अबकी बार ट्रंप सरकार के बाद बाइडेन झिड़की: विदेश नीति को ये झटका लगना ही था मोदी जी

 सो माननीय प्रधानमंत्री मोदी जी अपने अमेरिकी दौरे से लौट आये हैं और स्वाभाविक रूप से उनकी सरकार और भाजपा इसे ऐतिहासिक बता रही है. यूँ भी उनका किया सब कुछ ऐतिहासिक और अभूतपूर्व होता ही है. 


पर क्या सच में? क्या भारत को इस यात्रा से कुछ मिला? मेरी समझ से बिलकुल नहीं, उल्टा बाइडेन के खुद और उनके प्रशासन के मोदी जी के साथ किये गए व्यवहार लगभग अपमानजनक है. 


आइये देखते हैं कैसे. 


विदेश नीति का सबसे विशिष्ट पहलू नीति नहीं, ऑप्टिक्स यानी प्रदर्शन होता है. विदेश नीति में दरअसल नीति बहुत कम होती है, मज़बूरियाँ बहुत ज़्यादा. बात न समझ आ रही हो तो 20 साल से तालिबान से लड़ रहे अमेरिका की अब उसके सामने समर्पण को भी देखें और इसके कई साल पहले ओसामा बिन लादेन के पाकिस्तान में मिलने के बावजूद पाकिस्तान को मदद देते रहने की मज़बूरी भी. 


सो इस यात्रा में ऑप्टिक्स कैसा रहा? 


ऐसा कि जिस अमेरिका के राष्ट्रपति नेहरू जी लेकर मनमोहन सिंह तक जी की अगवानी करने हवाई जहाज तक जाते रहे थे, जो राजीव गांधी जी के पीछे छाता  उठाये घूमते थे, उसी अमेरिका में कई बार से राष्ट्रपति छोड़िये, कोई मंत्री (वहां की भाषा में सचिव) तक मोदी जी के स्वागत के लिए हवाई अड्डे नहीं गया, एक बहुत कनिष्ठ अधिकारी गया. 


वैसे अफ़सोस की बात यह है कि मोदी जी के अभिन्न मित्र ट्रम्प ने भी उनके साथ ठीक यही व्यवहार हौडी मोदी माने अबकी बार ट्रम्प सरकार वाले अमेरिकी राष्ट्रपति चुनावों के ठीक पहले मूर्खता भरे कार्यक्रम में भी किया था. तब ह्यूस्टन में पहुँचने पर उनका स्वागत करने क्रिस्टोफर ओल्सेन- (कौन? माने अमेरिका के वाणिज्य और अन्तर्राष्ट्रीय संबंध निदेशक), अमेरिका के भारत में राजदूत केनिथ जस्टर और अमेरिका में भारत के राजदूत हर्ष वर्धन श्रिंगला ने किया।

सबके सब बहुत नीची रैंक वाले थे- भारत में केंद्रीय उप मंत्री तक की रैंक नहीं थी किसी की!


मोदी जी के साथ चीन और शंघाई कॉओपरेशन आर्गेनाइजेशन की बैठक में किर्गिस्तान पहुँचने पर किर्गिस्तान के राष्ट्रपति ने भी यही किया था. इमरान खान का स्वागत करने स्वास्थ्य मंत्री समेत खुद हवाई अड्डे जाने वाले किर्गीस राष्ट्रपति ने मोदी जी के स्वागत के लिए उप प्रधानमंत्री भर को भेजा था. 


चीन ने भी 2017 वाली उनकी यात्रा में यही किया था, टर्मैक पर रेड कार्पेट स्वागत न करके ऐरोब्रिज में बहुत कनिष्ठ अधिकारी भेज दिया था! इसके बावजूद ठीक अगले साल मोदी जी प्रोटोकॉल तोड़ जिनपिंग का स्वागत करने हवाई अड्डे पहुँच लिए थे. 


इस बार मगर अपमान और तगड़ा था. एयरपोर्ट की कोविद वगैरह कहके सफाई दी जा सकती है- पर व्हाइट हाउस पहुँचने पर भी राष्ट्रपति बाइडेन का स्वागत के लिए दरवाजे तक न आना, फिर विदा करने भी ना जाना- संकेत बहुत साफ़ है! 


अब सरकार खुद ये कर रही है तो अमेरिकी मीडिया तो पहले से ही सांप्रदायिकता और नफ़रत की राजनीति का विरोधी रहा है! यहाँ जब आप एनडीटीवी तक पर उनके पल पल की खबर देख रहे थे, किसी अमेरिकी चैनल या अखबार में हाशिये से ज़्यादा उनका जिक्र तक न था. 


राष्ट्रपति बाइडेन ने यह क्रम मोदी जी के साथ निजी बातचीत में भी जारी रखा. पहले तो गांधी जी को याद करके, जिनकी जयंती बस आने को है. फिर एक बिलो द बेल्ट हमला किया- कह कर के कि आपके देश का मीडिया हमारे वाले से बहुत अच्छा है. कोई सवाल नहीं पूछता सिर्फ आपकी तारीफ करता है. आपकी अनुमति से हम लोग यहाँ भी यही कर सकते हैं! 


यह भारत के दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र होने के दावे का मजाक उड़ाना है, दरअसल बेहद गंदा मज़ाक. 


अफ़सोस बस इतना कि यह मोदी जी की अपनी कमाई है- एक तो डेमोक्रेटिक पार्टी खुद ही लोकतंत्र से लेकर सांप्रदायिकता और कश्मीर जैसे सवालों पर सेंटर लेफ्ट ही रही है, फिर मोदी जी अपनी हौडी मोदी यात्रा में ट्रम्प का चुनाव प्रचार भी कर आये थे. 



याद दिलाता चलूँ कि संयुक्त राष्ट्र संघ में भारत की स्थाई सदस्यता के लिए मनमोहन सिंह ने बड़ी मुश्किल से जॉर्ज बुश प्रशासन से औपचारिक समर्थन हासिल किया था. फिर ओबामा और और ट्रम्प प्रशासन वह दर्जा बनाये रखा था. बाइडेन ने राष्ट्रपति बनते ही जो पहला बड़ा कूटनीतक फैसला लिया था वह इस समर्थन को वापस कर लेना था- 28 जनवरी २०२१ को संयुक्त राष्ट्र संघ में अमेरिकी राजदूत लिंडा थॉमस ग्रीनफील्ड ने कह दिया था कि सुरक्षा परिषद में भारत की स्थाई सदस्यता चर्चा का विषय है. लिंक गोदी मीडिया से इस लिए दे रहा हूँ ताकि आपको कोई सुबहा न रह जाए. 


अब ऑप्टिक्स पर सारे तथ्य और तर्क मैंने बता दिए हैं. मोदी जी की यात्रा के हासिल पर फैसला आप खुद कर लें. कल इस चर्चा को आगे बढ़ायेंगे, और नीतिगत उपलब्धियों, दरअसल असफलताओं और अपमान पर बात करेंगे. उन अपमानों पर जो बाइडेन प्रशासन ने इस यात्रा के पहले ही शुरू कर दिए थे, सुरक्षा परिषद जैसे पुराने बताये ही. फिर बाइडेन प्रशासन ने यात्रा के ठीक पहले भारत को धकिया कर अमेरिका, यूनाइटेड किंगडम और ऑस्ट्रेलिया का सुरक्षा संगठन आकुस बनाने और ऑस्ट्रेलिया को न्यूक्लियर सबमैरीन देने की घोषणा कर दी, भारत को देने से सीधा इंकार कर दिया. वह भी तब जब क्वैड के सदस्य के नाते अमेरिका के दबाव में हमने दक्षिण चीन सागर में अपनी नौसेना भेज रखी है और क्वैड या अमेरिका लद्दाख में चीनी घुसपैठ पर सांस तक नहीं लेते. फिर कौन हैं हम? 


अमेरिका के लठैत? वह भी बेगारी वाले, बिना कुछ पाए? 


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