विधायिकाओं में स्त्री आरक्षण: ज़रूरी, शानदार पर लागू करने में देरी ठीक नहीं

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22 सितंबर 2023 को आईनेक्स्ट में प्रकाशित"

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भारत अब तक दुनिया के उन देशों में शामिल था जिसकी विधायिकाओं में स्त्रियों की संख्या सबसे कम थी- भारत की संसद में महिला सांसदों की कुल संख्या १५% से कम थी, और प्रदेशों की विधायिकाओं में भी प्रतिशत इसी के आस पास था। एक शानदार बदलाव के साथ, आगे से ऐसा नहीं रहेगा!"

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जी, बावजूद इसके कि संसद में पहली बार पेश किए जाने के बाद इसके क़ानून बनने की दिशा में २७ साल का लंबा समय लग गया, लोक सभा में संसद और विधायिकाओं में महिला आरक्षण विधेयक का पारित होना और राज्य सभा में पारित होने की लगभग निश्चितिता देश में लैंगिक न्याय की यात्रा का एक और मील पत्थर है। उससे भी सुखद यह है कि यह देश की नई संसद में पेश किया गया और नई लोक सभा में पारित हुआ पहला विधेयक है- प्रतीकों के साथ बेहद करीबी रिश्ते वाले देश में यह प्रतीकात्मकता स्वागतयोग्य है।"

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यहाँ यह याद करना ज़रूरी है कि लोक सभा में 128वें संविधान संशोधन विधेयक या नारी शक्ति वंदन अधिनियम नाम से लोकसभा में पारित हुए इस विधेयक के सफ़र की असल शुरुआत 12 सितंबर 1996 को हुई थी जब तत्कालीन प्रधानमंत्री देव गौड़ा के नेतृत्व वाली संयुक्त मोर्चा सरकार ने इसे 81वें संविधान संशोधन विधेयक के बतौर लोक सभा में पेश किया था। लैंगिक न्याय की इस बड़ी लड़ाई के तब से आज तक के इस संघर्ष के इतिहास की एक त्वरित समीक्षा ज़रूरी है।"

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पर उस लोक सभा के भंग होने के साथ ही यह विधेयक अपने आप निरस्त हो गया। इस विधेयक को अटल बिहारी वाजपेयी नेतृत्व वाली एनडीए सरकार ने १९९८ में फिर से पेश करने की कोशिश की पर एक बेहद शर्मनाक घटना में एक विपक्षी सांसद ने उसका मसौदा छीन कर फाड़ दिया, उसके बाद वाजपेयी सरकार ने इसे 1999, 2002 and 2003 में ३ बार फिर से पेश करने की कोशिश की पर तमाम असहमतियों के चलते असफल रही। इस विधेयक पर सबसे बड़ा मतभेद इसमें स्त्री आरक्षण के भीतर क्षैतिज आरक्षण- माने दलित और ओबीसी स्त्रियों को स्त्री आरक्षण के भीतर उनका आरक्षण ना देने पर रहा। बहुजन समाज के हितों की राजनीति करने वाले तमाम दल यह मानते हैं कि अपने वर्तमान स्वरूप में इस क़ानून का फ़ायदा सिर्फ़ संपन्न और सवर्ण महिलाओं को होगा और ओबीसी महिलाएँ अपने हक़ों से वंचित रह जायेंगी।"

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फिर आई मनमोहन सिंह नेतृत्व वाली यूपीए सरकार जिसने पिछले हादसे से सबक़ लेते हुए इसे मई 2008 में लोकसभा नहीं बल्कि राज्य सभा में पेश किया जहाँ इसे विचार के लिए स्थायी समिति में भेज दिया गया। यह एक साहसिक और शानदार कदम था क्योंकि राज्य सभा के एक स्थाई सदन होने की वजह से उसमें पेश किए गये विधेयकों के लैप्स होने माने चुक जाने का ख़तरा नहीं होता। राज्य सभा में यह विधेयक मार्च 2010 में पारित हो गया. पर फिर से समाजवादी पार्टी, यूपीए सहयोगी राष्ट्रीय जनता दल और राजग सहयोगी जानता दल यूनाइटेड के विरोध के चलते यह बिल लोक सभा में फिर से लैप्स हो गया।"

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यहाँ हमें यूपीए सरकार के इस विधेयक को राज्य सभा में प्रस्तुत करने की साहसिक और सफल रणनीति की प्रशंसा भी करनी होगी जिसकी वजह से यह विधेयक लैप्स नहीं हो सकता था और इस तरह या बहस और लड़ाई जारी रखने का आधार बना!"

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दरअसल इस विधेयक की नींव इतिहास में और बहुत पीछे तक जाती है, भारत की आज़ादी के साथ ही। जहाँ ख़ुद को आधुनिक लोकतंत्र का जन्मदाता बताने वाले यूनाइटेड किंगडम तक में महिलाओं को मताधिकार के लिए २०वीं सदी तक इंतज़ार करना पड़ा वहीं भारत ने अपनी आज़ादी के साथ ही अपने संविधान में सार्वभौमिक मताधिकार की व्यवस्था की और इस तरह तमाम वंचित अस्मिताओं के साथ साथ स्त्रियों को भी राजनैतिक और सामाजिक बराबरी के अधिकार दिये। इसके बाद भी, पितृसत्तात्मक समाज से शुरू कर तमाम और वजहों से राजनैतिक जगत में स्त्रियों की भागीदारी अपेक्षा से बहुत कम रही। स्त्रीवादी संगठनों के साथ साथ सामाजिक न्याय के लिए लड़ रहे तमाम और वर्गों के लगातार संघर्ष से यह स्थिति अप्रैल १९९३ में तब एकदम बदल गई जब भारतीय संविधान के 73 वें संविधान संशोधन अधिनियम के पारित होने से पंचायत के विभिन्न स्तरों पर पंचायत सदस्य और उनके प्रमुख दोनों पर महिलाओं के लिए एक-तिहाई स्थानों के आरक्षण का प्रावधान हुआ। लैंगिक बराबरी की लड़ाई के इस सफ़र में एक बेहद उत्साहवर्धक हस्तक्षेप के रूप में धीरे धीरे तमाम राज्यों ने स्थानीय निकायों में महिला आरक्षण प्रतिशत बढ़ा कर ५०% तक कर दिया।"

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बेशक शुरुआत में दिक़्क़तें आईं, तमाम जगह महिलाओं के इस सांविधानिक अधिकार को पुरुषों ने चुरा लिया- चुनी गई स्त्रियों की जगह उनके अधिकार उनके परिवार के सदस्यों जैसे पिता और पति ने हथिया लिए, प्रधान पति जैसे विडंबनापूर्ण संबोधन गढ़े गये पर तब से अब तक स्थिति बहुत बदल चुकी है। तमाम जगह स्त्रियों के ख़ुद के संघर्ष से जब उन्होंने अपने अधिकार छीने जाने का विरोध किया और अपने पदों पर ख़ुद काम करने का निर्णय लिया। और बहुत जगह अधिकारियों के सहयोग से भी जिन्होंने इन प्रधान पतियों और प्रमुख पतियों को बाहर का रास्ता दिखा कर अपनी भूमिका निभाई। हाल में आई बेहद चर्चित और सफल वेबसीरीज पंचायत का वह दृश्य सहज याद आता है जिसमें एक अधिकारी ने प्रधान पति को बाहर का रास्ता दिखाया।असल में सिर्फ़ ३३% आरक्षण के प्राविधान के बावजूद यूनाइटेड नेशंस वीमेन संगठन के आँकड़ों के मुताबिक़ आज भारत के चुने हुए स्थानीय निकाय प्रतिनिधियों में महिलाओं की संख्या ४४% है जो फ़्रांस, यूके और जर्मनी जैसे देशों से भी बहुत ज़्यादा है! असल में तमाम भारतीय राज्यों जैसे उत्तराखंड, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, तमिलनाडु, उड़ीसा, केरल और बिहार में महिलाओं का स्थानीय निकाओं में प्रतिनिधित्व ५०% के ऊपर है!"

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निश्चय ही स्वायत्त निकायों में चुने जाने और अपनी भूमिका निभाने के इस ठीक ३० साल माने तीन दशक के अनुभव ने महिलाओं को पूरी तरह से सशक्त कर दिया है कि वह अब संघ और राज्य की विधायिकाओं में भी अपनी दमदार उपस्थिति दर्ज करें।"

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तमाम अंतर्विरोधों के बावजूद लोक सभा में इस विधेयक को मिला अप्रतिम समर्थन, पक्ष में ४५४ जबकि विरोध में सिर्फ़ २ वोट, यह दिखाता है कि भारत का राजनैतिक नेतृत्व चाहे या ना चाहे, उसे स्त्रियों को उनका वाजिब हक़ देना ही पड़ेगा।"

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पर यह , वह यह कि इस विधेयक को सरकार ने जनगणना और लोक सभा और विधान सभा क्षेत्रों के परिसीमन से जोड़ दिया है जिससे यह क़ानून पारित होकर भी एक पोस्ट डेटेड चेक होकर रह गया है जिसको कम से कम २०२९ से पहले भुनाना संभव नहीं है।"

पहले तो स्त्रियों को संसद और विधानसभाओं में आरक्षण का संसद और विधानसभा क्षेत्रों की सीमा से कोई रिश्ता नहीं है। दूसरे इसे जनगणना और परिसीमन से जोड़ना इसमें भयानक देरी कर सकता है। हम सब जानते हैं कि २०२१ में होने वाली जनगणना कोविद के चलते टल गई थी, जो अब तक शुरू नहीं हो पाई है। इसका मतलब यह हुआ कि वह अगले लोकसभा चुनाव के पहले हो भी नहीं पाएगी। जनगणना के अंतिम आँकडें आने में कम से कम डेढ़ साल का समय लगता है, मतलब देरी और होगी! "

उससे भी दिक्कततलब है विधायिकाओं में स्त्री आरक्षण को संसदीय और विधानसभा क्षेत्रों के परिसीमन से जोड़ना! परिसीमन जनगणना से भी ज़्यादा लंबा समय लेता है- भारत में 1976 में हुए पिछले परिसीमन में पूरे ५ साल लगे थे। परिसीमन को लेकर एक बड़ा विवाद भी है- जनसंख्या के आधार पर सीटें निर्धारित होने की वजह से बीमारू राज्यों को परिसीमन का फ़ायदा होता है और प्रगतिशील, लगातार अपनी जनसंख्या स्थिर कर रहे राज्यों को नुक़सान। जैसे जब भी परिसीमन हुआ, उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश आदि के लोकसभा क्षेत्र दक्षिण भारतीय राज्यों के क़रीब दुगने बढ़ जाएँगे, और इसीलिए दक्षिण भारतीय राज्य इसका तीखा विरोध कर रहे हैं! सो इस बार के परिसीमन में निश्चय ही राज्यों के बीच वैधानिक विवाद होंगे और फिर कितना समय लगेगा कोई नहीं जानता।"

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ऐसे में बेहतर हो कि केंद्र सरकार विधायिकाओं में स्त्री आरक्षण को जनगणना और परिसीमन से अलग कर इसी चुनाव में लागू करे।"

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साथ ही इसमें ओबीसी महिलाओं को भी आरक्षण मिलना चाहिए- पर इस असहमति के चलते इसे क़ानून बना इसे लागू करने में देर नहीं होनी चाहिए। भारतीय संविधान की सबसे बड़ी ताक़त है इसकी जीवंतता, ओबीसी आरक्षण समर्थक दल और मेहनत कर वापस सत्ता में आकर फिर संसोधन कर उसे जोड़ भी सकते हैं।"

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