी के समानांतर ही नहीं चलती, कई बार आज़ाद भारत की कहानी को नेहरुओं की, और नेहरुओं की कहानी को आज़ाद भारत की कहानी से अलग कर पाना मुश्किल हो जाता है! 


आनंद भवन वही ईमारत है जहाँ सब शुरू हुआ था. वह ईमारत जिसे आज भी तमाम लोगों की नींद में गड़ने वाले, उन्हें सपनों में डराने वाले जवाहरलाल नेहरू के पिता मोतीलाल नेहरू ने 1900 में खरीदा था, माने सदी की ऐन शुरुआत में! यह ईमारत तब से आधुनिक भारत के इतिहास की भी गवाह भी है, वह इतिहास गढ़ने वालों की भी. 


पर यहाँ एक कमाल है- आज वाला आनंद भवन असल आनंद भवन नहीं है. असल आनंद भवन वह है जिसका नाम अब स्वराज भवन है. ये हुआ कैसे? ऐसे कि ये  कमाल किस्सा भी देश के लिए नेहरुओं के तमाम बलिदानों में से एक है. आइये, एक मिनट के लिए आपको फ़ास्ट फॉरवर्ड में ले चलता हूँ- 1900 से बहुत साल आगे- तब जब शर्मीला सा, इंगलैंड में पढ़ाई के दौरान एडवेंचर में आगे मगर पढ़ाई में औसत रहा वह लड़का जिसे देश की पहचान बनना था वापस लौट आया था- राजनीति में घुसा ही था और गांधी से बहुत प्रभावित था. एक दिन मोतीलाल नेहरू ने उसे किसी को बताते सुना कि पिताजी चले जायेंगे तो आनंद भवन देश को दे दूँगा। मोतीलाल, बहुत बड़े वकील हँसे, बोले इतनी सी बात के लिए मेरे मरने का इंतज़ार क्यों करना-- मैं अभी दे देता हूँ- दे दिया. बगल वाला घर खरीद उसका नाम आनंद भवन रख दिया! कहानी तो खैर उस मकान की भी बहुत दिलचस्प है पर सुनाऊंगा, पर बाद में. अभी फ़ास्ट रिवाइंड तो फ्यूचर माने आज- 


सोचिये तो. दशकों से थोड़ा थोड़ा ख़त्म, ज़्यादा कस्बाई हो रहे पूर्वी उत्तर प्रदेश में आज की पीढ़ी इलाहाबाद के अतीत के गर्व की, अभिमान की कल्पना भी कर सकती है क्या? यह कि कभी लन्दन से सीधी फ्लाइट आती थी इलाहाबाद, सबसे नज़दीक मिर्ज़ापुर में भी रुक के- मने ठीक है, 17 स्टॉप थे बीच में, आज के पर्यटक शहरों की मशहूर हॉप ऑन हॉप ऑफ बसों की तरह होतीं थीं तब उड़ानें- और तब इलाहाबाद के लिए थीं, लखनऊ के लिए नहीं! उन्हें तो खैर ये भी कहाँ पता होगा कि तब इलाहाबाद उत्तर प्रदेश में अंग्रेजों की सत्ता का भी केंद्र था, और नेहरुओं के बाद आज़ादी की लड़ाई का भी, प्रतिरोध का भी! 


इस पीढ़ी को अब हाईवे से अलग पड़ गए इस शहर में ऐसी कहानी के शुरुआत होने पर अचरज हो सकता है, पर इतिहास के अंदाज़ भी अलग ही होते हैं! 


भारत का शायद ही कोई और शहर हो जिसमें आज़ादी की लड़ाई में अपने पसीने, खून का शरीर का ही बलिदान कर देने वाला हर महत्वपूर्ण नेता आया हो, बस एक ईमारत आनंद भवन में रहना तो भूल ही जाएँ। यह शहर और आनंद भवन खुद वह इतहास गढ़ने वाले थे जिसमें कलकत्ता और बंबई में बोये गए सुधारवाद और बिर्टिश साम्राज्य के अंदर होम रूल माने अपने शासन के बीज को से राष्ट्रवाद के घनेरे पेड़ में बदलते देखना था, आजादी का फल चखना था. इस इमारत को ही उस जवाहरलाल नेहरू को बचपन से शुरू करके वह प्रेत बनते भी देखना था जिसे अपनी मौत के पूरे 57 साल बाद शासकों की नींद में गड़ना था. 


हाँ, नेहरू का प्रेत। अजीब लग सकता है कि एक आधुनिक, पंथनिरपेक्ष व्यक्ति किस कहानी प्रेत के ज़िक्र से शुरू हो. पर नेहरू की कहानी का सबसे दिलचस्प हिस्सा ही यही है- विरोधाभासों और विडंबनाओं से भरी हुई. पर जैसा कि ऊपर कहा, इतिहास ऐसी विडंबनाओं से, विरोधाभासों से भरा हुआ है. इस बार फ़ास्ट रिवाइंड में चलता हूँ- कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो तक. नेहरू के पैदा होने से करीब 40 साल पहले 1848 में छपे उस घोषणापत्र को याद करिये जिसको दुनिया का इतिहास बदल देना था, जिसे धर्म की सत्ता को सबसे निर्णायक चुनौती देनी थी उसकी खुद की शुरुआत कैसे हुई थी? 


एक भूत पूरे यूरोप को डरा रहा है- कम्युनिज्म का भूत. 


सोचिये तो, कम्युनिस्ट घोषणापत्र की शुरुआत भूत के ज़िक्र के होना! इतिहास के अपने अंदाज़ होते हैं।  


देरिदा ने बाद में इस पर लिखा भी- उनके अपने फलसफाना स्टैंड में भी इस हौंटोलोजी का विशेष स्थान है. खैर 1848 और भी कई वजहों से बेहद महत्वपूर्ण साल था- वह साल जब सावित्री बेन फुले को फातिमा शेख के साथ लड़कियों के लिए पहला स्कूल खोल कर पितृसत्ता को वैसी ही चुनौती देनी थी जैसी कम्युनिस्ट घोषणापत्र और उससे शुरू हुए आंदोलन ने पूंजीवाद को दी थी पर फिर से, वह फ़साना फिर कभी! 


वापस लौटें नेहरू पर तो उनका जीवन विरोधाभासों से भरा था- अथाह संपत्ति के, बलिदानों के, लोगों के बहुत सरे प्रेम और आदर के, चर्चिल के शब्दों में उस अधनंगे, हिन्दू धर्म में पूरी आस्था वाले फ़क़ीर गांधी के सबसे असंभ्वयव शिष्य होने के, तब एक बहुत अल्पमत द्वारा झूठ और दुष्प्रचार का शिकार होने के जो अब सत्ता में हैं. 


नेहरू का जीवन उन विरोधाभासों की कहानी है जिन्होंने इतिहास की शक्तियों को बेहद दिलचस्प दिशाएं दीं, खोला! 


वो कहानी जो उनके भाषणों में आज भी चलती है, सोशल मीडिया पर उनके बारे में दुष्प्रचार से भी, उनके बारे में झूठी खबरों में जो प्रधानमंत्री पद पर बैठे व्यक्ति से लेकर हिंदुत्व ब्रिगेड के ट्रोल तक फैलाते रहते हैं. 


कमाल ये है कि यह कहानी नेहरू के जन्म से बहुत पहले ही शुरू हो गई थी- वह भी आप सोच न पाएं ऐसी जगह से- हिमालय की ऊंचाइयों से. वह कहानी जो उनको एक सिद्ध योगी का अवतार साबित कर देती है. 


वो कहानी यह रही- बावजूद इसके कि खुद नेहरू जी ने न इसका खंडन किया न समर्थन, न ही दोनों और पात्रों ने 


पहले अपने भाई फिर अपने पहले जन्मे बच्चे की मौत से दुखी मोतीलाल नेहरू एक योगी से मिलने, उनका आशीर्वाद लेने ऋषिकेश गए. उनके साथ बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी के संस्थापक पंडित मदन मोहन मालवीय और पंडित दीं दयाल शास्त्री थे. (हिंदुत्व वालों को सदमा लगेगा!) मालवीय जी ने योगी बाबा को मोतीलाल नेहरू जी का दुःख भी बताया और एक ही इच्छा भी- एक बेटे की. योगी ने मोतीलाल को भर नज़र देखा और बहुत दुःख से बताया कि मोतीलाल के भाग्य में पुत्र है ही नहीं! स्तब्ध और दुखी मोतीलाल शांत खड़े रहे, पर शास्त्री जी ने योगी से प्रार्थना की, याद दिलाया कि शास्त्रों में ऐसा कुछ नहीं है जो उनके जैसे योगी के लिए अकाट्य हो, बदला न जा सके. 


योगी बाबा मान गए और मोतीलाल को पुत्र प्राप्ति का आशीर्वाद दे दिया। मोतीलाल ने धन्यवाद देने की कोशिश की तो बीच में काट के बोले कि उन्होंने इस आशीर्वाद में अपने पूरे जीवन के संचित पुण्यों को गँवा दिया है. विश्वास है कि आशीर्वाद के कुछ दिन बाद ही योगी बाबा का निधन हो गया, और ठीक 10 महीने बाद 14 नवंबर 1889 को नेहरू जी जन्मे।  बोले तो नेहरू योगी बाबा का अवतार थे. 


जीवन भर धर्मनिरपेक्ष, वैज्ञानिक चेतना से समझौता  न करने वाले नेहरू के जीवन की शुरुआत की यह कहानी  अद्भुत है. अद्भुत तो खैर उन मोतीलाल नेहरू का योगी बाबा से  आशीर्वाद लेने जाना भी है, जो आधुनिकता के  प्रबल समर्थक थे और धर्म  को निजी जीवन का हिस्सा मानते थे. उन मोतीलाल नेहरू का जिन्होंने  विदेश यात्रा के बाद शुद्धिकरण से इंकार कर दिया और धर्मभीरु शुचितावादियों द्वारा धर्म से बाहर किये जाने पर भी अपना फैसला नहीं बदला था. 


नेहरू की कहानी शुरू हो चुकी थी. फिर उसे कभी ख़त्म नहीं होना था- न जीवन में न मौत के 57 साल बाद भी- योगी जी के  प्रेत, या जवाहरलाल नेहरू की कहानी उनके झूठों में ही नहीं, फ़र्ज़ी फॉरवर्ड्स में ही नहीं, तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रम्प के हौडी मोदी जैसे  कार्यक्रमों में भी चलती रहनी थी जिसमें नेहरू मोदी की हाउडी मोदी इवेंट में घुस आते हैं- वहाँ की संसद के निचले सदन के बहुमत के नेता स्टेनी होयर के साथ: आपका स्वागत है। क्योंकि आप गांधी और नेहरू के देश से आए हैं। 


अथ श्री नेहरू कथा प्रथमो अध्यायः। 


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