असम मिजोरम सीमा विवाद: इतिहास और वर्तमान

 #असम_मिजोरम

 

पूरे उत्तर पूर्व में तमाम और खास तौर पर असम और मिजोरम के बीच सीमा विवाद को लेकर लगातार बढ़ रही हालिया हिंसा के बाद केंद्रीय गृह (युद्ध?) मंत्री की बैठक के 2 दिन के भीतर दोनों प्रदेशों के पुलिस बलों के बीच 6 घंटे से ज़्यादा गोलीबारी हुई जिसमें असम के कम से कम 7 पुलिसकर्मियों मारे गए और 50 से ज़्यादा के घायल हुए. इस गोलीबारी के बीच ही असम और मिजोरम के मुख्यमंत्री संघीय गृह मंत्री अमित शाह जी को टैग कर कर के ट्विटर पर लड़ते रहे  

 

बावजूद इसके कि आज़ाद भारत के अब 74 साल के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ है कि दो प्रदेशों के पुलिस बल एक दूसरे पर न सिर्फ गोलीबारी करें बल्कि घंटों तक करते रहें। दोनों प्रदेशों के मुख्यमंत्री उन्हें टैग करते रहें पर घटना के 2 दिन बाद तक गृह मंत्री और प्रधानमंत्री दोनों का कोई बयान तक न आये! वे बस गृह मंत्रालय का नाम लेकर काम चलाते रहें, बताते रहें कि स्थिति तनावपूर्ण पर नियंत्रण में है, यह छोड़ दें कि किसके नियंत्रण में- असम के? मिजोरम के? या उपद्रवियों के? या जैसा असम के मुख्यमंत्री हिमंता बिस्वा सरमा ने बाद में कहा- मिजोरम के नॉन स्टेट एक्टर के (जिन्हें मिजोरम पुलिस का पूरा समर्थन था- यह उन्होंने सीधे नहीं कहा पर इशारा बहुत साफ़ है! 

 

यहाँ साफ़ कर दें कि मैं बांग्लादेश या पाकिस्तान के नहीं, भारत के ही प्रधानमंत्री और गृह मंत्री की चुप्पी की बात कर रहा हूँ!

 

अब एक मिनट ठहर असम और मिजोरम के बीच के सीमा विवाद पर नज़र डालते हैं. फिर से, भले ही हिमंता बिस्वा सरमा ने कहा कि यह विवाद कांग्रेस के समय भी था पर आश्चर्यजनक रूप से वे कांग्रेस पर दोष डालने से बचे. इसलिए बचे क्योंकि वे भी जानते हैं कि असल में यह विवाद एक औपनिवेशिक विरासत है- अंग्रेजों की पैदा की हुई विरासत जिसे कांग्रेस सरकारें जहाँ और जितना हल कर पाईं उन्होंने किया, पर किसी हाल में स्थिति बिगड़ने नहीं दी- दो प्रदेशों के बीच गोली चल जाये इतनी तो कभी नहीं! 

 

औपनिवेशिक माने ब्रिटिश राज में त्रिपुरा और मणिपुर के रजवाड़ों को छोड़ इस पूरे इलाके का नाम ही असम होता था, 1914 में जनजातीय बहुसंख्या वाले दारंग और लखीमपुर से काट कर नार्थ ईस्टर्न फ्रंटियर ट्रैक्ट बनाया जो बाद में पहले नार्थ ईस्टर्न फ्रंटियर एजेंसी माने नेफा हुआ, और फिर 1972 में अरुणाचल प्रदेश। नेफा से याद आया- आप में कुछ लोगों ने कृष्ण चन्दर का मानीखेज उपन्यास एक गधा नेफा में पढ़ा होगा, न पढ़ा हो तो ज़रूर पढ़ें! बेहद ज़रूरी है! 

 

देखिये न, मैं हमेशा भटक जाता हूँ! सो वापस आकर, अंग्रेजों के लिए आज के, चाय बागानों के आगे का नार्थ ईस्ट हमेशा एक फ्रंटियर पोस्ट भर रहा- ऐसे समझ लें कि जैसे अफ़ग़ानिस्तान- जहाँ कभी उनकी उपस्थिति रही, कभी नहीं, पर ज़मीन पर असल शासन कभी नहीं रहा. भू राजनैतिक और व्यावसायिक वजहों (ईरान और फिर मध्य पूर्व का रास्ता, सिल्क रुट, अफीम) से अफगानिस्तान में फिर भी वे कोशिश करते रहे पर तब के उत्तर पूर्व में न उनके पास ऐसी कोई वजह थी न दिलचस्पी. फिर पूर्वोत्तर में मिशनरीज़ की बड़ी उपस्थिति और काफी बड़े पैमाने पर धर्मानान्तरण के चलते ऐसे बहुत इलाके रहे जहाँ अगर अंग्रेजों ने दखल नहीं दिया तो लोगों ने उन्हें भी परेशान नहीं किया. 

 

परशानियाँ बस तब तब हुईं जब जब किन्ही भी दो या ज़्यादा अस्मिताओं- जनजातीय या जो भी- के बीच कोई टकराव हुआ और अंग्रेजों को सीमा खींचनी पड़ी- उनकी ज़्यादातर अपने मन से खींची सीमाओं की आग में तमाम देश ही नहीं- समुदाय भी जलते रहे हैं! कभी पूरे उत्तर पूर्व पर भी बता करेंगे पर आज बात असम और मिजोरम की: 

 

इस विवाद की जड़ें असल में भारत से भी कहीं दूर निकल बर्मा तक जाती हैं- असम के चाय बागानों से खुश अंग्रेजों को बर्मा से युद्धों के बाद रणनीतिक रूप से इतने महत्वपूर्ण इलाके को खुला छोड़ देने की गलती समझ आई. गलती समझ आई तब आया बंगाल ईस्टर्न फ्रंटियर रेगुलेशन 1873- जिसे इनर लाइन परमिट के बतौर जाना गया. यह रेगुलेशन ही बाद में 1875 में कानून बन गया. जनजातीय हितों को सुरक्षित रखने के बहाने लाये गए इस कानून की खास बात थी कि बिना सरकारी अनुमति के ब्रिटिश राज्य का कोई भी व्यक्ति परमिट लाइन के आगे नहीं जा सकता था- अब पहली बार और तमाम जनजातीय इलाकों के साथ साथ असम के कछार और तब लुशाई हिल्स के नाम से जाने जाने वाले मिजो इलाकों के बीच सीमा खींची गई. चूँकि यह सीमा मिज़ो जनजाति के नेताओं को विश्वास में लेकर खींची गई थी सो उन्हें स्वीकार भी थी- आज भी मिजो नेताओं को यही स्वीकार है. 

 

दिक्कत तब हुई जब 1933 में अंग्रेजों ने बिना मिज़ो नेतृत्व से बात किये तब के लुशाई हिल्स (माने मिजोरम) और तत्कालीन रजवाड़े मणिपुर की सीमा निर्धारित की और उसे लुशाई हिल्स, असम के कछार और मणिपुर की सीमा के त्रिकोण से शुरू होना बताया- यह सीमा मिजो समाज को कभी स्वीकार नहीं रही और हमेशा से तनाव का कारण रही है. इन्हीं तनावों ने पहले एक लंबे राजनैतिक संघर्ष को जन्म दिया जो बाद में हथियारबंद अलगाववादी आंदोलन में भी बदला. पहले इंदिरा गांधी सरकार ने तमाम प्रयास किये- यहाँ नोट करें कि जिस दिन इंदिरा जी जी ह्त्या हुई उन्हें उस दिन भी मिज़ो नेताओं से शांति वार्ता करनी थी! फिर राजीव गांधी सरकार ने इसे बड़ी सूझ बूझ से 1986 में सुलझा लिया. किसी अलगाववादी, हथियारबंद संगठन का सारे हथियार समर्पित कर हमेशा के लिए मुख्यधारा की राजनीति में आ जाने का वह शायद अकेला उदाहरण है! 

 

फिर 1986 से 2020 तक तनाव भले रहे- मिजोरम पूरी तरह शांत रहा, अगल बगल के राज्यों में अलगाववादी सहित तमाम हिंसाओं के बावजूद. फिर पहले केंद्र और बाद में असम में भाजपा की सरकार आ गई. 

 


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