कंबोडिया: विष्णु और बुद्ध से कत्लगाह तक का सफर

 बभनान वाले लड़के को हांग कांग आते जाते कई साल हो आये थे. कुछ दिन रहता फिर घर की याद सताती तो वापस देश भाग जाता। हाँ, जब रहता तो हांग कांग के पहाड़ों में, पुरानी गलियों में, मंदिरों में, बाजारों में न जाने कहाँ कहाँ भटकता रहता। 2010 था शायद जब 3 महीने हो जाने के बाद उसने वापस जाने की बात शुरू कर दी थी. और अचानक संगठन के निदेशक ने पूछा कंबोडिया जाओगे? फिर तो वापसी का फैसला टलना ही था. 

हांगकांग से कंबोडिया के लिए उड़ने के बाद ही लड़के के मन में न जाने कितने भाव तिरने लगे थे. कैसा होगा वो देश जिसके बारे में पूर्वी उत्तर प्रदेश के एक छोटे से गाँव में बीते बचपन की किताबों में पढ़ा था. क्या तो नाम था, नवभारती या बालभारती. वह देश जिसमें विष्णु को समर्पित दुनिया का सबसे बड़ा मंदिर अंगकोर वाट था. यह  भी कि वह मंदिर संकुल (काम्प्लेक्स) आज भी दुनिया का सबसे बड़ा मंदिर काम्प्लेक्स है. जिसकी शुरुआत विष्णु मंदिर से हुई थी पर उसे अंततः बुद्ध तक पहुँचना था.



जिसमें 6 देशों में बहने वाली दुनिया की 12वीं और एशिया 7वीं सबसे लम्बी वह मेकोंग नदी है जिसने अपना नाम गंगा से पाया है. फिर इसकी राजधानी नाम पेन के स्थापित होने का किस्सा तो और भी मजेदार है. नाम पेन्ह बनने के पहले यह एक छोटा सा गाँव था, चक्तोमुक नाम का. कहते हैं कि 1373 ईसवी में एक रोज इसी मेकोंग नदी में नहाते हुए एक स्थानीय महिला मैडम पेन्ह को एक कोकी पेड़ बहता हुआ दिखा। उन्होंने उसे निकाला तो विष्णु की एक और गौतम बुद्ध की चार मूर्तियाँ मिलीं थीं जिन्हें उन्होंने खुद से एक पहाड़ बनाया फिर उस पहाड़ पर पैगोडा और उन्हें स्थापित कर दिया था.और लीजिये- विष्णु और बुद्ध दोनों से रिश्ता रखने वाले खमेर लोगों को अपनी राजधानी नाम पेन्ह मिल गयी थी. खमेर लोग आज भी उस महिला को दादी पेन्ह या बुजर्ग पेन्ह कहते हैं और उस पहाड़ पर बने स्तूप को वाट नाम!


पर फिर बड़े होने के साथ मिलने वाली सूचनाओं ने कंबोडिया के बारे में धारणाएं बदलना शुरू कर दिया था. अब कंबोडिया विष्णु के मंदिर और बुद्ध का देश होने की वजह से नहीं बल्कि दुनिया में अपने लोगों द्वारा का अपनों के सबसे बड़े नरसंहारों में से एक के लिए जाना जाने लगा था. वह भी जहाँ शून्य वर्ष की शुरुआत के साथ ही मुद्रा खत्म कर दी गयी थी. वह भी जिसमें सत्ता में नयी नयी काबिज हुई सरकार ने शहरों में रहने वाली पूरी आबादी को रातों रात वर्ग शत्रु घोषित कर गांवों के लिए रवाना कर दिया था. वह जिसमें उसके बाद इस क्रांतिकारी सरकार ने अपने चार साल के राज में देश की एक तिहाई आबादी को क़त्ल कर दिया था, उस एक तिहाई आबादी को जिसमें खुद अपनी जान दाँव पर लगा लड़ने वाले वरिष्ठ क्रांतिकारी शामिल थे. 


कमाल यह कि 1979 में उस कम्युनिस्ट सरकार के एक दूसरी कम्युनिस्ट पार्टी शासित वियतनाम समर्थित कम्युनिस्टों के उखाड़ फेंकने के बावजूद बहुत कुछ नहीं बदला था. या बदला भी था शायद, यह कि पोल पोत को उखाड़ फेंकने में लगी अमेरिकी सरकार ने विएतनाम से अपनी नफरत में नरसंहार के जिम्मेदार उसी पोल पोत के कब्जे में रह गए जरा से जंगलों को कंबोडिया होने की मान्यता ही नहीं दी थी बल्कि उसे ही अरसे तक संयुक्त राष्ट्रसंघ की सदस्यता भी दिलाये रखी थी. जी हाँ, किसी को भी ये बताता हूँ तो वो स्तब्ध रह जाता है. अमेरिकी कभी नहीं बदले। कंबोडिया से काबुल तक उनका इतिहास सिर्फ धोखों का इतिहास है. साथ में ईडी अमीन से शुरूकर बरास्ते पोल पोत  तालिबान तक तानाशाहों के समर्थन का भी. 


खैर, यह फ़साना फिर कभी, अभी बस यह कि इतने बरस बाद भी कंबोडिया गरीब है, बाल वेश्यावृत्ति का केंद्र है जहाँ दुनिया भर के यौनरोगी अपनी वासना शांत करने आते हैं. गरीबी और बाकी तमाम दिक्कतें तो खैर हैं ही.

 


कंबोडिया के बारे में अपने निदेशक बासिल फर्नान्डो से बहुत सुना था. उस कंबोडिया के बारे में जिसमें वह 1979 में पोल पॉट शासन के पराजित होने के बाद पहुंची संयुक्त राष्ट्र संघ टीम के मानवाधिकार अंग के मुखिया थे. उस कंबोडिया के बारे में भी जिसमें वकील, डॉक्टर पुलिसकर्मी जैसे लोग नहीं के बराबर बचे थे. उसके भी जिसमें सरकार द्वारा क़त्ल किये गए लोगों के साथ साथ भूख से मारे जा रहे लोग भी शामिल थे. दुनिया घूमना मुझे यूँ ही पसंद है. एक झोले में भरे सामान के साथ चीन, नेपाल, फिलीपींस कितने सारे देश घूम ही आया था फिर ऐसे इतिहास वाले कंबोडिया जाने की इच्छा हो जाना लाजिमी था. 


‘थोड़े ही वक़्त में हम नाम पेन्ह पहुँच रहे हैं. बाहर का तापमान इतना है’ एयरहोस्टेस द्वारा की जा रही घोषणा ने ख्यालों की रेलगाड़ी अचानक रोक दी थी. थोड़ी ही देर में मैं और बासिल इमीग्रेशन की कतार में थे, बाहर होटल की गाड़ी हमारा इंतज़ार कर रही थी. 


हम एशिया के मोती- पर्ल ऑफ एशिया में थे. जी हाँ, तमाम तबाहियों और इयर ज़ीरो यानी शून्य साल वाली पोल पोत तानाशाही शुरू होने के पहले यही नाम था इस शहर का!


कंबोडिया से हुआ यह पहला साक्षात्कार ही बहुत दिलचस्प था. ऐसे कि कोई वक़्त से पीछे लौट गया हो. किसी देश की राजधानी रायपुर हवाई अड्डे से भी छोटी लगे तो भला और अहसास भी क्या हो सकता है? हाँ, बड़े आत्मविश्वास से अमेरिकी डॉलरों में मांगी जा रही रिश्वत ने थोड़ा निश्चिन्त किया था कि अपने जैसे ही लोग हैं, गुजर हो ही जायेगी.  अमेरिकी डॉलरों से याद आया कि पहली यात्रा में एक बड़ा झटका लगने वाला था. यह कि आधिकारिक मुद्रा रियाल होने के बावजूद कंबोडिया में डॉलर खूब चलते ही नहीं बल्कि एटीएम मशीनों तक से मिलते हैं! आप टुकटुक (कम्बोडियन रिक्शा) पर हों या बिस्किट की दुकान में, सामने वाला आपसे डॉलर लेगा भी और खुदरा छोड़ डॉलर लौटाएगा भी. 



बखैर, बिना रिश्वत दिए हम बाहर निकल आये थे और एक और सफ़र शुरू हो चला था. इस सफर को बहुत उदास सफर होना था. नॉट इन माय नेम- मेरे नाम पर नहीं वाला सफर होना था. फिर ये सफर खुशगवार भी होना था कि तानाशाह जो भी कर लें, हमेशा के लिए नहीं होते। उन्हें हारना ही होता है.

अगली सुबह एशिया के इस मोती में हमारी भटकन शुरू होनी थी.


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